बिहार चुनाव में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को 29 टिकट दिए जाने पर विमर्श खड़ा हो गया है। आम जनता ही नहीं गिरिराज सिंह जैसे वरिष्ठ भाजपा नेता ने भी चिराग पासवान की पार्टी को 29 टिकट दिए जाने पर परोक्ष रूप से तंज कसा। लोजपा नेता शांभवी चौधरी ने मीडिया से कहा कि उनकी पार्टी ने लोक सभा चुनाव में मिली पाँच की पाँच सीटों पर जीत हासिल की थी इसलिए उसे इतनी सीटें मिली हैं।

कुछ विश्लेषकों ने दावा किया कि 2020 के बिहार चुनाव में चिराग पासवान ने भले ही केवल एक सीट जीती हो मगर अकेले दम पर 5.31 प्रतिशत वोट लाकर उन्होंने यह साबित कर दिया कि उनका जनाधार भाजपा या राजद गठबंधन का मोहताज नहीं है। चिराग के समर्थक इस बात पर जोर दे रहे हैं कि चिराग ने दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर भाजपा गठबंधन उम्मीदवार की हार के अंतर से ज्यादा वोट लाकर दिखा दिया कि वह नतीजों पर कितना अंतर डाल सकते हैं।

चिराग के आलोचक और समर्थक दोनों ही तत्कालिक चुनावी आंकड़ों के आधार पर ही चिराग पासवान का राजनीतिक मूल्यांकन कर रहे हैं। आंकड़ों के आधार पर देखें तो चिराग पासवान को दी गयी 29 सीटें मेरी नजर में भी थोड़ी ज्यादा प्रतीत होती हैं मगर भाजपा की जिस चुनावी मशीनरी की विरोधी भी तारीफ करते हैं, वह यूँ ही किसी को अतिरिक्त सीटें नहीं दे सकती है। कुछ विश्लेषक मान रहे हैं कि भाजपा ने चुनाव परिणाम आने के बाद की संभावित स्थितियों में ध्यान रखकर चिराग पर यह दाँव खेला है।

ऐसे विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा चुनाव बाद की उस संभावित स्थिति के लिए खुद को तैयार रखना चाहती है जिसमें चुनाव बाद नीतीश कुमार पाला बदलने की धमकी दे सकते हैं। भाजपा पर्याप्त सीटें देकर चिराग, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और निर्दलीयों के साथ मिलकर सरकार बनाने की संभावना को जिन्दा रखना चाहती है। जाहिर है कि महागठबंधन के मुकेश सहनी भी इस तरह की संभावना के अनिवार्य अंग होंगे। सहनी साफ कह चुके हैं कि उन्हें डिप्टी सीएम बनना है। हो सकता है कि चिराग को मजबूत करने के पीछे भाजपा की फौरी रणनीति यह हो मगर चिराग से जुड़ी एक दूरगामी राजनीति को विश्लेषक नजरअंदाज कर रहे हैं।

चिराग पासवान का 2014 का दाँव

ज्यादातर नेता पुत्रों की तरह चिराग पासवान का मूल्यांकन करते समय विश्लेषक उन्हें दूसरे नेपोकिड की तरह ट्रीट करते नजर आते हैं मगर चिराग इस मामले में दूसरे नेता-पुत्रों से अलग हैं। भारतीय राजनीति के ज्यादातर नेता पुत्र अपने पिता द्वारा रचित सियासी समीकरण को आगे बढ़ाते नजर आते हैं। चिराग पासवान ने अपने पहले ही चुनाव से संकेत दिया कि वह अपने पिता से अलग मिजाज रखते हैं।

कई विश्लेषक लिख चुके हैं कि 2014 में रामविलास पासवान ने चिराग के कहने पर ही भाजपा के साथ गठबंधन किया था। 2014 में चिराग पासवान पहली बार सांसद बने थे। तब लोगों ने इसे अवसरवाद के तौर पर देखा मगर आज तीन लोक सभा चुनाव बाद साफ दिखता है कि चिराग पासवान पिता की विरासत को नए ढांचे में ढालने की तरफ उसी वक्त बढ़ चुके थे। चिराग ने मौसम विशेषज्ञ के तौर पर नहीं बल्कि अपने वैचारिक झुकाव के तहत भाजपा से गठबन्धन किया था। उस वक्त शायद भाजपा ने भी यह न सोचा होगा कि चिराग पासवान के रूप में उसे उस चुनावी गांठ की तोड़ मिल जाएगी जो पार्टी को चुनाव दर चुनाव सांसद में डालती है।

