अमरावती की बैठक के जरिए ‘विचारों के गुच्छे’ में जो बदलाव हुआ उसका हासिल 16 मई 2014 की भाजपा की ऐतिहासिक जीत थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 2025 में अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाएगा। वह संघ की संस्कृति की सीढ़ी ही थी जिसने भाजपा को सत्ता के कंगूरे पर बिठाया। संघ को इस बात का अहसास है कि 2014 तो महज 31 फीसद ‘भारतीयता’ की ही विजयगाथा है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के सौ फीसद तक पहुंचने के लिए स्वदेशी, गणवेश व जाति के गणित से लेकर लैंगिक व समलैंगिक मुद्दों तक में बदलाव को प्राकृतिक विकासक्रम कहते हुए अपनाया। औसत भारतीय मतदाताओं तक पहुंचने के लिए पतलून से लेकर विश्वग्रामी हुए। साम, दाम, दंड, भेद की बात करें तो अगर संघ कुछ समय बाद अपने हाथ से दंड (डंडा) भी नीचे गिरा दे तो कोई आश्चर्य नहीं। भागवत के भगवा काल में संघ की साख पर इस बार का बेबाक बोल।

विधानसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश के दौरे के समय वाराणसी के पास एक गांव में संघ के कार्यकर्ता से बात हो रही थी। संघ का कार्यकर्ता की संज्ञा मैं ही दे रहा हूं, उसने खुद ऐसा कोई दावा नहीं किया था। खादी के कुर्ते-पायजामे पर गेरुआ अंगरखा और मोदी जी, शाह जी शब्दों के इस्तेमाल के कारण ही मेरे सामने उसकी स्पष्ट पहचान थी। मैंने उससे कहा कि इस बार मोदी जी हार गए तो? उसने बड़े ही संयत भाव से कहा, ‘नहीं भैया जी, 300 के पार जाएंगे’। उसके जवाब पर मेरा जो अट्टहास था, वह बाद में खुद मुझे ही बुरा लगा, लेकिन उस वक्त उसके चेहरे की स्निग्धता में कोई कमी नहीं आई। नोटबंदी से लेकर किसानों के मुद्दे पर मेरे हर तर्क को वह बहुत संयत ढंग से भारतीयता और भारतीय संस्कृति की ओर मोड़ रहा था। बातों का आदि और अंत भारतीयता थी। थोड़ी देर बाद उसकी ‘भारतीयता’ को मैं अपने आस-पास महसूस कर रहा था। इस बातचीत के कुछ दिनों बाद 11 मार्च को आए चुनावी नतीजों ने मुझे मेरा अट्टहास और उस भगवा अंगरखे वाले की स्निगधता याद दिलाई। बनारस के आस-पास वैसे ही अति साधारण से लोग याद आए जो महज दो जून की रोटी और शरीर ढकने लायक कपड़े भर की संपत्ति रख एक खास दिशा में काम कर रहे थे। और, इनकी शक्ल राजनीतिक कार्यकर्ता जैसी भी नहीं थी। एक खास तरह की राजनीति केइन दूतों ने राजनीति को अपना करियर नहीं जीवनधारा बना रखी है।

दिल्ली से चंडीगढ़ की ट्रेन यात्रा के दौरान दुनिया को और कई फ्रांस हासिल करने की शुभकामना का ट्वीट करने के साथ ही महिला सहयात्री की आवाज कानों में गूंजी, भला भारत को कोई तीन साल में ठीक कर सकता है…। तीन साल पहले का भारत… आखिर क्यों खारिज हो रहा है वह भारत और उसके बरक्स कैसे भारत का निर्माण हो रहा है? बनारस का वह संघ कार्यकर्ता और चंडीगढ़ के रास्ते में महिला सहयात्री। उसके मुंह से बार-बार निकला तीन साल बरक्स साठ सालों की गुलामी का जुमला सहयात्रियों को आकर्षित कर रहा था और मेरी नोटबंदी और कर्मचारियों की छंटनी की दुहाई, गोरक्षकों के उदाहरण खारिज हो रहे थे। फ्रांस में मैक्रों और ट्रेन में बैठी ‘दुर्गावाहिनी’ (यह पहचान भी मेरा आकलन) जो हमें छह दशकों से गुलाम बता रही है। फ्रांस की क्रांति से जो उदारवाद का दौर शुरू हुआ था उसका उत्कृष्ट रूप समाजवाद में दिखा। अगर उदारवाद सत्तानशीं हुआ तो वह कौन सी शक्ति थी जिसने अपनी सत्ता गंवाई थी। वह शक्ति ‘परंपरा’ ही तो थी जिसके पुनर्जागरण की बात ‘दुर्गावाहिनी’ कर रही थी। मेरा सवाल था, क्या 2019 में भी मोदी की सरकार बनेगी? महिला ने कहा, 2025 में राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ अपनी सौवीं वर्षगांठ मनाएगा। अभी तो उसकी तैयारी चल रही है।

