यह सच है कि विकास को गति देने के लिए संचार, परिवहन और उद्योग सभी आवश्यक हैं, मगर देश के नागरिकों के स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए वायु और संपूर्ण पर्यावरण को शुद्ध रखना भी उतना ही जरूरी है।
दुनिया में पहली बार किए गए अपनी तरह के एक शोध में मानव जीवन के लिए खतरा बने प्रदूषण से जुड़ी डरावनी स्थितियां सामने आई हैं। भारत सहित दुनिया के एक सौ सैंतीस देशों में मां के गर्भ में ही जान गंवाने वाले पैंतालीस हजार शिशुओं पर हुए अध्ययन में यह सामने आया कि उनमें चालीस फीसद बच्चों की मौत का कारण हवा में मौजूद पीएम 2.5 कण था। शोध में शामिल देशों में वर्ष 2010 में 23.1 लाख, 2019 में 19.3 लाख और 2015 के दौरान 20.9 लाख शिशु जन्म से पहले ही मर गए थे।
दुनिया में आने से पहले ही जान गंवा देने वाले शिशुओं में से साढ़े नौ लाख बच्चों की मौत की बड़ी वजह हवा में मौजूद दूषित कण पीएम 2.5 था। ‘नेचर कम्युनिकेशन’ पत्रिका में छपे इस शोध के मुताबिक गर्भवती महिला जब दूषित हवा में सांस लेती है, तो गर्भनाल के जरिए हवा में मौजूद कण नवजात तक पहुंचते हैं। इससे भ्रूण का स्वास्थ्य प्रभावित होता है। इतना ही नहीं, दमघोंटू हवा के संपर्क में रहने वाली मां के शरीर में पल रहे भ्रूण या शिशु को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन भी नहीं मिल पाती है। ऐसे गर्भ के भीतर शिशु का विकास तो प्रभावित होता ही है, कई बार दम भी घुट जाता है। यह स्थिति वाकई चिंतनीय है।
हाल के बरसों में दुनिया के हर हिस्से में वायु प्रदूषण बढ़ा है। हवा में घुलता जहर इंसान ही नहीं, धरती पर मौजूद हर प्राणी के लिए खतरा बन गया है। भारत के महानगरों में तो नवजात और बड़े होते बच्चे भी दमघोंटू हवा के घेरे में अनेक स्वास्थ्य समस्याओं का शिकार बन रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा वर्ष 2021 में किए गए एक शोध के अनुसार दुनिया भर में हर साल 8.30 लाख नवजात बच्चों की अकाल मौत का कारण दूषित वायु है।
दरअसल, बढ़ता वायु प्रदूषण जीवन से जुड़े हर हिस्से को प्रभावित कर रहा है। प्रदूषित हवा का हृदय रोग, सांस संबंधी बीमारियों और कैंसर के साथ गहरा नाता है। हवा में घुलता जहर हर आयु वर्ग के लोगों के स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। बच्चों में बढ़ रहे कैंसर के मामलों की सबसे बड़ी वजह हवा में मौजूद हानिकारक तत्त्व ही हैं। हवा में मौजूद प्रदूषित कणों के बढ़ने से बच्चों का सहज विकास भी प्रभावित होता है, जिसके चलते जन्म के समय से ही बच्चों में शारीरिक-मानसिक विकृति पैदा हो सकती हैं। इतना ही नहीं, हवा में घुलते जहर के चलते महिलाओं में गर्भपात के आंकड़े भी बढ़े हैं।
उल्लेखनीय है कि हवा की गुणवत्ता और गर्भस्थ तथा नवजात शिशुओं का स्वास्थ्य परस्पर गहराई से जुड़े हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन आफ इंडिया, इंस्टीट्यूट आफ हेल्थ मेट्रिक्स ऐंड इवैल्युशन द्वारा कुछ साल पहले किए गए साझा अध्ययन ‘ग्लोबल बर्डेन डिजीज’ अध्ययन के आंकड़े साफ बताते हैं कि पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में वायु प्रदूषण फेफड़े के संक्रमण का अहम कारण बन रहा है। गौरतलब है कि भारत में आज भी श्वसन रोग और निमोनिया बच्चों की मौत की सबसे बड़ी वजह है। बच्चों के अति संवेदनशील अंग हद से ज्यादा बढ़े प्रदूषण की मार झेलने में असमर्थ होते हैं। इसलिए वे जल्दी ही कई व्याधियों का शिकार बन जाते हैं।
आज की बदलती जीवन-शैली में प्रदूषण बाहर ही नहीं, घर के भीतर भी कम नहीं है। दोनों ही जगह वायु प्रदूषण गर्भस्थ और नवजात बच्चों के लिए घातक साबित हो रहा है। ठंड के मौसम में स्थितियां और खराब हो जाती हैं। हर वर्ष राजधानी दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के चलते बच्चों के स्कूल बंद करने और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं अचानक बढ़ जाने की खबरें आती हैं।
