विनोद शाह

खेत के लिए पानी खेत से ही आए, ऐसी नीति अब देश में बननी चहिए। विश्व जल दिवस पर केंद्र सरकार ने वर्षा जल की बूंद-बूंद सहेजने की योजना बनाई थी। ‘कैच द रेन’ कार्यक्रम के अंतर्गत देश के प्रत्येक जिले में वर्षा जल केंद्रों के माध्यम से वर्षा जल संरक्षण हेतु जन-जागरण अभियान चलाना था। लेकिन राज्य सरकारों ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई।

साठ के दशक में भारत भीषण अकाल की चपेट में था। तब 1965-66 में कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन ने देश में हरित क्रांति का आगाज किया था। उस समय का अशिक्षित किसान नई तकनीक अपनाने के लिए सरकार के साथ कंधे से कंधा मिला कर जुट गया था। देखते ही देखते भारत में अनाज उत्पादन की तस्वीर बदलने लगी। लेकिन अधिक उत्पादन की चाह में किसान रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का बेहताशा इस्तेमाल करने लगे। अब हालात इतने गंभीर हो गए हैं कि खेती में रसायन एवं कीटनाशकों के प्रयोग की मात्रा तय करने की चेतावनी दी जा रही है। कृषि वैज्ञानिक खेती पर इनके नुकसानों को लेकर लगातार आगाह कर रहे हैं और प्राकृतिक खेती पर जोर दिया जा रहा है।

आज सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि रासायनिक उर्वरकों के सीमित प्रयोग के बारे में किसानों को समझाया कैसे जाए। तकनीकी ज्ञान के अभाव में देश का किसान रासायनिक उर्वरक और पानी के अत्यधिक प्रयोग को उत्पादन बढ़ाने वाला एकमात्र संसाधन मान बैठा है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के हद से ज्यादा इस्तेमाल से खेत बंजर होते जा रहे हैं। जल स्रोत जहरीले हो रहे हैं। पंजाब जैसे राज्यों के किसान रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशको के प्रयोग से कैंसर और श्वास रोग की पीड़ा झेलने को मजबूर हैं। विकसित देशों की तुलना में भारत में रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग की मात्रा भले ही कम है, लेकिन देश की मिट्टी और इंसानी सेहत के सामने खतरा तो बढ़ता ही जा रहा है।

छोटे और सीमांत किसानों, जिनकी आबादी अस्सी फीसद से ज्यादा है, के लिए रासायनिक खेती लाभकारी नहीं है। फसल अवशेषों धान की पराली और गेहूं की नरवाई को खेत की मिट्टी में मिला कर जमीन की सेहत सुधारी जा सकती है। लेकिन केंद्र सहित राज्य सरकारें किसानों को न तो पराली जलाने से रोक पाती हैं और न ही इसे जैविक खाद के रूप में उपयोग करवा पाती हैं। देश के खेतों से निकलने वाले फसल अवशेषों की मात्रा लगभग पैंसठ करोड़ टन है। लेकिन इसे मिट्टी में मिलाने की लागत थोड़ी अधिक होने से उत्पादक किसान इसके झमेले में पड़ना नहीं चाहते, क्योंकि बाजार में उपलब्घ रासायनिक खाद उन्हें सस्ती मिल जाती है। दूसरी तरफ किसानों के पास बड़े यांत्रिक संसाधन नहीं हैं। नई फसल बुआई में मौसमी अनुकूलता की अवधि कम है। इसलिए न चाहते हुए भी देश का किसान फसल अवशेषों को जलाने पर मजबूर होता है। इस समस्या का समाधान यही है कि फसल अवशेषों को मृदा में मिलाने के काम आने वाली यांत्रिक मशीनों को सरकार किसानों को इन्हें रियायती दरों पर मुहैया करवाए।

उर्वरकों पर सरकारी अनुदान (सबसिडी) का मुद्दा भी अहम है। चालू वर्ष में यह सरकारी अनुदान राशि 1.4 लाख करोड़ तक पहुंचने की संभावना है। इतनी भारी सहायता के बाद भी कृषि का देश की जीडीपी में योगदान मात्र अठारह फीसद तक आता है। रोजगार की तलाश में गांवों से शहरों की ओर पलायन जारी है। किसानों के आर्थिक हालात तो किसी से छिपी नहीं है। कर्ज में डूबा किसान अगली पीढ़ी को कर्ज का बोझ विरासत में देकर जा रहा है। इसका सीधा अर्थ यही है कि खामियां हमारी सरकारी योजनाओं में ही हैं।

भारत सरकार द्वारा खेती पर दी जा रही सबसिडी और उत्पादित फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ने भी अब आंखें दिखानी शुरू कर दी हैं। डब्ल्यूटीओ के दिशानिर्देश कृषि उत्पाद मूल्य पर दस फीसद से अधिक की सबसिडी जारी करने की इजाजत नहीं देते। यदि कोई देश अपने किसानों को इससे ज्यादा की सबसिडी जारी करता है तो उसके निर्यात पर रोक लगाई जा सकती है।

