व्यावसायिक और औद्योगिक गतिविधियों के संचालन में बड़ी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ छोटी कंपनियों, यानी लघु उद्योगों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। जो नवउद्यम, साझेदारी फर्म और अन्य लघु उद्यमी अपने व्यवसाय को निगमित स्वरूप में संचालित करना चाहते हैं, उनके लिए कंपनी का लघु स्वरूप काफी उपयोगी होता है। इसमें कम औपचारिकताओं को पूरा करने की जरूरत के साथ निगमित संस्था का लाभ लिया जा सकता है।

कंपनी अधिनियम 2013 में लघु कंपनी की अवधारणा को भी सम्मिलित किया गया है। इस अधिनियम के अनुसार एक निजी कंपनी जिसकी चुकता अंश पूंजी 50 लाख रुपए से अधिक न हो वह इस श्रेणी की कंपनी होगी, सरकार चाहे तो चुकता अंश पूंजी के रूप में इससे अधिक राशि का निर्धारण कर सकती है, लेकिन यह राशि पांच करोड़ रुपए से अधिक नहीं होगी या वह कंपनी जिसकी साल भर में आय अपने अंतिम लाभ-हानि खाते के अनुसार दो करोड़ रुपए से अधिक न हो या ऐसी उच्च राशि जो सरकार द्वारा निर्धारित की जा सकती है, लेकिन यह 20 करोड़ रुपए से अधिक नहीं होगी, वह एक लघु कंपनी मानी जाएगी। कंपनी की सालाना कमाई का आशय किसी वित्तीय वर्ष के दौरान कंपनी द्वारा वस्तुओं की बिक्री, आपूर्ति या वितरण से या प्रदान की गई सेवाओं या दोनों से प्राप्त राशि का कुल मूल्य है।

लघु कंपनियों को कंपनी अधिनियम 2013 के अंतर्गत कई छूट और सुविधाएं मिलती हैं। जैसे कंपनियों को अपना नकद प्रवाह विवरण तैयार करने की आवश्यकता नहीं होती। इन कंपनियों को साल में चार बोर्ड बैठकों के स्थान पर केवल दो बोर्ड बैठकें बुलाने की जरूरत होती है, साथ ही कंपनी के वार्षिक रिटर्न पर कंपनी सचिव या केवल एक निदेशक के हस्ताक्षर की जरूरत रहती है। लेखा परीक्षकों को आंतरिक वित्तीय नियंत्रणों की सूचना देने की आवश्यकता नहीं होती है। इन कंपनियों के लिए लेखा परीक्षकों को अनिवार्य रूप से बार-बार बदलने का प्रावधान भी लागू नहीं होता है। छोटी कंपनियों पर अधिनियम के अंतर्गत अनुपालन में विफल रहने पर अन्य कंपनियों पर जो जुर्माना लगाया जाता है, उसकी तुलना में इन कंपनियों यानी लघु उद्योगों के लिए जुर्माने की राशि काफी कम होती है। लघु कंपनियों पर अनुपालन का बोझ कम रहता है, जिससे उनको अपने व्यवसाय के विकास पर ध्यान केंद्रित करने में सहायता मिलती है।

लघु कंपनियों का देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये रोजगार सृजन, देश के आर्थिक विकास और क्षेत्रीय विकास में अहम योगदान देती हैं। लघु उद्योगों की तरह काम कर रहीं ये कंपनियां नवोदित उद्यमियों के लिए एक प्रवेश बिंदु प्रदान करती हैं, ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने और स्थानीय संसाधनों का उपयोग करने में ये अहम भूमिका निभाती हैं। लघु कंपनियां ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में बड़ी संख्या में रोजगार के अवसर पैदा करती हैं, जिससे बड़े पैमाने पर प्रवासन को कम करने और गरीबी को कम करने में सहायता मिलती है। भारत में लघु उद्योग कुल निर्यात में लगभग 40 फीसद का योगदान करते हैं।

लघु कंपनियां बुनियादी ढांचे और रोजगार के अवसर प्रदान कर पिछड़े क्षेत्रों के विकास में मदद करती हैं। ये स्वरोजगार और नवाचार को बढ़ावा देती हैं, जिससे व्यक्तियों के बीच रचनात्मकता की संस्कृति को प्रोत्साहन मिलता है। ये कंपनियां बाजार की बदलती परिस्थितियों के अनुकूल होने में सक्षम होती हैं, जिससे वे किसी भी अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न अंग बन सकती हैं। लघु कंपनियां बड़े उद्योगों के लिए सहायक इकाइयों के रूप में कार्य करती हैं और उन्हें विभिन्न उत्पादों और सेवाओं की आपूर्ति करती हैं। आर्थिक गतिविधियों को विकेंद्रीकृत कर समाज के भीतर आय और संपत्ति के अधिक संतुलित वितरण में भी इनका बड़ा योगदान होता है।

