बिहार विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारी से लेकर मतदान तक सबसे महत्त्वपूर्ण कारक जाति बन गया है। राजनीति में जाति की भूमिका तो पहले भी थी, लेकिन तब सभी राजनीतिक दलों में जातीय दीवार को कमजोर करने की प्रतिस्पर्धा थी। इसका बड़ा कारण विचारधारा आधारित राजनीति थी।

प्रजा सोशलिस्ट पार्टी हो या भारतीय जनसंघ, कम्युनिस्ट पार्टी या फिर किसान मजदूर प्रजा पार्टी, सबकी पहुंच सभी जातियों में थी। तब कार्यकर्ताओं की पहचान जाति के बजाय उनकी विचारधारा से होती थी। यहां तक कि जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेता भी बंगाली अस्मिता से आए थे।

बिहार में 1960 और 70 के दशकों में राजनीतिक प्रगतिशीलता का सूचकांक चरम पर था। तब जातीय समीकरण सब कुछ नहीं था। मगर आज के दौर में तो परिचय जाति से शुरू होकर जाति पर ही समाप्त हो जाता है।

उन दशकों में विषमता उन्मूलन, हाशिये पर पड़े लोगों की भागीदारी और साफ-सुथरी राजनीति समान रूप से दलों का मुख्य एजंडा होता था। बिहार पहला राज्य है, जिसने जमींदारी प्रथा समाप्त की थी। इस कदम ने पूरे देश में हलचल पैदा कर दी थी। तब बिहार में ज्यादातर राजनीतिक दलों में मध्यम एवं निम्न मध्यम वर्ग से संबंधित कार्यकर्ताओं की संख्या अधिक थी। इसलिए जमींदारी उन्मूलन का जितना न्यायालय में विरोध हुआ, उस अनुपात में सड़क पर प्रतिरोध कुछ भी नहीं दिखा। यानी समानता मूलक सामूहिक उपचेतना बिहारवासियों में विद्यमान थी।

उस काल में उम्मीदवारों का राजनीतिक चरित्र, उनकी शिक्षा और सामाजिक सरोकार एवं सर्वसमावेशी छवि चुनावी सरगर्मी में चर्चा का विषय होता था। तब कम और अधिक अच्छे के बीच प्रतिस्पर्धा होती थी। इसका दिलचस्प उदाहरण वर्ष 1972 में फारबिसगंज विधानसभा का चुनाव है। प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु चुनाव मैदान में थे। उन्हें संत लेखक कहा जाता था। उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर राजकपूर की फिल्म ‘तीसरी कसम’ बनी थी।

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वे जयप्रकाश नारायण के दलविहीन जनतंत्र की राह पर थे और निर्दलीय प्रत्याशी बने। मगर उनके प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के सरयू मिश्र और सोशलिस्ट लखन लाल कपूर भी अच्छी छवि वाले स्वतंत्रता सेनानी थे। वर्ष 1942 के आंदोलन में तीनों भागलपुर जेल में एक साथ थे। हालांकि, रेणु की हार में चरित्र का योगदान कम और चुनावी रणनीति की भूमिका अधिक रही।

फणीश्वरनाथ रेणु, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर और जयप्रकाश नारायण तीनों समाज और राजनीति में आ रहे पराभव से चिंतित थे। इस चिंता में हजारों लोगों की साझेदारी थी और इसी ने संपूर्ण क्रांति की परिकल्पना को जन्म दिया था।

वर्ष 1957, 1962 और 1967 के चुनावों में सोशलिस्ट, जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टियों के मतों में लगातार इजाफा होता गया। वर्ष 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को कुल साढ़े चौबीस फीसद, तो जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी को क्रमश: दस और सात फीसद मत मिला था। तब वैचारिक सत्ता जातीय सत्ता को चुनौती दे रही थी। पर अब सब कुछ उलट गया है।

जातीय सुनामी ने विचार, जनपक्ष, सरोकार, नेताओं की शिक्षा और चरित्र को प्राय: अप्रासंगिक बना दिया है। जातीय आधिपत्य को लेकर पचास के दशक में जयप्रकाश नारायण और बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री कृष्ण सिंह के बीच पत्राचार उल्लेखनीय है। दोनों ने सत्ता में जातीय असंतुलन को भविष्य के लिए खतरनाक माना था। उस पीढ़ी से प्रभावित जो बुद्धिजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ता अभी हैं, वे अपनी भूमिका में चूकते रहे हैं। बौद्धिक जगत भीड़ का हिस्सा बन गया है। ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं थी।

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आखिर राजनीति में गिरावट का कारण क्या है? जाति ने विचार को क्यों पछाड़ दिया? ये प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसका पहला कारण ऐतिहासिक भूल है। देश के अन्य भागों की तुलना में बिहार में सामाजिक सुधार आंदोलन बहुत ही कम हुआ। इसलिए शैक्षणिक सफलता पाने वालों की फौज होने के बावजूद सामाजिक जड़ता कमजोर नहीं हुई।

जयप्रकाश नारायण ने वर्ष 1974 में जब संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य रखा था, तब उसमें सामाजिक परिवर्तन का अहम स्थान था। मगर प्रकारांतर में सोशलिस्ट आंदोलन में बिखराव ने अस्सी के दशक में जातीय राजनीति को आगे बढ़ाने का काम किया।

1950 और 60 के दशकों में जातिविहीन राजनीति की जो प्रक्रिया थी, उसमें हाशिये की जातियों का प्रतिनिधित्व जितनी तेजी से बढ़ना चाहिए थी, वैसा हो नहीं पाया। इसलिए इस विफलता ने जातिवादी राजनीति को उधार में तर्क दे दिया।

वर्ष 1930 के दशक में त्रिवेणी संघ की स्थापना हुई थी, जब विचारधाराओं की आड़ में राजनीति पर स्थापित सामंती वर्चस्व को चुनौती देने का अभियान शुरू हुआ था। तब कांग्रेस प्रगतिशील ताकतों को कमजोर कर जातीय समीकरणों को आगे बढ़ाती रही। बदलाव के लिए साहस और संकल्प की आवश्यकता होती है। यह फूलों की सेज नहीं, बल्कि कांटों से भरा मार्ग होता है। सुविधापरस्त लोग निद्रावस्था में चलते हैं। यह राजनीति में अनपेक्षित प्रवृत्तियों को अमरबेल की तरह फैलने का अवसर देता है।

प्रतिक्रियावाद लोकतंत्र के लिए आंतरिक संकट की तरह होता है, जो समाज को क्षत-विक्षत कर देता है। इसे उत्तर-विचारधारा की राजनीति से ही रोका जा सकता है। आधुनिकता सिर्फ अच्छी सड़कें, बड़े भवन, पोशाक और सांस्कृतिक साधनों की उपलब्धता मात्र नहीं है। मन का परिष्कार, मस्तिष्क का निडर होना और आदर्श प्राप्त करने की इच्छाशक्ति के बिना सारे संसाधन मरुभूमि में उपजने वाले कंटीले पौधे बन जाते हैं।

तात्कालिक प्रश्न तो कम बुरे उम्मीदवार को चुनना है, पर दीर्घकालिक प्रश्न अराजकता की अभिव्यक्ति जो समकालीन राजनीति से उपजती है और अभिव्यक्ति की अराजकता जो उसे प्रतिबिंबित करता है, उन दोनों से मुक्ति पाना है। त्रिवेणी संघ के घोषणापत्र से लेकर संपूर्ण क्रांति तक की यात्रा का मंथन संभवत: राजनीतिक पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।