COP-30 Convention: ब्राजील में आयोजित ‘काप-30’ को ‘मानवता का जलवायु मुकदमा’ कहा गया। अमेजन की हरियाली से ढके बेलेम शहर में आयोजित सम्मेलन का माहौल कुछ ऐसा था, मानो पूरी मानवता अपनी अंतिम सुनवाई में खड़ी हो। यह वह क्षण था, जहां पृथ्वी की धड़कनों को सुना जा सकता था, कहीं पिघलते ग्लेशियरों की चीख, कहीं बाढ़ में डूबते गांवों की खामोशी, कहीं सूखे से दरकी मिट्टी का क्रंदन। तीन दशकों से दुनिया जलवायु सम्मेलनों में वादे, घोषणाएं और कागजी महत्त्वाकांक्षाएं ही बटोरती आई है। इस बार उम्मीद थी कि इतिहास बदलेगा और दुनिया आखिरकार सच को स्वीकार करेगी कि समय अब खत्म हो रहा है। मगर ‘काप-30’ के परिणाम बताते हैं कि दुनिया अभी भी भ्रम, राजनीति और अपने-अपने राष्ट्रीय हितों के जाल में फंसी हुई है। यह सम्मेलन जितनी उम्मीदों से शुरू हुआ था, उतनी ही निराशा और अधूरेपन के साथ समाप्त हुआ।
दुनिया के 194 देशों ने बारह घंटे की अतिरिक्त बहस के बाद जिस दस्तावेज पर सहमति जताई, उसमें जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने का कोई बाध्यकारी निर्णय नहीं किया गया। दुनिया ने केवल ‘चर्चा शुरू करने का’ एक ऐसा वादा किया, जो तापमान वृद्धि, समुद्री तबाही और जलवायु आपदाओं की वास्तविक रफ्तार के सामने बेहद मामूली और लगभग हास्यास्पद है। तेल उत्पादक देशों, विशेषकर सऊदी अरब और रूस ने संयुक्त रूप से हर उस भाषा पर अवरोधक लगा दिया, जो जीवाश्म ईंधन का उपयोग रोकने की दिशा में एक स्पष्ट, कानूनी और अनिवार्य मार्ग खोल सकती थी। परिणाम यह हुआ कि ‘काप-30’ एक बार फिर वही बन गया, जो अधिकांश ‘काप सम्मेलन’ बनते आए हैं यानी निष्क्रिय राजनीति का महोत्सव, जहां केवल शब्द चमकते हैं और कार्रवाई गायब रहती है।
सम्मेलन के पहले ही सप्ताह में यह साफ हो गया था कि यह जलवायु संघर्ष केवल पर्यावरण का नहीं, आर्थिक प्रभुत्व, ऊर्जा भंडार और भू-राजनीति का भी युद्ध है। विकसित देश एक तरफ उत्सर्जन घटाने का दिखावा करते रहे, दूसरी तरफ अपने अवसरवादी आर्थिक हितों को बचाते रहे। विकासशील राष्ट्र जलवायु न्याय की मांग करते रहे, लेकिन उन्हें जवाब में केवल आश्वासन मिला, ठोस सहायता नहीं। यह विडंबना इस सदी की सबसे बड़ी पराजय है कि जलवायु संकट का भार उन कंधों पर है, जिन्होंने सबसे कम प्रदूषण किया और सबसे कम संसाधन जुटाए।
बेलेम शहर में हुए इस सम्मेलन का एक और बड़ा विरोधाभास यही रहा कि अमेजन को ‘पृथ्वी का फेफड़ा’ कहा जाता है, फिर भी वनों की कटाई रोकने का कोई साफ रास्ता अंतिम दस्तावेज में शामिल नहीं किया गया। यह ऐसे ही है, जैसे किसी मरीज को दिल का दौरा पड़े और चिकित्सक उसे दवा देने के बजाय यह कहे कि ‘हम इस पर चर्चा करेंगे।’ अमेजन का तीस फीसद हिस्सा पहले ही नष्ट हो चुका है, तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस की ओर तेजी से बढ़ रहा है और जलवायु वैज्ञानिक लगातार कह रहे हैं कि समय अब नहीं बचा।
इसके बावजूद ‘काप-30’ के नतीजे इतने निराशाजनक रहे कि यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या दुनिया सच में जलवायु न्याय चाहती है या केवल उसकी राजनीति? सम्मेलन के दौरान जिस विषय पर सबसे अधिक मतभेद हुआ, वह था जीवाश्म ईंधन का भविष्य।
