उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति का मतदाता बहुजन समाज पार्टी के समर्थन का आधार रहा है। 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा को सत्ता में बिठाने में इसका एक अहम रोल था। अनुसूचित वर्ग में 66 जातियां शामिल हैं। माना जाता है कि करीब आधी आबादी चमार-जाटव समुदाय की है। ये समुदाय बहुजन समाज पार्टी और मायावती के साथ कदम से कदम मिलाकर खड़े रहे। बसपा चीफ मायावती भी खुद इसी जाति से आती हैं।
प्रदेश की राजनीति में पिछले दो दशक में मायावती ने साल 2007 में अपने दम पर सर्व समाज का नारा देकर सत्ता हासिल की थी। बसपा को 206 सीटों पर जीत मिली थी। इसके बाद कमोबेश अखिलेश यादव सबकी बात करके और मायावती सरकार के खिलाफ बने माहौल पर चुनाव जीते और 2012 में मुख्यमंत्री बने थे। भाजपा ने 2017 और 2022 में सरकार बनाई है। इन दोनों चुनाव में हिंदुत्व का और सोशल इंजीनियरिंग का ख़ास ख्याल किया गया था।
2014 के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद बीजेपी ने पूरा ध्यान प्रदेश पर लगाया और अमित शाह को प्रदेश में चुनाव जीतने की कमान थमा दी। अमित शाह ने पहले अपनी पार्टी के पिछड़ी जाति के नेताओं के साथ धीरे-धीरे जाति आधारित पार्टियों के साथ गठबंधन किया। इसमें कट्टर हिंदुत्व की इमेज ने सहारा दिया और भाजपा ने पहली बार प्रदेश में 312 सीटें जीती थीं। 2022 में बीजेपी की सीटें पहले से कम हुई, लेकिन तब भी पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और आदित्यनाथ दोबारा मुख्यमंत्री बने।
अखिलेश की पीडीए चाल
राज्य की बदलती राजनीति के साथ दलित वोटों पर बसपा की पकड़ कमजोर होती गई, जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा मायावती को ही उठाना पड़ा है। अब दलित वोट बैंक पर सपा चीफ अखिलेश यादव की भी निगाहें बनी हुईं हैं। अखिलेश यादव को लगता है कि अगर दलित वोट बैंक को कुछ हद तक अपने पाले में कर लिया जाए, तो 2027 के सत्ता के सिंहासन पर पहुंचा जा सकता है। यही वजह है कि सपा चीफ ने दलित के साथ ओबीसी और मुस्लिम वोट बैंक साधने के लिए ‘पीडीए’ शब्द का इस्तेमाल किया। जिसका अर्थ है- P (पिछड़ा), D (दलित), A (अल्पसंख्यक)।
प्रदेश में वंचित वर्ग की आबादी 21 फीसदी
यही वजह है कि विधानसभा चुनाव से पहले सपा बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है। कांशीराम परिनिर्वाण दिवस पर सपा राजधानी से जिलों तक कार्यक्रम का आयोजन करेगी। समाजवादी पार्टी डॉ. आंबेडकर के बाद अब कांशीराम के नाम का सहारा ले रही है। प्रदेश में वंचित वर्ग की 21% आबादी है, जिस पर समाजवादी पार्टी की नजर है। यह कारण है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव लगातार कांशीराम के नाम का जिक्र कर रहे हैं।
कांशीराम को लेकर कार्यक्रम आयोजित करेगी सपा
समाजवादी पार्टी की कोशिश बसपा का कोर वोट बैंक कहे जाने वंचित वर्ग में बड़ी सेंध लगाने की है। डा. बीआर आंबेडकर के सहारे मतदाताओं में पैठ बनाने को पसीना तो पहले से ही बहाया जा रहा था, अब बसपा के संस्थापक कांशीराम के नाम के सहारे भी बढ़त बनाने का दांव चला गया है। 9 अक्टूबर को जहां बसपा द्वारा अपने संस्थापक के परिनिर्वाण दिवस पर बड़ा आयोजन करने जा रही है, वहीं सपा भी राजधानी से लेकर जिलों तक में उनको श्रद्धांजलि देगी।
बता दें, प्रदेश में वंचित (अनुसूचित जाति) वर्ग की 21 प्रतिशत से ज्यादा आबादी है। लगभग 300 विधानसभा सीटों पर इन मतदाताओं का प्रभाव माना जाता है। किसी समय कांग्रेस का साथ दिखने वाला यह वर्ग, साल 1984 के बहुजन आंदोलन के बाद कांशीराम के साथ जुड़ा। जब मायावती आगे बढ़ीं तो यह वर्ग बसपा का कोर वोट बैंक कहलाने लगा।
दलित वोट बैंक की बदौलत यूपी की चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती
मायावती को चार बार मुख्यमंत्री बनाने के पीछे इसी एकतरफा वोट को बड़ी वजह माना जाता है। हालांकि, वर्ष 2012 में बसपा की सत्ता जाने और वर्ष 2014 में मोदी लहर के बाद स्थिति बदली है।
लोकसभा चुनाव में यूपी में सपा को मिलीं 37 सीटें
पिछले कई चुनावों में इस वर्ग का वोट बंटता रहा है। साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले सपा और उसके गठबंधन ने संविधान और आरक्षण के खतरे में होने का नारा बुलंद किया था। सपा ने डा. आंबेडकर, कांशीराम सहित अन्य महापुरुषों के सहारे पैठ बनाने की कोशिश की। उस चुनाव में सपा को यूपी में 37 सीटों पर जीत मिली। सपा पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक (पीडीए) के नारे के साथ इसे दोहराना चाहती है। इसी रणनीति के तहत आंबेडकर जयंती पर जहां सात दिनों का आयोजन किया गया था, वहीं कांशीराम जयंती पर भी बसपा के समानांतर खड़ा होने की कोशिश की गई।
मायावती ने अखिलेश यादव पर साधा निशाना
