अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर घोटाले ने एक बार फिर देश का ध्यान रक्षा सौदों में होेने वाले भ्रष्टाचार की ओर खींचा है। साथ ही यह बहस फिर तेज हुई है कि आखिर इसका अंतिम समाधान क्या है। क्या भारत में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह अपनी बदौलत रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर बन जाए ताकि इस प्रकार घूस और दलाली की समस्या ही पैदा न हो। वास्तव में जब बारह वीवीआइपी हेलिकॉप्टर के 3665 करोड़ के सौदे में करीब साढ़े तीन सौ करोड़ रुपए से ज्यादा की दलाली हो सकती है तो फिर बड़े सौदों में कितनी होती होगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। हालांकि वर्तमान सरकार के कार्यकाल में कई बड़े रक्षा सौदे हुए हैं, पर उनमें अभी तक दोनों पक्षों की ओर से किसी प्रकार के लेन-देन का मामला सामने नहीं आया है। सरकार ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वह सीधे संबंधित कंपनी से बात करेगी।

अभी फ्रांस से राफेल लड़ाकू जहाजों को सौदा अंतिम दौर में है। इसमें समय लगा है लेकिन रक्षा विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यह सौदा हमारी शर्तों पर हो रहा है और इतना पारदर्शी है कि कोई भी इसमें कहीं से भ्रष्टाचार की गंध महसूस नहीं कर सकता है। बल्कि भारत ने सीधे कंपनी से इसमें इतना मोलभाव किया है कि किसी बिचौलिए के लिए लेन-देन की गुंजाइश ही नहीं है। लेकिन हर मामले में यह संभव हो, आवश्यक नहीं। रक्षा उत्पादन और बिक्री पर नजर रखने वाले जानते हैं कि हर कंपनी अपना एजेंट रखती है और एजेंट बिना कमीशन के काम नहीं कर सकते। हर रक्षा उत्पादन कंपनी अपनी सामग्रियों की कीमतों में कमीशन का एक हिस्सा रखती ही है। पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरमण ने सेवानिवृत्ति के बाद कहा था कि सारी रक्षा कंपनियां कुछ प्रतिशत कमीशन के लिए रखती हैं, इसलिए मेरा सुझाव है कि उसका एक कोष बना कर किसी सार्वजनिक कार्य पर खर्च किया जाए। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी यही मानते थे।

आज तक हमारे देश में या शायद किसी अन्य देश में भी कमीशन की उस राशि का कोई कोष बना कर समाज-सेवा पर खर्च करने की पहल नहीं हुई है। हालांकि कुछ देशों में कमीशन को मान्यता है। लेकिन ज्यादातर देश ऐसा करने का साहस नहीं करते। रक्षा कंपनियों को इसमें समस्या नहीं आ सकती। उनके लिए कमीशन चाहे देश ले या एजेंट, उनका तो उत्पादन बिकना चाहिए। हमारे देश में भी कई बार यह मांग उठती है कि क्यों न कमीशन को मान्य कर दिया जाए। लेकिन मामला केवल एजेंट के कमीशन तक सीमित नहीं होता, सौदा पटाने के लिए घूस और दलाली को तो मान्यता नहीं दी जा सकती। यह तो भ्रष्टाचार को स्वीकार करना हो जाएगा। हमारे देश में 1986-87 में बोफर्स तोप दलाली कांड से लोगों का ध्यान रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार की ओर गया था…हालांकि उसके पहले आजादी के कुछ ही सालों बाद रक्षा जीप सौदे में घोटाला सामने आ चुका था। लेकिन उस समय के नेताओं पर जनता को इतना विश्वास था और विपक्ष तथा मीडिया भी इतना सशक्त नहीं था कि उस पर आज की तरह हंगामा हो।

