पिछले कुछ वर्षों से यह साफ देखा जा सकता है कि स्मार्टफोन का किस स्तर पर विस्तार हुआ है और युवाओं के बीच इसका उपयोग किस कदर बढ़ गया है। ऐसे उदाहरण आसानी से मिल जाएंगे, जिसमें युवा पढ़ाई और किसी नियमित रोजगार का मार्ग चुनने के बजाय ‘रील’ बना कर सोशल मीडिया पर प्रसारित कर उससे कमाई के रास्ते तलाश रहे हैं। यह अब लाखों युवाओं की हकीकत बन चुकी है।

आज सोशल मीडिया के इस दौर में ‘रील’ केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि यह पैसा और शोहरत कमाने का माध्यम बन चुका है। यह मानसिकता पढ़े-लिखे युवाओं से लेकर आम गृहिणियों, कामकाजी महिलाओं और ट्रक चालकों से लेकर घर-घर सामान पहुंचाने वालों तक फैल चुकी है। कभी मनोरंजन के लिए शुरू हुई यह डिजिटल संस्कृति अब युवाओं के जीवन में वास्तविक और आभासी दुनिया के बीच की सीमाओं को धुंधला कर रही है। गांव, शहर, कस्बा और महानगर हर जगह युवा कैमरे के सामने अभिनय करते, सड़कों पर नाचते या खतरनाक करतब करते दिखाई देते हैं। इस क्रम में वे अपनी और दूसरों की जान जोखिम में डालने से भी नहीं चूकते हैं।

पहले युवा वर्ग डाक्टर, इंजीनियर, अधिकारी, लेखक, सैनिक या खिलाड़ी आदि बनने का सपना देखता था। कुछ युवा फिल्मों से प्रभावित होकर अभिनय की दुनिया में कदम रखने के लिए वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद अपना स्थान मुश्किल से बना पाते थे। मगर आज का युवा परिश्रम के बजाय ‘इन्फ्लुएंसर’ (समाज में अपना प्रभाव बनाने वाला) बनना चाहता है।

अब लक्ष्य ज्ञान या कौशल नहीं, बल्कि लोकप्रियता हासिल करना और थोड़े समय में दौलतमंद बन जाना है। यह संस्कृति एक नई मानसिकता को जन्म दे रही है, जो सामाजिक विकृति का कारण भी बन रही है। ‘रील’ बनाना अब कला नहीं, बल्कि एक प्रतिस्पर्धा है।

समाज में सहयोग की जगह तुलना और प्रतियोगिता ने ले ली है, जहां हर कोई दूसरों से अधिक लोकप्रियता पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। कोई चलती ट्रेन के पास नृत्य करता है, कोई पुल से कूदता है, कोई सड़क पर करतब दिखाता है, तो कोई सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर सोशल मीडिया के लिए सामग्री तैयार करता है। इससे कई तरह की मानसिक और सामाजिक विकृतियां भी पैदा हो रही हैं, जो कई बार हत्या या आत्महत्या जैसी आपराधिक घटनाओं के रूप में सामने आती है। युवा सोचते हैं कि यदि उन्होंने कुछ अनोखा किया, चाहे उसमें जान का जोखिम क्यों न हो, उससे उन्हें प्रसिद्धि मिलेगी। मगर कई बार इसकी कीमत जान गंवा कर चुकानी पड़ती है।

देश में रेल मार्ग के पास इस तरह के वीडियो बनाते हुए कितने लोगों की जान जा चुकी है, इसका कोई निश्चित आंकड़ा नहीं है। मगर दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे और नागपुर मंडल के एक अनुमान के मुताबिक, वर्ष 2025 के शुरुआती पांच महीनों में सत्तानबे लोग ट्रेन से कट कर मारे गए, जो ‘रील’ बनाने की कोशिश कर रहे थे।

अमेरिका की ‘बार्बर ला फर्म’ की रपट के अनुसार, दुनिया भर में सेल्फी लेते समय मौत की घटनाओं में से 42.1 फीसद घटनाएं भारत में हुई हैं। ये महज हादसे नहीं, बल्कि उस समाज की त्रासदी है, जिसने वास्तविक जीवन के बजाय आभासी छवि को अधिक मूल्यवान बना दिया है। युवाओं में बढ़ती यह प्रवृत्ति उन्हें वास्तविक संवाद, पढ़ाई, संबंध और सामाजिक जिम्मेदारी से दूर ले जा रही है।