उदारवाद से पदच्युत परंपरा वैचारिकी के रूप में अपने पुनर्जागरण की कोशिश में नए रूप गढ़ रही थी। भारत में इसका निर्माण राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के रूप में हुआ जिसे पिछले छह दशकों में यूरोपीय संदर्भ में फासीवादी घोषित कर गहरी आलोचना झेलनी पड़ी। लेकिन अपनी आलोचनाओं के बरक्स यह उदारवादी समाज के साथ कमदताल में जुटा रहा। जहां रूप, रंग और वर्दी बदलने की जरूरत हुई उससे कोई परहेज नहीं किया। यह कहते और समझते हुए कि बदलाव प्रकृति का नियम है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शुरुआत पश्चिमी उदारवादी मूल्यों की मुखालफत से शुरू होती है। पश्चिम के खिलाफ भारतीय परंपरा के गठन की वैचारिकी दी गई जिसके निशाने पर आया यूरोप का उदारवादी मॉडल। धार्मिक आधार पर (मुसलमान और ईसाईयत) दो शत्रु बहुत साफ-साफ खड़े थे। और, यहां हम देखते हैं कि संघ की कार्यशाला में हिंदू धर्म से निकले बौद्ध और जैन धर्म को गले से लगाया गया यह कहकर कि इनकी पुण्यभूमि भारत है। और, अब उन मुसलमानों का भी विरोध नहीं है जो अपनी मातृभूमि और पृण्यभूमि का दर्जा भारत की धरा को देंगे।

‘यूरोपीय समाजवाद’ के खिलाफ भारतीयता के इस निर्माण में सबसे पहली अवधारणा स्वदेशी की थी। लेकिन उदारवाद से नवउदारवाद के सफर में पहला रोड़ा स्वदेशी ही था इसलिए भूमंडलीकरण को बिना परहेज अपना कर स्वदेशी जागरण मंच की गूंज को सुला दिया गया। संघ को यह अहसास था कि भूमंडलीकरण के दौर में संस्कृति ही वह तत्त्व होगी जो उसे कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक स्थापित करेगी। बाबा रामदेव का स्वदेशी मॉडल भी आया और भूमंडलीकरण का विरोध भी खत्म कर दिया गया। संघ का यह उदारवादी चेहरा नवधनाढ्य उच्च मध्यम वर्ग और कारपोरेट संस्कृति से जुड़े लोगों को भी अपनी शाखाओं तक लाने में कामयाब रहा। पिछले तीन सालों में हम संघ की भारतीयता के इस निर्माण को बखूबी देख सकते हैं। सोशल इंजीनियरिंग के गणित में जाति व्यवस्था और छुआछूत को घटा कर हिंदू हितों की एक साझा जमीन तैयार की। इसका हासिल चक्रवृद्धि ब्याज वाला रहा। जिन जगहों पर आरक्षित श्रेणी से आनेवाले चेहरों का दबदबा था, पिछले तीन सालों में वहां भाजपा अगुआ बन चुकी है। दलित-अल्पसंख्यकों के साथ वह अपराजेय समीकरण की रणनीति की ओर है।