चूंकि भारत रक्षा-बाजार का एक स्थायी और बड़ा खरीदार बना हुआ है, इसलिए इसकी आवश्यकताओं को देख कर रक्षा निर्माता कंपनियां अपने एजेंटों के माध्यम से प्रत्यक्ष-परोक्ष संपर्क करने की कोशिश करती हैं। कई बार एजेंट भी प्रच्छन्न होते हैं जिनका अहसास हमें नहीं होता। वे कई रूपों में काम करते हैं। हो सकता है वे रक्षा विशेषज्ञ बन कर टीवी चैनल पर अपना ज्ञान दे रहे हों या कहीं सलाहकार के पद पर कार्यरत हों। वे संबंधित विभागों के अधिकारी-कर्मचारी हो सकते हैं…या नेता भी। इनको पहचानना आसान नहीं होता।

ऐसा लगता है जैसे रक्षा सौदे और कमीशन, रक्षा खरीद और दलाली एक दूसरे से अंतर्संबद्ध हो चुके हैं। दुनिया में इसकी मान्यता भी है। जब आप एक प्रोपर्टी खरीदते हैं तो उसके बीच में प्रोपर्टी डीलर कमीशन के लिए आपकी सेवा करता है। इसे हम सब आम व्यवहार मान चुके हैं। फिर रक्षा सौदे में कोई कमीशन एजेंट नहीं होगा ऐसा हम कैसे मान सकते हैं। कमीशन एजेंट है तो वह कई तरीकों से सौदों को पटाने की कोशिश करेगा…हमारी शर्तों के अनुसार कमीशन एजेंट नहीं है तो कंपनियों के प्रतिनिधि ही उस भूमिका में आकर सौदे पर बातचीत करने वालों को प्रभावित करते हैं। वे धनबल के प्रभाव से सत्ता तक अपने उत्पादन की वकालत करने वाले लोग पैदा कर लेते हैं। बिकने के लिए हजारों पंक्तियों में लगे खड़े हैं।

अगस्ता वेस्टलैंड में कोई घोषित कमीशन एजेंट नहीं था, लेकिन उसमें भ्रष्टाचार हुआ। इटली स्थित मिलान के न्यायालय ने साफ कर दिया है कि सौदे के लिए किस तरह नकदी और वायर से धन भेजे गए। उसके लिए चंडीगढ़ की एक अलग विधा में काम करने वाली कंपनी आइडीएस इंफोटेक एंड एअरोमेट्रिक्स का इस्तेमाल हुआ ताकि किसी को भनक न लगे। इसी तरह मॉरीशस, ट्यूनीशिया जैसे देशों का भी इस्तेमाल हुआ। आइडीएस इन्फोटेक एंड एअरोमेट्रिक्स कंपनी के निदेशक मंडल के सदस्य गौतम खेतान को प्रवर्तन निदेशालय ने गिरफ्तार भी किया था। उनसे फिर पूछताछ हुई है। कोई सोच सकता था कि यह कंपनी सौदे की दलाली की रकम पहुंचाने का काम करेगी और उसके पीछे सूचना क्षेत्र में सेवा के बदले भुगतान का उसके पास दस्तावेजी सबूत भी होगा?

अगर दुनिया के स्तर पर नजर दौड़ाएं तो रक्षा सौदों पर काम करने वाले लोगों का मानना है कि हर वर्ष जितने रक्षा सौदे होते हैं उनमें करीब-करीब उतना कमीशन जाता होगा जितना भारत जैसे विकासशील देश का बजट होगा। हो सकता है इतना कमीशन न हो या हो सकता है इससे ज्यादा भी हो…कहने का तात्पर्य यह कि कमीशन एक सच है, सौदा पटाने के लिए घूस एक सच है , और जब तक रक्षा सौदे हैं यह जारी रहेगा।

