भारतीय राजनीति में महिला मतदाताओं की विशेष भूमिका है। लोकसभा और विधानसभा चुनाव हों या फिर पंचायती प्रतिनिधियों का निर्वाचन, महिलाओं का मत खास मायने रखता है। इसके बावजूद प्रतिनिधित्व के मामले में महिलाओं की भूमिका अपेक्षा के अनुरूप आगे नहीं बढ़ रही है।

इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में महिलाओं ने जमकर मतदान किया। कई क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में अधिक मतदान किया। शहरों से लेकर गांवों-कस्बों तक के मतदान केंद्रों पर महिलाओं की लंबी कतारें एक नागरिक के तौर पर अपने मत का महत्त्व समझने का द्योतक भी बनीं। महिला मतदाताओं का यह उत्साह अब राजनीतिक समीकरण बनाने और बिगाड़ने वाला बन गया है।

व्यापक रूप से देखा जाए, तो महिलाओं की यह भागीदारी शिक्षा, सजगता और सामाजिक तौर पर उनकी भूमिका में आ रहे सकारात्मक बदलावों का परिणाम है। वास्तव में जीवन की बेहतरी से जुड़ी सरकारी योजनाएं हों या सुरक्षित परिवेश बनाने की कवायद, इनसे महिलाओं का जीवन सबसे अधिक प्रभावित होता है।

यही वजह है कि बिहार में वर्ष 2010 के बाद से आधी आबादी ने हर बार बढ़-चढ़कर मतदान किया है। हाल के वर्षों में कमोबेश हर प्रांत में महिला मतदाता चुनाव की धुरी बन गई हैं। मगर सवाल यह है कि जात-पात और मतदान की पारंपरिक लकीर से हटकर अपना मत देने वाली महिलाएं प्रतिनिधित्व के मामले में पीछे क्यों हैं?

इस बार के बिहार विधानसभा चुनावों में भी विपक्षी महागठबंधन के कुल उम्मीदवारों में महिलाओं की भागीदारी करीब बारह फीसद ही रही। इनमें राजद ने चौबीस महिलाओं और कांग्रेस ने पांच महिलाओं को उम्मीदवार बनाया। वीआइपी और भाकपा-माले ने एक-एक महिला को टिकट दिया।

वहीं, महिला मतदाताओं के बूते प्रचंड बहुमत पाने वाले राजग ने भी दो सौ तैंतालीस में से केवल चौंतीस सीटों पर महिलाओं को प्रत्याशी बनाया। इनमें भाजपा और जद (एकी) ने तेरह-तेरह और लोजपा (राम विलास पासवान) ने पांच महिलाओं को टिकट दिया। वहीं राजग में शामिल दूसरे दलों ने एक-एक महिला को उम्मीदवार बनाया। कुल मिलाकर दस राजनीतिक दलों ने अट्ठासी महिलाओं को ही चुनावी मैदान में उतारा।

गौर करने वाली बात है कि टिकट बंटवारे के मामले में यह असमानता मोटे तौर पर हर दल में और हर चुनाव में देखने को मिलती है। जबकि बीते कुछ वर्षों में मतदान में महिलाओं की सहभागिता बढ़ी है। महिलाएं अब जमीनी मसलों की समझ रखने लगी हैं। सामुदायिक भेद से परे एक मतदाता के रूप में अपने संवैधानिक अधिकार को इस्तेमाल करते हुए उनकी सोच बहुत स्पष्ट रहती है।

यही वजह है कि अब आधी आबादी केंद्रित योजनाओं पर विशेष ध्यान भी दिया जाने लगा है। बिहार चुनाव में भी चाहे राजग हो या फिर विपक्षी महागठबंधन, सभी दल इस आधी आबादी की महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझने और सरकार बनाने के वास्ते उनका साथ पाने के लिए प्रयासरत दिखे। इन्हीं कोशिशों के अंतर्गत इस चुनाव में विकास, सुरक्षा, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दे छाए रहे।

समझना मुश्किल नहीं कि ऐसे सभी मुद्दे महिलाओं के व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन पर गहरा असर डालते हैं। नतीजतन, महिला मतदाताओं के झुकाव को समझने की कवायदें अब केवल राजनीतिक विश्लेषण का विषय भर नहीं रही हैं।

जीवनयापन में सहजता से संबंधित योजनाओं और नीतियों के अलावा सम्मान और सुरक्षा महिलाओं के लिए सबसे अहम मुद्दा बन गया है। महिलाओं में बढ़ती बुनियादी समझ और स्पष्ट सरोकारी भाव के बावजूद उनकी नेतृत्वकारी भूमिका आज भी पीछे क्यों है? इस पर गहराई और व्यापक रूप से विचार करने की जरूरत है।