सपा चीफ अखिलेश यादव लगातार कांशीराम का उल्लेखकर वंचितों की नब्ज पकड़ने की कोशिश में जुटे हैं। अब कांशीराम परिनिर्वाण दिवस पर भी यही रणनीति अपनाई गई। गुरुवार को पार्टी मुख्यालय पर आयोजित श्रद्धांजलि समारोह में खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव मौजूद रहेंगे। जिलों में भी पार्टी के सभी जनप्रतिनिधियों और प्रमुख नेताओं को मौजूद रहने और अधिक से अधिक वंचित वर्ग के लोगों को जोड़ने के निर्देश दिए गए हैं।
हालांकि, बसपा प्रमुख मायावती ने मंगलवार को सपा चीफ अखिलेश यादव पर जोरदार हमला बोला है। गुरुवार को बसपा के संस्थापक कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर शक्ति प्रदर्शन की तैयारी में जुटी मायावती ने सपा द्वारा इसी दिन किए जाने वाले आयोजनों को छलावा करार दिया है। मायावती ने सपा और कांग्रेस को घोर जातिवादी और कांशीराम का विरोधी करार देते हुए बहुजन समाज से सावधान रहने की अपील की है।
बुरे दौर से गुजर रही बसपा
अगर बसपा की बात करें तो मायावती की पार्टी इस वक्त अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बनाने वाली बसपा का इस समय विधानसभा में मात्र एक विधायक है। वहीं लोकसभा में उसका कोई सदस्य नहीं। इसलिए वह इस रैली के जरिए अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने की कोशिश कर रही है।
समाजवादी पार्टी की नजर बसपा के वोट बैंक पर है, जो उसके कमजोर होने के बाद से उससे दूर होता जा रहा है। इसलिए मुसलमान और यादव की राजनीति करने वाली सपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले पीडीए ( पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) वोट बैंक का दांव चला। इसका फायदा उसे लोकसभा में हुआ। 2019 में पांच सीटें जीतने वाली सपा यूपी में 37 सीटें जीतकर बीजेपी को स्पष्ट बहुमत पाने से रोक दिया था। इसके बाद से वह पीडीए का राग अलाप रही है। बसपा की रैली से अगर सफल हो गई तो, सपा के पीडीए वोट बैंक के कमजोर पड़ने के संकेत के रूप में माना जाएगा।
क्या दलित भूल सकता है गेस्ट हाउस कांड?
1993 में बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के लिए समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव और बसपा प्रमुख कांशीराम ने गठजोड़ किया था। उस समय उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। सीटों की कुल संख्या 422 थी। मुलायम सिंह यादव 256 सीट पर लड़े और बीएसपी को 164 सीट दी थीं। चुनाव में समाजवादी पार्टी और बसपा गठबंधन जीता। समाजवादी पार्टी को 109 और बसपा को 67 सीट मिली थीं। इसके बाद मुलायम सिंह यादव बसपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बने। लेकिन, आपसी मनमुटाव के चलते 2 जून, 1995 को बसपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इस वजह से मुलायम सिंह की सरकार अल्पमत में आ गई।
सरकार को बचाने के लिए जोड़-घटाव किए जाने लगे। ऐसे में अंत में जब बात नहीं बनी तो नाराज सपा के कार्यकर्ता और विधायक लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस पहुंच गए, जहां मायावती कमरा नंबर-1 में ठहरी हुई थीं।
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2 जून 1995 के दिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में जो हुआ उसने हर किसी को सोचने पर मजबूर कर दियाष मायावती पर गेस्ट हाउस के कमरा नंबर एक में हमला हुआ था। 2 जून 1995 को मायावती लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस के कमरा नंबर एक में अपने विधायकों के साथ बैठक कर रही थीं। तभी दोपहर करीब तीन बजे कथित समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं की भीड़ ने अचानक गेस्ट हाउस पर हमला बोल दिया। कांशीराम के बाद बीएसपी में दूसरे नंबर की नेता मायावती उस वक्त को जिंदगी भर नहीं भूल सकतीं। उस दिन एक समाजवादी पार्टी के विधायकों और समर्थकों की उन्मादी भीड़ सबक सिखाने के नाम पर दलित नेता की आबरू पर हमला करने पर आमादा थी। यूपी की राजनीति में इस कांड को गेस्टहाउस कांड कहा जाता है। ऐसे यह भी कहा जा सकता है कि क्या दलित गेस्ट हाउस कांड को भूल सकता है।
अखिलेश का दलित प्रेम या फिर मजबूरी
ऐसे में लगातार हार सामना कर रहीं मायावती के लिए 2027 का विधानसभा चुनाव करो या मरो की तर्ज पर होगा। वहीं, सपा ने हाल-फिलहाल में दलितों के मुद्दों को पुरजोर तरीके से उठाया है। इतना ही नहीं अयोध्या से लोकसभा चुनाव जीते अवधेश प्रसाद को अखिलेश ने दलित चेहरे के रूप में पेश करने की कोशिश की है तो वहीं चंद्रशेखर भी दलितों को लेकर संघर्षरत हैं। ऐसे में दलितों को लेकर यूपी में एक अलग तरह की राजनीति चल रही है। हालांकि, बहुत खराब वक्त में भी दलित वर्ग मायावती के साथ खड़ा रहा है, लेकिन जब अखिलेश इस दलित समाज में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं तो वो कितना सफल होंगे। यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। ऐसे में कहा भी जा सकता है कि सत्ता के सिंहासन पर पहुंचने के लिए यह अखिलेश का दलित प्रेम है या फिर मजबूरी?
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