1974 का जेपी आंदोलन हो या उसकी याद दिलाता हाल का अण्णा आंदोलन – दोनों का सबक है कि संघ कार्यकर्ताओं के कंधों पर चढ़कर ही सत्ता की अट्टालिका पर लहरा रहा झंडा बदला गया। कवि हृदय वाले और राजधर्म का पाठ पढ़ाने वाले अटलयुग से आडवाणी के संभावित लौहयुग के बरक्स राज्य के संस्थागत ढांचे में सेंध लगाने के लिए संघ ने अपने उस प्रमुख प्रचारक को आगे किया जो सत्ता पक्ष की अगुआ को सोनिया ‘माइनो’ कहकर संबोधित कर रहा था। हम पत्रकार शायद भूल जाएं, लेकिन संघ को इस बात का अहसास है कि मीडिया जिसे प्रचंड बहुमत कह रहा है वह ‘भारतीयता’ या ‘हिंदुत्व’ का महज 31 फीसद था। संघ अपने मूल जातिगत समीकरण यानी महाराष्टÑ के ब्राह्मणों और बनियों से काफी पहले आगे बढ़ चुका है। बजरिए उत्तर प्रदेश ओबीसी और दलितों में उसकी पैठ हो चुकी है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पिछड़ी जातियों के बीच उसके कार्यकर्ता काम कर रहे हैं। इस भारतीयता के निर्माण के चरण में हिंदुओं के उस तबके का गृह-प्रवेश करवाया है जिसे पहले जाति व्यवस्था ने बेदखल किया था। जम्मू-कश्मीर में संघ की शाखाओं में बीस फीसद से ज्यादा का इजाफा हुआ है। बंगाल से लेकर केरल तक में भाजपा जो प्रमुख विपक्षी आवाज बन बैठी है वह संघ कार्यकर्ताओं के अथक श्रम का नतीजा है। भारतीय विद्यार्थी परिषद, शिक्षा भारती, एकल विद्यालय, स्वदेशी जागरण मंच, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, मुसलिम राष्टÑीय मंच, शिशु विद्या मंदिर, विद्या भारती, सेवा भारती, आरोग्य भारती, प्रज्ञा प्रवाह, राष्टÑ सेविका समिति…संघ के इन अनुषंगी संगठनों के चरित्र और संख्या बल पर ध्यान दीजिए। इन संगठनों का कर्मक्षेत्र सांस्कृतिक है। इन संगठनों के संख्या बल को देखते हुए यहां से निकलने वाली ‘भारतीयता’ का अंदाजा लगाइए। संघ के संस्थापक सरसंघचालक हेडगेवार का अमर वाक्य, ‘कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक समूचे हिंदू समाज को संगठित करना है’ का लक्ष्य 2025 है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए जल-जंगल-जमीन पर सांस्कृतिक मुहिम चल रही है।

संघ ने अपने कट्टरपंथी और पुरातनपंथी चोले को बदल कर अपनी समावेशी तस्वीर तैयार कर ली है। लैंगिक से लेकर समलैंगिक मुद्दों तक पर उसने आधुनिक स्वर अपना लिया है। प्रमुख संघ प्रचारक तक यह कह चुके हैं कि अगर दूसरे को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता है तो समलैंगिकता कोई अपराध नहीं है। लैंगिक विषयों पर शुरुआत कर उदारवादी मुसलिम महिलाओं का दिल तो जीत ही लिया है। आखिर यूं ही नहीं मीडिया में कपिल सिब्बल का बयान संक्रमण की तरह फैल जाता है कि तीन तलाक को वो आस्था का सवाल रहने देना चाहते हैं। विरोधी चाहे कितने भी सवाल उठाएं कि आप मुसलिम महिलाओं से ही महिलावादी आंदोलन क्यों कर रहे हैं। लेकिन संघ को पूरी समझ है कि इस मुद्दे पर खारिज वही होंगे जो ‘अभी क्यों, पहले क्यों नहीं’ वाले सवाल उठा रहे हैं। और अगर, इसमें महिलाओं के हक में कोई फैसला आ जाता है तो इसका संघ की छवि पर कितना सकारात्मक असर पड़ेगा, यह सोचा जा सकता है। कांग्रेस को इस बात का अहसास ही नहीं है कि जब उसके नेता अदालत में पेशेवर वकील का कोट पहन कर तीन तलाक की तरफदारी कर रहे हैं तो पार्टी कितना कुछ खो रही है। सिब्बल का बयान जब अदालत से निकल कर सड़क और संसद तक गूंजेगा तो कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता पर सिब्बल की ‘व्यावसायिकता’ और पार्टी की ‘प्रतिबद्धता’ की किस तरह अलहदगी करवा पाएगी।

गणवेश से लेकर सामाजिक गणित तक, संघ उतना आधुनिक होने को तैयार है जितना परंपरा के पुनर्जागरण के लिए जरूरी है। और, उसका यही लचीलापन उसे अन्य संगठनों के साथ खुद से भी अलग कर रहा है। और, अपने खुद से ही अलग हो जाना भी सांगठनिक स्तर पर कामयाबी ही कही जा सकती है।
खुद को आमूलचूल बदलने वाला ही किसी सपने का निर्माण कर सकता है। सपने के निर्माण के लिए खुद को ध्वंस कर देनेवाले जो कार्यकर्ता संघ ने हासिल कर लिए हैं ये वो ‘भक्त’ नहीं हैं जो टीवी और सोशल मीडिया पर फारवर्ड और लाइक्स की जंग में व्यस्त हैं। इनके असली कार्यकर्ता तो ओड़ीशा के जंगलों से लेकर केरल के मंदिरों तक गतिमान हैं। ये गुमनाम कार्यकर्ता अभी मूर्त रूप में आपको नहीं दिखेंगे। हां, हो सकता है कि ये इसी धैर्य के साथ काम करते रहे तो बंगाल, ओड़ीशा से लेकर केरल तक में ईवीएम से निकल सकते हैं। क्योंकि जब अन्य दल मशीन दुरुस्त कर रहे थे तब संघ अपनी जमीन दुरुस्त कर रहा था।