आम चुनाव से लेकर विधानसभा चुनावों तक, हर बार महिला मतदाताओं की मुखर भूमिका देखने को मिल रही है। महिलाएं वोट बैंक के रूप में सियासी परिवर्तन की वाहक तो बन रही हैं, मगर राजनीतिक प्रतिनिधित्व उनके हिस्से कम ही आ रहा है।

अब तक देश में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, लोकसभा में विपक्ष की नेता और लोकसभा अध्यक्ष के साथ-साथ अन्य कई महत्त्वपूर्ण पदों को संभालने के बावजूद राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। सियासी जगत में सशक्त और निर्णयकारी भूमिका में महिलाओं की संख्या बहुत सीमित है।

महिला मतदाताओं को लुभाने की होड़ तो बढ़ी है, पर उन्हें प्रत्याशी बनाने के मामले में सभी दल कंजूसी दिखाते हैं। जबकि, चुनावों में मतदान का उत्साह और रुझान महिलाओं के दायित्वबोध को साफ दर्शाता है।

दरअसल, राजनीति में महिलाओं की सजग हिस्सेदारी के बावजूद उन्हें प्रतिनिधित्व के उचित अवसर न मिलना हमारे सामाजिक-पारिवारिक और राजनीतिक परिवेश में कायम तयशुदा मानसिकता को सामने रखता है। वर्ष 2020 में किए गए एक सर्वेक्षण में देश की महिलाओं और उनकी राजनीतिक सक्रियता से संबंधित कई पहलुओं पर विचारणीय स्थितियां सामने आई थीं।

सर्वेक्षण के अनुसार, महिलाओं की चुनावी भागीदारी में उनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का विशेष प्रभाव होता है। गौरतलब है कि हमारे यहां राजनीति में उच्च सामाजिक एवं आर्थिक वर्ग की महिलाओं की भागीदारी सामान्य वर्ग से अधिक रही है।

सर्वेक्षण में लगभग छियासठ फीसद महिलाओं ने कहा कि उन्हें राजनीतिक निर्णय लेने की स्वायत्तता नहीं है। पारिवारिक मोर्चे पर देखें तो करीब एक-तिहाई महिलाओं का मानना है कि पितृसत्तात्मक समाज उनकी राजनीतिक भागीदारी में बाधा बनता है।

तेरह फीसद महिलाओं ने राजनीति में अपनी कम भागीदारी के लिए घरेलू जिम्मेदारियों को बड़ी वजह माना। शिक्षित एवं सजग महिलाओं के बढ़ते आंकड़ों के बीच यह भी आवश्यक है कि समय के साथ राजनीति में उनकी भागीदारी में बढ़ोतरी होती रहे।

न केवल परिवार और सामाजिक परिवेश में महिला नेतृत्व को सहज स्वीकार्यता मिलनी चाहिए, बल्कि तमाम राजनीतिक दलों को भी महिलाओं को अगुआई के अवसर देने के लिए आगे आना होगा। ताकि महिलाओं की भूमिका राजनीतिक दलों की जीत-हार के निर्णायक पक्ष तक ही सीमित न रहे, बल्कि उन्हें नीति निर्माण में भी व्यापक हिस्सेदारी मिले।

महिलाओं को सत्ता के गलियारों में पहुंचाकर निर्णयात्मक दायित्व सौंपने से देश की आधी आबादी की मूल समस्याओं के समाधान का मार्ग भी प्रशस्त हो सकता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और लैंगिक समानता जैसी समस्याओं को महिलाएं भली-भांति समझ सकती हैं तथा नीतियों और योजनाओं में उनका हल तलाशने के उपाय भी सुझा सकती हैं।

यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि राजनीति में महिलाओं की जमीन पुख्ता करने के लिए हर स्तर पर उनकी सामुदायिक भागीदारी बढ़ाने की जरूरत है। साथ ही समाज की सोच और अपनों के विचारों में साथ देने के भाव को लेकर सकारात्मक बदलाव भी जरूरी है।

वर्ष 2023 में बनाए गए ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ को जमीनी स्तर पर प्रभावी तरीके से लागू करने की जरूरत है। इसमें लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने का प्रावधान है।

यानी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए सामाजिक-पारिवारिक, आर्थिक और राजनीतिक हर स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए। भावी योजनाओं में आधी आबादी की बेहतरी से जुड़े पक्ष हों या महिला जीवन से संबंधित मुद्दों को प्रमुखता से उठाने का मसला, महिला प्रतिनिधियों की मौजूदगी हर मोर्चे पर बदलाव लाने के लिए आवश्यक है।