विचारणीय यह भी है कि बदलती सामाजिक-पारिवारिक स्थिति भी गर्भ में पलते बच्चों और प्रदूषण के हालात से जुड़ी है। हाल के वर्षों में देर से शादी करने और बड़ी उम्र में मां बनने का चलन बढ़ा है। नतीजतन, गर्भ में पल रहे बच्चे के स्वास्थ्य से जुड़े जोखिम भी बढ़े हैं। नेचर कम्युनिकेशन में छपे शोध में भी वैज्ञानिकों ने कहा है कि दूषित हवा अधिक उम्र की महिला के गर्भ में पल रहे शिशु के लिए ज्यादा खतरनाक साबित हो रही है।
नई पीढ़ी को दी जाने वाली थाती में हवा-पानी की स्वच्छता हमारी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर होनी चाहिए थी, पर दुखद है कि दमघोटू हवा उनका जीवन जोखिम में डाल रही है। भारत ही नहीं, दुनिया भर में विकास की रफ्तार के आगे जीवन रक्षा से जुड़े मानकों की अनदेखी जीवन पर भारी पड़ रही है। यह सच है कि विकास को गति देने के लिए संचार, परिवहन और उद्योग सभी आवश्यक हैं, मगर देश के नागरिकों के स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए वायु और संपूर्ण पर्यावरण को शुद्ध रखना भी उतना ही जरूरी है।
वनों की अंधाधुंध कटाई से लेकर सड़क पर बढ़ते वाहनों की संख्या और सुविधा संपन्न जीवन-शैली के चलते विकासशील देशों की घनी आबादी वाले शहरों में हालात बेहद खराब हो चले हैं। हर आयुवर्ग में सेहत संबंधी परेशानियां बढ़ रही हैं। गौरतलब है कि भारत में वायु प्रदूषण से हर साल लाखों लोग अपनी जान गंवा देते हैं। हवा में घुले विषाक्त तत्त्वों के चलते आज एक बड़ी आबादी दमा, हृदय रोग, कैंसर, चर्म रोग आदि से ग्रस्त है।
अगर हमारा देश हवा के गुणवत्ता मानकों को पूरा करने के लिए अपने लक्ष्यों को सुधार लेता है, तो 66 करोड़ लोगों की उम्र 3.2 साल और बढ़ जाएगी। ऐसे में उम्र की गिनती शुरू होने के पहले ही मासूमों का जीवन छिन जाना तो भयावह होते हालात की ओर इशारा करता है। अफसोस की बात है कि दूषित हवा के कारण भावी पीढ़ी या तो गर्भ में जान गंवा रही है या बीमारियों के साथ संसार में आ रही है।
गौरतलब है कि बच्चों पर केंद्रित पिछले वर्ष आई यूनिसेफ की ‘द क्लाइमेंट क्राइसिस इज ए चाइल्ड राइट्स क्राइसिस- इंट्रोड्यूसिंग द चिल्ड्रेन्स क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स’ रिपोर्ट में भी ऐसे कई खतरों को लेकर चेताया गया था। इस रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण नई पीढ़ी के स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा को गंभीर खतरा है। बचपन से जुड़े जोखिमों के मोर्चे पर भारत भी दक्षिण एशिया के उन चार देशों में शामिल है, जो अत्यधिक खतरे में हैं। इतना ही नहीं, प्रदूषण की वजह से बच्चों की बौद्धिक क्षमता भी प्रभावित हो रही है।
स्पष्ट है कि सेहत से जुड़ी परेशानियों का बढ़ना, स्कूल बंद होना और प्रदूषित हवा में सांस लेने के चलते बीमारियों से घिर जाना गंभीर खतरों की ही बानगी बन रहा है। ऐसे में उद्योगों और बढ़ते वाहनों से लेकर घरेलू कामकाज से उत्सर्जित होने वाली विषाक्त गैसों में कमी लाने को लेकर कोई ठोस और व्यावहारिक हल खोजना आवश्यक है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी कहना है कि भारत में क्षमता है कि वह बढ़ते वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए कम लागत में प्रभावी तरीकों से परिवर्तन लाए। जरूरी है कि आमजन भी अपनी जीवन-शैली में बदलाव कर सहूलियतें जुटाने के बजाय बच्चों को स्वच्छ परिवेश देने के बारे में सोचें। साथ ही प्रशासनिक मोर्चे पर भी दोषारोपण के बजाय दमघोंटू हवा से निजात दिलाने की राह ढूंढ़ी जाए। यह समझना बेहद आवश्यक है कि किसी भी तरह के विकास के मायने मानवीय जीवन से बढ़ कर नहीं हैं।