सेना को विशेष अधिकार देने वाले अफस्पा को कांग्रेस समर्थन देती रही, तो नागरिक को ढाल बनाने की फौजी कार्रवाई भाजपाकाल में पुरस्कृत हुई। कश्मीर की खास भौगोलिक और राजनीतिक समस्या को ‘धर्म-कांटे’ पर तौल कर उसका इस तरह सांप्रदायीकरण किया कि कश्मीरी पंडितों को अपनी जमीन छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा और मुसलमान भी मारे गए। उसका विस्तार यह है कि आज जाकिर मूसा जैसे लोग खुले तौर पर इसे इस्लामी बनाम गैरइस्लामी समस्या बता रहे हैं। जब राजनाथ सिंह कहते हैं कि वे कश्मीर समस्या का हमेशा के लिए एक हल निकालेंगे तो उसके आगे जाकर वित्त मंत्री सह रक्षा मंत्री अरुण जेटली इसे युद्ध क्षेत्र घोषित कर गेंद सेना प्रमुख के पाले में डाल देते हैं। दिल्ली दरबार और स्थानीय सरकार से बड़ी नाराजगी के बाद भी कश्मीर में एक बड़ा तबका नरेंद्र मोदी को मजबूत प्रधानमंत्री मानता है और कहता है कि अगर वे भी कोई हल नहीं निकाल पाएंगे तो हमारे पास कोई उम्मीद नहीं। नाउम्मीद हो रही उम्मीदों की जमीन पर इस बार का बेबाक बोल।

गीता और गाय में उलझी सरकार जब कश्मीर में बरस रहे पत्थरों की भाषा नहीं समझ पाई तो बचाव के लिए सेना को अपना ढाल बना लिया। जो असंतोष और तरीका सवालों के घेरे में था उसे ही आपने शीर्ष स्तर पर पुरस्कृत कर दिया। कुलभूषण जाधव के लिए अंतरराष्ट्रीय मंच पर आप जिस उदार और मानवाधिकार वाले चेहरे की दुहाई देकर बड़े बने, कश्मीर में उसे ही बोनट से बांध दिया। भारत और पाकिस्तान के बीच बहुत से फर्कों में एक फर्क सेना का भी है।
अब आप भारत और पाकिस्तानी फौज की छवि के बीच की गहरी खाई को पाटने में लगे हैं। सरकार को बनाने और बिगाड़ने में सेना के इस्तेमाल की रवायत भारत में भी न शुरू हो जाए। इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत सिर्फ जुमला न रह जाए, इसलिए नागरिकों में यह भाव रहने दीजिए कि सेना सबकी है।
श्रीनगर के मौलाना आजाद रोड पर महिला महाविद्यालय से कुछ दूर बुर्कानशीं छात्राओं की पत्थर उछालती तस्वीरें जब बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर रही थीं, आप उसे छोटी समस्या बताने लगे। जिस जमीन के लिए आप दशकों से ‘सीना चीर देंगे’ के नारे लगा रहे थे उसके असंतोष को कुछ जिलों तक महदूद कर देना यह बताने के लिए काफी है कि आप दिल्ली से निकल कर कश्मीर तक पहुंचे ही नहीं।

हाल ही में कश्मीर में स्वयंसहायता समूह से जुड़े एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के पहुंचते ही वहां मौजूद महिलाओं ने आजादी के नारे लगाने शुरू कर दिए। महिलाओं को महबूबा की मौजूदगी गवारा नहीं थी। उन्हें लगा कि सरकार हमारा इस्तेमाल अपने प्रचार-प्रसार में करेगी, ‘उम्मीद’ की तस्वीर को आतंकवादियों की नाउम्मीदी से जोड़ेगी। सोशल मीडिया पर फैले कार्यक्रम के वीडियो में महिलाएं आरोप लगा रही थीं कि महबूबा जहां भी जाती हैं हमारे अपनों की लाशें गिरने लगती हैं। कुछ समय पहले ‘दंगल’ फिल्म में भूमिका निभाने वालीं जायरा वसीम महबूबा मुफ्ती से मुलाकात के बाद सोशल मीडिया पर घृणा प्रचार की शिकार हुर्इं और बाद में युवा अभिनेत्री ने ऐसे बयान दिए जिसका लब्बोलुआब यह था कि उन्हें मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती से मिलने नहीं जाना चाहिए था। आपके चेहरे से जनता का इस तरह का अलगाव आपकी कौन-सी पहचान सामने लाता है।