इस संस्कृति का एक और खतरनाक पहलू अभद्रता और हिंसा का महिमामंडन है। आज सोशल मीडिया पर मौजूद अधिकांश सामग्री सामाजिक शालीनता की सीमाओं को लांघ चुकी है। विडंबना यह है कि इस तरह की सामग्री को दर्शक भी पसंद करने लगे हैं। किसी समाज की सभ्यता का आकलन इस बात से भी किया जाता है कि वह अपने युवाओं को किस दिशा में प्रेरित करता है। जब युवाओं की ऊर्जा ऐसी सामग्री तैयार करने में लग रही है, तो यह सामाजिक पतन का स्पष्ट संकेत है। आज कोई यह नहीं पूछता कि हमारी शिक्षा और पारिवारिक व्यवस्था इतनी असफल क्यों हो गई कि युवा अपनी पहचान सिर्फ कैमरे में खोजने लगा है।

आभासी दुनिया से जुड़ी इस संस्कृति ने न केवल युवाओं की ऊर्जा को भटकाया है, बल्कि समाज की नैतिकता को भी चोट पहुंचाई है। सड़क दुर्घटनाओं के दौरान मदद करने के बजाय लोग अब मोबाइल निकाल कर वीडियो बनाते हैं, क्योंकि इस तरह की सामग्री के प्रसार का लोभ मानवता से बड़ा हो गया है। अब मानवीय संवेदनाओं की जगह प्रसिद्धि का आकर्षण साफ दिखाई देता है। बच्चों के साथ माता-पिता के संवाद और मित्रता का स्थान अब स्क्रीन ने ले लिया है। यही कारण है कि मोबाइल बच्चों का शिक्षक, मित्र और आदर्श बनता जा रहा है।

दुखद यह है कि इस बदलती मानसिकता के बीच परिवार, शिक्षक और समाज मौन हैं। समाचार माध्यम भी सोशल मीडिया पर तेजी से प्रसारित होने वाली सामग्री को खबर के रूप में परोसते हैं, जिससे युवाओं के बीच इस तरह की सामग्री बनाने की होड़ और तेज हो जाती है।

वीडियो के जरिए ‘रील’ की फलती-फूलती संस्कृति सिर्फ सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि आर्थिक तंत्र का हिस्सा भी है। लोग सोशल मीडिया पर सामग्री डाल कर पैसा कमाना चाहते हैं। इसलिए वे वही सामग्री आगे बढ़ाते हैं, जो अधिक लोगों को आकर्षित करे, चाहे वह कितना भी सतही, हिंसक या अपमानजनक या अभद्र क्यों न हो। युवाओं को शायद ही इस बात का एहसास होता है कि वे डिजिटल उत्पाद बनते जा रहे हैं। उनका समय, ध्यान और भावनाएं डेटा तथा विज्ञापन के रूप में बिक रहे हैं। युवा सोचते हैं कि वे रचनाकार हैं, जबकि वास्तव में वे एक उपभोक्ता हैं, जिन्हें बार-बार स्क्रीन पर आने के लिए आकर्षित किया जा रहा है।

सोशल मीडिया पर ‘रील’ का जुनून केवल व्यक्ति का बाहरी व्यवहार नहीं बदलता, बल्कि उसके भीतर की दुनिया को भी विकृत कर देता है। अब सफलता की दर प्रसिद्धि और समर्थकों की संख्या से मापी जाने लगी है। यही तत्त्व दोस्ती, प्रेम और आत्मविश्वास का पैमाना बन गए हैं। मनोचिकित्सक मानते हैं कि ‘डोपामिन हिट’ यानी ‘रील’ को पसंद करने वालों की संख्या से मिलने वाली क्षणिक खुशी अब डिजिटल नशे का रूप ले चुकी है। युवा इस भ्रम को हकीकत मानने लगे हैं कि सोशल मीडिया पर सराहना ही उनकी असली पहचान है।

इस प्रवृत्ति के कारण वे वास्तविक जीवन से कटने लगे हैं, पढ़ाई और अपने कार्य में उदासीन हो गए हैं तथा मानसिक अस्थिरता का शिकार होने लगे हैं। युवाओं को यह समझना होगा कि असली पहचान स्क्रीन पर नहीं, वास्तविक जीवन में है। जितना वे अपनी प्रतिभा और संवेदनशीलता को वास्तविक समाज में लगाएंगे, उतना ही उनका अस्तित्व अर्थपूर्ण बनेगा। जरूरत है आज की युवा पीढ़ी को सही दिशा देने की, ताकि कैमरे के सामने सिर्फ दिखावे के बजाय विचार, संवेदना और परिवर्तन की सच्ची तस्वीर बने।