इससे भी बड़ा झटका यह रहा कि कोई भी देश उत्सर्जन घटाने के लिए तैयार नहीं हुआ। सम्मेलन ने केवल एक ‘एक्सेलेरेटर प्रोग्राम’ बनाने की घोषणा की, जिसकी रपट अगले सम्मेलन में आएगी। यह ऐसे ही है, जैसे कोई भवन आग में जल रहा हो और लोग एक समिति गठित कर दें कि अगली बैठक में अग्निशमन पर चर्चा करेंगे। जलवायु वैज्ञानिकों ने ‘काप-30’ के बाद स्पष्ट कहा कि तापमान के रास्ते को मोड़ने की कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। यह नतीजा आने वाले समय की त्रासदी की पूर्व-घोषणा है।
काप-30 की विफलता का दूसरा प्रमुख पहलू जलवायु वित्त है। वर्ष 2023 में अनुकूलन परियोजनाओं के लिए वैश्विक कोष का मात्र तीन फीसद ही खर्च हुआ। विकासशील देशों को 2035 तक प्रतिवर्ष कम से कम 310 अरब डालर की आवश्यकता होगी, लेकिन अभी जो सहायता उपलब्ध है, वह इसकी तुलना में कई गुना कम है।
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सम्मेलन का तीसरा बड़ा सच यह है कि जलवायु संकट आज एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं रहा, यह स्वास्थ्य संकट भी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार अत्यधिक गर्मी हर वर्ष पांच लाख से अधिक लोगों की जान ले रही है। प्रदूषण दुनिया की हर तीसरी मृत्यु का कारण बन चुका है। प्रदूषित हवा अब केवल फेफड़ों में नहीं, मानव शरीर की हर कोशिका में घुस चुकी है। महामारी का खतरा भी जलवायु परिवर्तन के साथ और तेज हुआ है। तूफान, बाढ़ और सूखे की मार से अस्पताल भी सुरक्षित नहीं, क्योंकि हर बारह में से एक अस्पताल सीधे जलवायु जोखिम के घेरे में है।
‘काप-30’ में ब्राजील ने ‘बेलेम हेल्थ एक्शन प्लान’ प्रस्तुत किया, जो एक सकारात्मक पहल है, लेकिन स्वास्थ्य तंत्र को सक्षम बनाने के लिए जिस स्तर के वित्त, सहयोग और राजनीतिक संकल्प की आवश्यकता थी, वह नदारद रहा। जैसे-जैसे सम्मेलन आगे बढ़ता गया, यह स्पष्ट हो गया कि तकनीकी समाधान अकेले इस संकट को नहीं रोक सकते।
अगर यह कहा जाए कि ‘काप-30’ मानवता की चेतावनी की घंटी का शायद आखिरी स्वर था, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस पूरी निराशा के बीच उम्मीद की कुछ किरणें भी हैं। पहला, भारत, इंडोनेशिया, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि कई देश एक नए हरित दृष्टिकोण के साथ सामने आ रहे हैं। ये देश विकास और पर्यावरण को एक साथ लेकर चलने की नई सोच की तरफ बढ़ रहे हैं। दूसरा, स्थानीय स्तर पर दुनिया भर में नागरिक, युवा, वैज्ञानिक, किसान और जनजातीय समुदाय पहले से अधिक संगठित हो रहे हैं। तीसरा, बाजार धीरे-धीरे लेकिन मजबूती से अक्षय ऊर्जा की दिशा में बढ़ रहा है, चाहे राजनीतिक इच्छाशक्ति कितनी भी कमजोर क्यों न हो।
फिर भी सच्चाई यह है कि समय बहुत तेजी से निकल रहा है। यदि आने वाले वर्षों में काप सम्मेलनों ने अपनी दिशा नहीं बदली, तो यह सारी प्रक्रिया एक दिखावा बन कर रह जाएगी।
‘काप-30’ हमें जिस कठोर सच्चाई का सामना कराता है, वह यह है कि जलवायु संकट अब विज्ञान का मुद्दा नहीं रहा, यह मानव सभ्यता की आत्मा का प्रश्न बन चुका है। यह फैसला केवल तापमान के आंकड़ों का नहीं है, बल्कि यह निर्णय है कि आने वाली पीढ़ियां किस दुनिया में सांस लेंगी, किस भविष्य में जिएंगीं और पृथ्वी उनके लिए रहने योग्य बचेगी भी या नहीं। ‘काप-30’ का संदेश यही है कि अब शब्दों के दिन खत्म हो चुके हैं, यह समय कार्रवाई का है और यह कार्रवाई तभी संभव है, जब विश्व राजनीति अपने आर्थिक स्वार्थों से ऊपर उठ कर यह स्वीकार करे कि जलवायु संकट कोई युद्ध नहीं, मानवता के अस्तित्व की अंतिम चुनौती है।