लोकतंत्र में वोट और वोटबैंक से तय होता है कि सत्ता किसके पास रहेगी। वर्तमान भारतीय राजनीति में सामुदायिक लामबंदी को वोटबैंक के रूप में देखा जाता है। राष्ट्रीय राजनीति हो या बिहार, सभी सुन्नी मुस्लिम जातियाँ एक छतरी के नीचे वोट करती नजर आती हैं। मुस्लिम समुदाय, अगड़ा हिन्दू, पिछड़ा हिन्दू, अत्यंत पिछड़ा हिन्दू और अनुसूचित (हिन्दू एवं नवबौद्ध) जातियाँ भी लामबन्द वोटबैंक मानी जाती हैं।

सुन्नी मुस्लिम जातियों का बहुसंख्यक वोट भाजपा के खिलाफ होने की वजह से वोटबैंक को लेकर सारी रस्साकशी हिन्दू वोटों के बीच ही होती है। भाजपा हिन्दू धर्म से जुड़े भावनात्मक मुद्दों का प्रतिनिधि स्वर मानी जाती है इसलिए भाजपा की सामुदायिक लामबन्दी में धर्म का महत्वपूर्ण रोल रहता है। भारतीय राजनीति की जातीय और धार्मिक गोलबंदी में चिराग पासवान की अवधारणा भाजपा की भावी राजनीति के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।

चिराग पासवान की राजनीति

चिराग पासवान के पिता अनुसूचित वर्ग से आते हैं और माँ सामान्य वर्ग से आती हैं। चिराग पासवान अपने समुदाय के प्रतिनिधित्व की राजनीति करते हैं मगर उनके बयानों और क्रियाकलापों में किसी अन्य जाति या वर्ग के प्रति वैमनस्य नजर नहीं आता। चिराग पासवान ने टिकट वितरण में भी अनुसूचित और अगड़े वर्ग का प्रभुत्व दिखता है। चिराग पासवान उन दलित नेताओं में हैं जिनकी अगड़े वर्ग (खासकर युवाओं) में अच्छी स्वीकार्यता है।

चिराग पासवान दलित उत्थान के मामले में कमोबेश महात्मा गांधी की लाइन पर चलते नजर आते हैं। जिस तरह गांधीवादी जगजीवन राम हिन्दू समाज के साथ सामंजस्यपूर्ण विकास की रणनीति अपनाकर जीते जी उत्तर भारत के सबसे बड़े दलित नेता बने रहे, उसी तरह चिराग पासवान भी अन्य हिन्दू जातियों से टकराव के बजाय सामंजस्य की राजनीति पर जोर देते नजर आते हैं और उनमें जगजीवन राम वाला कद पाने की पूरी क्षमता और सम्भावना नजर आती है।

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कांग्रेस या राजद के साथ नजर आने वाले कई नेता कई बार अगड़ी हिन्दू जातियों और हिन्दू धार्मिक प्रतीकों-विश्वासों के खिलाफ विवादित बयान देते नजर आते हैं। कुछ नेता भाजपा के साथ रहने पर प्रो-हिन्दू और प्रो-फारवर्ड हो जाते हैं और भाजपा से नाता टूटने पर एंटी-हिन्दू और एंटी-फॉरवर्ड हो जाते हैं। इन नेताओं के चलते अगड़ी हिन्दू जातियों का वोट भाजपा से चिपका रहता है। कुछ उसी तरह जैसे भाजपा नेताओं के एंटी-मुस्लिम बयानों की वजह से मुस्लिम समुदाय गैर-भाजपा दलों से चिपका रहता है।