भारत में गन्ना किसान को सरकार से मिल रही सबसिडी और एमएसपी को नियमों के विरुद्ध बताते हुए ब्राजील, आस्ट्रेलिया और ग्वाटेमाला ने डब्ल्यूटीओ के समक्ष विरोध दर्ज कराया है। डब्ल्यूटीओ के दिए गए फैसले में भारत को गन्ना किसानों को दी जाने वाली सबसिडी पर 2023 के बाद पूरी तरह रोक लगानी होगी। आने वाले समय में ऐसा विरोध चावल और गेहंू के उत्पादकों को लेकर भी देखने को मिलेगा। भारत का चीनी और चावल उद्योग पूरी तरह से निर्यात पर निर्भर है। ऐसे में आने वाले समय में फसलों पर एमएसपी या फसल निर्यात में से किसी एक को चुनना होगा। क्योंकि भारत में फसलों पर सरकार द्वारा दी जा रही प्रोत्साहन राशि के खिलाफ विकसित देश लगातार आपत्ति दर्ज करने लगे हैं।

भारत में कृषि कार्य में भूमिगत जल के दोहन का स्तर विश्व में सर्वाधिक है। नदी-नालों का भी अंधाधुध दोहन जारी है। नदियों और नहरों से पानी दोहन की मात्रा तय नहीं है। बड़े और संपन्न किसान अधिक क्षमताओं वाले पंप और अन्य संसाधनों का उपयोग कर कम समय में जलस्रोतों का बहुत अधिक दोहन कर लेते हैं। इससे छोटा और मझौला किसान इस लाभ से वंचित रह जाता है। फसलों में अत्यधिक उर्वरक और सिंचाई से जमीन में लवणों की मात्रा बढ़ रही है। इस कारण देश की 67.3 लाख हेक्टेयर खेतिहर भूमि उसर भूमि में परिवर्तित हो चुकी है।

सरकार को पानी के इस अत्यधिक दोहन को भी रोकना होगा। निजी भूमिगत जल स्रोतों के उत्खनन की अधिकतम गहराई सीमा भी देश में तय नहीं है। इससे भूमिगत जल स्तर प्रतिवर्ष तेजी से नीचे जा रहा है। प्राकृतिक असंतुलन का यह स्तर पर्यावरण के लिए न केवल खतरे पैदा कर कर रहा है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों में एक कारक भी है। प्रतिवर्ष वर्षा जल की अट्ठासी फीसद मात्रा बेकार चली जाती है। बरसने वाले कुल जल में से मात्र तेरह फीसद का ही संरक्षण हो पा रहा है। लेकिन वर्षा जल संरक्षण को लेकर केंद्र सहित राज्य सरकारें गंभीर नजर नहीं आतीं।

खेत के लिए पानी खेत से ही आए, ऐसी नीति अब देश में बननी चहिए। विश्व जल दिवस पर केंद्र सरकार ने वर्षा जल की बूंद-बूंद सहेजने की योजना बनाई थी। ‘कैच द रेन’ कार्यक्रम के अंतर्गत देश के प्रत्येक जिले में वर्षा जल केंद्रों के माध्यम से वर्षा जल संरक्षण हेतु जनजागरण अभियान चलाना था। लेकिन राज्य सरकारों ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई। देश के बड़े भूभाग के किसानों को हम खुले पानी से सिंचाई करने के बजाय छिड़काव से सिंचाई करने की तकनीक नहीं समझा पाए हैं।

अब देश के प्रत्येक खेत में एक तालाब योजना की अनिवार्यता जरूरी है। यही संरक्षित वर्षा जल फसलों की सिंचाई के काम आएगा। कुछ राज्यो में खेत-तालाब योजना चल भी रही है, लेकिन इसे मनरेगा से जोड़ दिया गया और भ्रष्टाचार ते मामले सामने आने लगे। मनरेगा में यांत्रिक कार्य की मनाही है। योजनाकारों को यह नहीं मालूम कि तालाब के लिए पथरीली भूमि उपयुक्त है, लेकिन पथरीली भूमि की खुदाई मानव हाथों से न होकर मशीनो से ही संभव है। इसलिये सरकार को मशीनरी उपयोग की इजाजत देना होगी, अन्यथा मनरेगा के झूठे कागजों पर बनते ये कागजी तालाब कभी भी बर्षा जल को संरक्षित नहीं कर पाएंगे।

केंद्र और राज्य सरकारों को अब प्राकृतिक ख्रेती से संबंधित योजनाओं की दिशा में बढ़ना होगा। खोदे गए तालाबों की उपयोगिता को जांचना होगा। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि योजना पर खर्च राशि का दुरुपयोग न हो। प्राकृतिक खेती के लिए सरकार को पूरी मशनरी के साथ किसानों को आंदोलित करना होगा ताकि वे कम लागत वाली की खेती के लिए आगे आ सकें।