देश वापस आई पिछले सप्ताह एक महीने बाद। विदेश के सफर अक्सर होते रहते हैं मेरे लिए, लेकिन इतना लंबा वतन से दूर रहना हुआ मुद्दतों बाद। तो नई शायद विदेशी नजर से दिख रही हैं चीजें। मुंबई हवाईअड्डे से बाहर आते ही एहसास होने लगा कि अपना देश विकसित पश्चिमी देशों से कितना पीछे है अभी भी। इसका एहसास ज्यादा होता है स्विट्जरलैंड जैसे अति-विकसित देश में एक महीना गुजारने के बाद। मुझे वहां जाना पड़ा किसी के इलाज के लिए। जिस अस्पताल में मैंने तकरीबन महीना गुजारा, वह स्विट्जरलैंड के एक गांव में है।
स्विट्जरलैंड के गांवों में न कचरा दिखा न ही गंदगी
वहां पहुंचते ही पहले हैरान हुई गांव की सफाई और सुंदरता को देख कर। अस्पताल के आसपास किसानों के खेत-खलिहान थे, जिनमें फसलों के अलावा गायें दिखीं। न कचरा दिखा कहीं, न किसी तरह की गंदगी। इन खेतों को देख कर याद आए अपने देश के खेत-खलिहान और गांव। सोचने पर मजबूर हुई कि यहां के किसान अगर खेतों को इतना साफ रख सकते हैं, तो हमारे किसान क्यों नहीं ऐसा कर सकते! फिर याद यह भी आया कि किसानों से सफाई की उम्मीद कैसे कर सकते हैं, जब गांव ही हमारे इतने गंदे और बेहाल होते हैं।
हमारे गांवों को देख कर कोई नहीं कहेगा कि नरेंद्र मोदी ने जो स्वच्छ भारत अभियान चलाया था एक दशक पहले इतने जोश और उत्साह के साथ, उसका कोई खास असर हुआ है। इतना जरूर हुआ है कि खुले में शौच करते लोग कम दिखते हैं आज, लेकिन इसके अलावा सफाई के नाम पर कुछ नहीं हुआ है। आज भी हर गांव और हर देहाती बाजार में दिखती हैं गंदी नालियां और कचरे के सड़ते ढेर। बीमारियों के फैलने का सबसे बड़ा कारण है गंदगी, लेकिन इसका उपाय अभी तक हमारे शासक ढूंढ़ नहीं पाए हैं, बावजूद इसके कि प्रधानमंत्री ने विकसित भारत का लक्ष्य रखा है 2047 तक।
दिवाली की चमकती रोशनी भी छिपा नहीं सकती हैं हमारे बेहाल देश की गुरबत और गंदगी। समस्या यह है कि जब तक इन चीजों का हल नहीं ढूंढ़ पाएंगे हम, तब तक विकसित भारत का सपना साकार नहीं होगा। इन मायूस खयालों में डूबी हुई ही थी जब, ब्रिटेन की पत्रिका ‘इकोनामिस्ट’ पढ़ने को मिली। जैसे अक्सर करती हूं, वैसे मैंने पहले भारत पर लेख ढूंढ़े और संयोग से दिखा कि इस पत्रिका ने नरेंद्र मोदी के विकसित भारत वाले सपने पर एक लेख छापा है इस सप्ताह। इस लेख में जो मुख्य बात कही गई है, वह यह कि भारत किसी भी हाल में 2047 तक विकसित देशों की श्रेणी में नहीं पहुंच पाएगा।
इस लेख के हिसाब से विश्व बैंक इस श्रेणी में उन देशों को डालते हैं, जिनके आम लोगों की सालाना आमदनी चौदह हजार डालर होती है या 12,30,670 रुपए। जिस रफ्तार से हमारी अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, उसे देखते यह विकसित देश होने वाला सपना 2047 तक यथार्थ में बदलता नहीं दिखता है। ऐसा ‘इकोनामिस्ट’ पत्रिका कहती है, लेकिन मुमकिन है कि तब तक हम इतना विकसित हो जाएंगे, जितना इराक आज है। यानी हर भारतीय की आमदनी छह हजार डालर तक पहुंच सकती है या आज से दुगनी हो सकती है।
हमारे राजनेता अर्थव्यवस्था की बातें बहुत करते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि जो देश विकसित हुए हैं हमसे पहले, उन्होंने सबसे ज्यादा अहमियत दी है अपने लोगों में निवेश करने पर। विकसित देशों में आपको सरकारी स्कूल ऐसे मिलेंगे जो भारत के निजी स्कूलों से कहीं अधिक अच्छे हैं और सरकारी अस्पताल भी ऐसे जो हमारे निजी अस्पतालों से अच्छे हैं। हमने न जाने क्यों इन चीजों पर उतना ध्यान नहीं दिया, जितना ध्यान देना चाहिए था।
क्या इसलिए कि हमारे राजनेताओं ने चुनाव जीतने के लिए लोगों को बांट कर उनको कमजोर करके उनसे वोट हासिल किए हैं? मेरी अपनी राय यही है। मैं जब भी चुनावों को देखने निकलती हूं अपने देश में, तो अक्सर पाती हूं कि मुसलमान वोट देना पसंद करते हैं मुसलमानों को। ब्राह्मण देना पसंद करते हैं सवर्ण उम्मीदवारों को और जिन जातियों को हम सबसे पिछड़ी मानते हैं वे भी अपनी जाति के लोगों को वोट देना पसंद करती हैं।
ऊपर से समस्या यह भी है कि हमने लोकतंत्र की असली शक्ति को कमजोर किया है राजनीतिक दलों को निजी कंपनियों में तब्दील करके, जिनके मालिक होते हैं ऐसे राजनेता जिनको अपने परिवार की चिंता ज्यादा रहती है और देश की कम। हमारे सबसे बड़े राजनीतिक मुद्दे आर्थिक हैं, लेकिन जब चुनाव आते हैं, तो अजीब-सा माहौल बन जाता है जिसमें, दीन-धर्म, जात-पात इतने बड़े मुद्दे बन जाते हैं कि लोग भूल जाते हैं कि उनकी असली समस्याएं क्या हैं।
मतदाता जब अपने वोट डालने जाते हैं, तो यह नहीं सोचते हैं कि उनके घरों में पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधा नहीं है। नहीं सोचते हैं कि कंप्यूटर और एआइ के इस दौर में अभी तक उनके घरों में चौबीस घंटे बिजली नहीं आती है। नहीं सोचते हैं कि उनके बच्चे ऐसे स्कूलों में पढ़ाई करने के लिए मजबूर हैं जहां कई बार अध्यापक तक नहीं आते हैं और जब आते हैं, तो खुद इतने अशिक्षित होते हैं कि शिक्षा दे नहीं पाते हैं उस तरह, जिस तरह देनी चाहिए। हमारे सबसे अच्छे सरकारी स्कूलों से भी अधिकतर बच्चे जब पढ़ाई पूरी करके निकलते हैं, तो थोड़ा बहुत लिखना-पढ़ना ही सीख कर और थोड़ी बहुत गिनती करना।
इस लेख को शुरू करते ही कहा था मैंने कि एक पूरे महीने बाद आई हूं वतन वापस, इसलिए उन नजरों से देख रही हूं इस सप्ताह जिन नजरों से विदेशी हमको देखते हैं। माफ करिए मुझे कि दिवाली के इस मौसम में मैंने कुछ ऐसी बातें कही हैं जो मीठी नहीं कड़वी हैं, लेकिन त्योहारों पर भी सच का सामना अच्छा है। दिवाली की शुभकामनाएं आपको।