जिस लौहपुरुष ने राजधर्म का पाठ पढ़ाने वाले वाजपेयी के शासन में कश्मीर को लेकर भारत को इजराइल सरीखा कठोर होने की बात कही थी, पिछले तीन सालों से केंद्र में उनकी ही विचारधारा की सरकार है। बस, फर्क है तो चेहरे का। कांग्रेस के शासनकाल और आपके विपक्षकाल में कश्मीर सबसे बड़ा मुद्दा था। आपकी नई-नवेली सरकार दिवाली मनाने के लिए कश्मीर ही चुनती है। साठगांठ से जम्मू-कश्मीर में आपकी सरकार बन भी जाती है। और, केंद्र में सरकार बनने के तीन साल बाद आप कहते हैं कि कश्मीर की समस्या बहुत छोटी है जिसे बढ़ा-चढ़ा कर बताया जाता है। सरकार में दूसरे नंबर वाले सिपहसालार याद दिलाते हैं कि जब कश्मीर में बाढ़ आई थी तो हम उमर अब्दुल्ला के पहले पहुंच गए थे।
यह सच है कि जब अब्दुल्ला की सरकार थी तो आपको कश्मीर की बहुत फिक्र थी, वह आपका मुकुट सरीखा था। लेकिन जब जम्मू-कश्मीर में सरकार में आधी हिस्सेदारी आपकी है तो आप कश्मीर को महज पत्थरबाजों से जोड़ देते हैं। कहते हैं कि नोटबंदी के कारण कश्मीर में पत्थर बरसने कम हो गए। और अब आज सूबे में भाजपा के अगुआ कहते हैं कि कश्मीर में पत्थर फेंकने के एवज में हर युवा को 500 रुपए मिलते हैं। तो आपकी नोटबंदी का असर इतनी जल्दी खत्म हो गया? जब आप अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए दिल्ली में बैठ कर कश्मीर की अस्मिता को पत्थर से जोड़ रहे थे तो आप ‘कश्मीरियत’ के बचे-खुचे भरोसे को खुरच कर जख्म बना रहे थे।

राज मिलते ही कश्मीर की समस्या वाकई आपको छोटी लगने लगी थी, क्योंकि आपकी आंखें बड़ी तो बुरहान वानी के जनाजे को देख कर हुई थीं। जनाजे के साथ मातम मनाती भीड़ के उस सैलाब की खबर पहली बार महबूबा को मिली, जिनके दिलों पर बुरहान वानी राज करने लगा था। आप अपने गठबंधन में ऐसे उलझे कि देख ही नहीं पाए कि जनता की गांठ किसके साथ जुड़ रही है। आपको वहां प्रवेश की ‘सुरंग’ क्या मिली कि आपने कश्मीर को कौन बनेगा करोड़पति सरीखा आसान पाठ समझ लिया कि उसे ‘टूरिज्म’ और ‘टेररिज्म’ में से एक को चुनने के लिए कह दिया। यह विज्ञापनी तरानानुमा नारा दिल्ली वाला मीडिया जिस तेजी से अपनी दृश्यता में कैद करता है, कश्मीर की जनता उतनी ही तेजी से आपके लिए अपने दिलों के दरवाजे बंद कर देती है। एक जिंदा कौम को सैलानियों और आतंकवादियों तक महदूद कर आप उनके दिलों से भी बेदखल हो जाते हैं।

कश्मीर की खास तरह की भौगोलिक और राजनीतिक समस्या का पिछले दशकों में जिस तरह सांप्रदायीकरण किया गया, उसने यहां एक मध्यममार्ग बनने की जमीन ही खिसका दी। खास संदर्भों में निकाले गए आजादी के नारों का इस तरह इस्लामीकरण हुआ कि दोनों ओर असहमतियों की खाई बढ़ती गई। मुद्दा था, कश्मीर के लोगों में ‘भारतीयता’ का अहसास कराने का, लेकिन दोनों तरफ से इसके सांप्रदायीकरण का ऐसा बीज बोया गया, जिससे अलगाववादियों की फसल लहलहाने लगी। इसका असर यह हुआ कि कश्मीरी पंडित अपनी धरती छोड़ने को मजबूर हुए तो मुसलमान भी मारे गए।