चिराग पासवान और भाजपा का वोटबैंक

भाजपा का अगड़ा हिन्दू वोटबैंक भी ऐसे नेताओं को साथ लाने पर बिदकता है जो अतीत में एंटी-हिन्दू और एंटी-फॉरवर्ड नरेटिव चलाने के आरोपी रहे हों। यही कारण है कि चिराग पासवान का अगड़ा-दलित भाईचारा वाला एटिट्यूड भाजपा को ज्यादा सूट करता है। जातीय एंगल के अलावा धार्मिक एंगल से भी चिराग पासवान भाजपा की भावी राजनीति के लिए बेहद अहम हैं।

अन्य हिन्दू जातियों के साथ सामंजस्यपूर्ण विकास के अलावा धार्मिक एंगल से भी चिराग पासवान महात्मा गांधी के रास्ते पर चलते नजर आते हैं। चिराग पासवान जैसा वोकल हिन्दू दलित नेता कोई दूसरा नजर नहीं आता। दलितों का एक धड़ा जो खुद को आम्बेडकरवादी मानता है, एंटी-हिन्दू पॉलिटिक्स की तरफ झुका नजर आता है। बाबासाहब आंबेडकर के द्वारा प्रवर्तित नवयान बौद्ध पंथ में दीक्षा ग्रहण करना आंबेडकरवादी राजनीति का नियमित अंग बन चुका है। रामदास अठावले जैसे नवबौद्ध दलित नेता भाजपा के साथ हैं मगर उनका भाजपा नीत सरकार में शामिल होना कुछ वैसा ही है जैसे बाबासाहब आंबेडकर कांग्रेस सरकार में शामिल हुए थे या कांशीराम और मायावती ने भाजपा के साथ मिलकर यूपी में सरकार बनायी थी। बहन मायावती ने भी कभी उग्र एंटी-हिन्दू नरेटिव को बढ़ावा नहीं दिया मगर वह चिराग की तरफ तिलक और रक्षा (मौली) फ्लांट करने वाली हिन्दू भी नहीं रही हैं।

आंबेडकर, कांशीराम, मायावती या अठावले के निर्णय विशुद्ध राजनीतिक लगते हैं मगर चिराग पासवान की हिन्दू आस्था वास्तविक और भाजपा या सत्ता से स्वतंत्र लगती है। ऐसे में चिराग पासवान हिन्दुत्ववादी भाजपा के स्वाभाविक साझीदार नजर आते हैं। वोट प्रतिशत और लोकप्रियता के हिसाब से देखें तो चिराग पासवान बहन मायावती के बाद शायद देश के सबसे बड़े दलित नेता हैं। बाबासाहब आंबेडकर की लाइन पर चलने वाले कांशीराम-मायावती अगर दलित 1.O थे तो गांधी-जगजीवन राम की याद दिलाने वाले चिराग पासवान दलित 2.0 हैं जो हिन्दू धर्म के अन्दर रहकर अगड़ी-पिछड़ी जातियों से टकराव के बजाय सामंजस्य के साथ वंचित वर्गों के उत्थान की राजनीति कर रहे हैं।

अतः चिराग पासवान को केवल आगामी बिहार चुनाव की हद में कैद करके देखना उचित नहीं होगा। भाजपा की हिन्दुत्ववादी राजनीति के लिए चिराग का महत्व विधान सभा की 29 सीटों से कहीं बढ़कर है। प्रो-हिन्दू सवर्ण-फ्रेंडली आधुनिक शिक्षित दलित नेता के रूप में चिराग पासवान को देखने पर ही उनके लिए भाजपा के सॉफ्ट-कार्नर को समझा जा सकता है। शायद भाजपा आलाकमान भी इसी वजह से चिराग के प्रति अति-उदार है। भाजपा आलाकमान अगले कई दशकों की राजनीति के लिहाज से चिराग में उम्मीद की रोशनी देख रहा होगा। बिहार चुनाव के परिणाम भाजपा के अनुकूल रहे तो चिराग को मिलने वाली महत्व से यह और साफ हो जाएगा कि नरेंद्र मोदी अमित शाह चिराग को किस चश्मे से देखते हैं।

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