जब तक हमारे पड़ोस में चीन और पाकिस्तान जैसे देश आधुनिकतम हथियार प्रणाली एकत्रित कर रहे हैं हमारे पास उसके समानांतर रक्षा-शक्ति अर्जित करने के अलावा कोई चारा नहीं है। तो उपाय दो ही हैं। या तो इस सच को स्वीकार कर कमीशन को मान्यता दे दी जाए। वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में इस पर विचार हुआ था और सहमति भी बनी थी। या फिर दूसरा तरीका है कि दुनिया का सबसे बड़ा रक्षा खरीदार बन चुका भारत रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर होने की कोशिश करे। यानी हम खरीदार की जगह निर्माता बन जाएं और फिर घूसखोरी से स्थायी रूप से पिंड छूटे।

इसमें दूसरा रास्ता परिश्रमसाध्य है, पूंजीसाध्य है, संकल्पसाध्य है, लेकिन यह रास्ता भ्रष्टाचार से बचने का तो है ही, जनता की गाढ़ी कमाई का करोड़ों-अरबों बचाने का भी है, अपने देश में रक्षा उत्पादन करके हजारों को रोजगार देने का है, दूसरे देशों को बिना दलाली रक्षा उत्पाद बेच कर ईमानदार विक्रेता बनने का है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ का एक लक्ष्य रक्षा उत्पादन के लिए देशी-विदेशी निजी निर्माताओं को प्रोत्साहित करना भी है। इसके लिए रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति मिल चुकी है। जो रक्षा सौदे हो रहे हैं उनमें भी एक शर्त यही है कि उनकी एक निश्चित राशि भारत में निवेश की जाए। जो रक्षा सौदे हो रहे हैं उनसे तकनीक लेने की भी शर्तें रखी जा रही हैं ताकि भारत उनके कल-पुर्जे स्वयं उत्पादित कर सके और संबंधित कंपनियों पर से निर्भरता घटे।

तो एक प्रकार से इसकी नींव डाली जा चुकी है। लेकिन जैसा हम जानते हैं, रक्षा उत्पादन में भारी निवेश की आवश्यकता है…इसलिए कोई रक्षा उत्पादन कंपनी आसानी से निवेश करने नहीं आने वाली। मोदी के लगातार प्रयास के बाद भी अभी तक कोई बड़ी उपलब्धि हमारे हाथ नहीं आई है। पर एक बार अगर नीति बन गई, प्रयास आरंभ हो गया तो इसको फलीभूत होना है। वस्तुत: यह आत्मविश्वास का भी प्रश्न है। आखिर जो देश स्वदेशी रॉकेट बना कर दुनिया की प्रथम पंक्ति में खड़ा हो सकता है, जो मिसाइल में बड़े देशों का मुकाबला कर सकता है, वह रक्षा सामान क्यों नहीं बना सकता है। हमने बहुत पहले परमाणु परीक्षण करके दुनिया को चौंका दिया था। फिर हमने दूसरा परीक्षण भी कर दिया। इसका अर्थ है कि प्रतिभा हमारे पास है, हमारे वैज्ञानिकों और तकनीशियनों में क्षमता है। तो बात रह जाती है पूंजी की।

स्वदेशी रक्षा उत्पादन पर विचार करते समय यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि दुनिया में जो भी रक्षा सामग्रियों के निर्माता देश हैं वहां निजी कंपनियां ही मुख्य निर्माता हैं। चाहे अमेरिका हो, फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन, ब्रिटेन, इटली.. यहां तक कि रूस में भी उत्पादन अब निजी कंपनियों के हाथों में ही है। तो भारत में भी केवल सरकारी कंपनियां रक्षा उत्पादन करें यह व्यावहारिक नहीं होगा। निजी कंपनियों को इसके लिए आगे लाना ही होगा। मोदी सरकार यह प्रयास कर रही है। भारत की निजी कंपनियों से विदेशों की रक्षा उत्पादन कंपनियों के साथ करार कराने की कोशिशें हो रही हैं और कुछ सफलता भी मिली है। हम सब जानते हैं यह आसान नहीं है, पर रास्ता तो यही है और इस रास्ते ही स्वदेशी उत्पादन करके हम खरीदार से निर्माता बन सकते हैं। दलाली और भ्रष्टाचार से छुटकारा पा सकते हैं।