इतना सब कुछ होते हुए भी लघु कंपनियों को कई समस्याओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिनमें वित्त की कमी, तकनीकी अपर्याप्तता, कुशल कर्मचारियों का अभाव, बड़ी कंपनियों से कड़ी प्रतिस्पर्धा और बाजार तक सीमित पहुंच आदि शामिल हैं। इन समस्याओं के अलावा, उन्हें बुनियादी ढांचे की कमी, नियामक और कर संबंधी बाधाएं और विपणन की कठिनाइयां भी झेलनी पड़ती हैं। इन कंपनियों को बैंकों से ऋण प्राप्त करने में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। कार्यशील पूंजी की कमी से लघु कंपनियों को संचालन की बाधाओं का सामना करना पड़ता है। नई तकनीक अपनाने में कठिनाई होती है क्योंकि वे महंगी होती हैं।

लघु कंपनियों के लिए प्रशिक्षित और कुशल कर्मचारियों को ढूंढ़ने और बनाए रखने में भी समस्या का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वे अधिक वेतन और सुविधाओं की मांग करते हैं। इन कंपनियों को बड़े और स्थापित निगमों से तीव्र प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ता है। उत्पादों और सेवाओं के लिए उचित और प्रभावी विपणन की कमी भी इनमें बनी रहती है।

सरकारी और बड़े निगमों को उपलब्ध कराए गए उत्पादों और सेवाओं के विलंबित भुगतान के कारण नकद प्रवाह की समस्या भी लघु कंपनियों के सामने रहती है। बिजली, पानी, परिवहन और संचार जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी भी इनके कार्य संचालन में बाधा पैदा करती है। जटिल सरकारी नियमों और विनियमों को समझने और उनका पालन करने में भी इनको कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इन सभी सीमाओं के बावजूद लघु उद्योग उपयोगी हैं। इस प्रारूप के माध्यम से व्यवसायों का कुशल संचालन किया जा सकता है।

इस दृष्टि से कई कदम उठाए जा सकते हैं, जिनसे ये प्रभावी ढंग से कार्य संचालन कर सकती हैं। लघु कंपनियों के विकास के लिए बाजार अनुसंधान करना, तकनीकी निवेश करना, रणनीतिक साझेदारी बनाना, नए उत्पाद लाना, ग्राहक सेवा और ग्राहकों की प्रतिक्रिया पर ध्यान देना और वित्तीय प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करना महत्त्वपूर्ण है। इन उपायों से न केवल मौजूदा ग्राहकों को बनाए रखने में मदद मिलती है, बल्कि नए ग्राहक भी आकर्षित होते हैं और व्यवसाय की स्थिरता बढ़ती है।

रणनीतिक उपायों तथा बाजार अनुसंधान द्वारा लघु कंपनियां अपने लक्षित ग्राहकों एवं प्रतिस्पर्धियों को गहराई से समझ सकती हैं। तकनीकी दक्षता बढ़ाने और सफल अभियानों को चलाने के लिए निवेश करना जरूरी है। इन कंपनियों के लिए पर्याप्त धनराशि का प्रावधान कर लागत को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करना चाहिए। वहीं इन कंपनियों को उत्पादन प्रक्रियाओं और तकनीकों में सुधार करने की भी जरूरत है। इनके अपने कर्मचारियों को औद्योगिक शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान कर कुशल बनाए रखना भी जरूरी है। जब आवश्यकता हो, तो बाहरी विशेषज्ञों से वित्तीय या लेखांकन से जुड़ी सलाह भी लेते रहना चाहिए।

यदि कोई नया उद्यमी छोटे पैमाने पर अपना व्यवसाय शुरू करना चाहे, तो इसके लिए लघु कंपनी का स्वरूप उपयोगी हो सकता है, इस बात की जानकारी विभिन्न माध्यमों से उनको उपलब्ध कराई जानी चाहिए। अभी लघु कंपनियों का स्वरूप बहुत कम लोकप्रिय है। कंपनी अधिनियम के अंतर्गत लघु कंपनी की श्रेणी में आने वाली कंपनियों की संख्या तीन फीसद के आसपास ही है। इस फीसद को बढ़ाने के लिए जागरूकता जरूरी है। इस दिशा में सरकार और अन्य संबंधित पक्षकारों को मिलकर प्रयास करने की जरूरत है।