दिल्ली से जुड़े हम पत्रकारों को वह दौर भी याद है जब हम राष्टÑीय राजधानी से सैकड़ों किलोमीटर दूर कश्मीर के हर हिस्से में बेरोक-टोक पहुंच सकते थे। उस वक्त ग्रामीण इलाकों में भी हमें कहीं-कहीं ही बुर्कानशीं युवतियां दिखती थीं। आज, उन्हीं सड़कों पर जब आप स्कूल जातीं लड़कियों को हिजाब में देखते हैं तो कश्मीर के अस्तित्व पर दिल्ली से पत्थर की तरह फेंका गया उसका कारण भी समझ में आता है। केंद्र सरकार के युवा मामलों से जुड़े मंत्री जब जायरा वसीम के बहाने बुर्के पर हमला करते हैं तो कश्मीर में इसे इस्लाम पर पत्थर फेंकना माना गया और जायरा ने भी हिजाब को आजादख्याली का निशान बताकर दिल्ली पर पलटवार कर दिया। इस्लाम के बरक्स खींचे गए इस्लाम में वह तरक्कीपसंद सोच का मुलमान गायब होता गया, जिसके जीवन में धर्म खाने में नमक जितना ही महत्त्व रखता था। यह नमक तेज और कम हो जाता है तो खाना बेस्वाद हो जाता है। इसी तरह कश्मीरियत में धर्म के अतिरेक ने कश्मीरियों की जिंदगी बेस्वाद कर दी, क्योंकि उनका हर रास्ता मस्जिद की ओर जाने लगा।

पिछले एक दशक में अलगाववादियों और चरमपंथियों के संघर्ष के कारण स्कूल-कॉलेज सहित हर तरह के शैक्षणिक परिसर तबाह हुए। कश्मीर की जंग को महज ‘धर्म-कांटे’ पर तौलने का हासिल हुआ कि पिछले सालों में इलाके में सबसे ज्यादा मस्जिदों का निर्माण हुआ। आज दूर-दराज के गांवों में जितनी संख्या में मस्जिद दिखाई देती हैं, वह चौंकाने वाली है।
दिल्ली, कश्मीर और पूरे भारत के बीच में जो एक पक्ष की तरह कूद जाता है, वह है मुख्यधारा का मीडिया। फिलहाल तो दिल्ली-दर्शन वाला यह मीडिया भी कश्मीर के मसले पर मोतियाबिंद का शिकार है। दो दशकों से राज्य के बाहर के ज्यादातर मीडिया संस्थानों ने कश्मीर से अपने स्थानीय दफ्तर हटा लिए हैं। अब तो दिल्ली के राजमार्ग से चौथे खंभे का कोई हिस्सा वादी में पहुंचता है भी तो वह कुछ राजनीतिज्ञों, फौजियों और पुलिस अफसरों के नजरिए का चश्मा पहन शाम होते ही होटल के कमरों में सीमित हो जाता है। वादी के कामगारों, स्कूल जाती बच्चियों, कॉलेज में पढ़ाते शिक्षक, गांव के कशीदाकार, नक्काशीकार, बुनकर से इनका वास्ता नहीं होता। ये कश्मीर के लोगों की खबरनवीसी करते नहीं, बल्कि दिल्ली-दरबार के लिए मुखबिरी करते दिखते हैं कि इनके दिल में दिल्ली है कि नहीं, या ‘दिल्ली वाला भारत’ है कि नहीं। ये कश्मीर से दिल्ली की जुबान बुलवाना चाहते हैं।

ये इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत का नारा दिल्ली से रट कर जाते तो हैं लेकिन वादी में प्रवेश करते ही कश्मीरियों की जुबान से अपना रटंत राष्टÑवाद सुनने के ख्वाहिशमंद हो जाते हैं। आज कश्मीर में पक्ष से लेकर विपक्ष तक अप्रासंगिक हो चुका है। छिटपुट घटनाओं को छोड़ कर जम्मू आतंकवाद मुक्त है। कश्मीर में भी आतंकवादी घाटी के इलाकों कुलगाम, पुलवामा, श्रीनगर, कुपवाड़ा, बडगाम तक महदूद हो गए हैं। पत्थर फेंकते, ऊंगलियों के निशान से एक खास तरह की भाषा बोलते युवाओं की अगुआई कोई बुरहान वानी नहीं कर रहा है। आतंकी समूह भी आकाहीन हो चुके हैं। अलगाववादियों की भी जनता से अलहदगी हो चुकी है। यह तय है कि आपको पाकिस्तान से भी बात नहीं करनी है। अब आमने-सामने सिर्फ जनता और सरकार है, कोई तीसरी शक्ति नहीं है। फिर विवाद पर संवाद के लिए सरकार किस बात का इंतजार कर रही है। यह तय है कि अगर आप कश्मीर पर अभी कुछ नहीं कर पाएंगे तो कभी कुछ नहीं कर पाएंगे। सेना को ढाल बनाना छोड़ आप भरोसा बनाने की राह चुनिए। बातचीत ही वह रास्ता है जो पत्थरों को हाथ से गिराकर मील का पत्थर बनाएगा। यह मन की बात कहने नहीं, मन की बात सुनने का समय है।