महत्त्वाकांक्षा के सकारात्मक पहलू भी होते हैं। एक मनोवैज्ञानिक इंजन, जो व्यक्तियों को जीवित रहने के दायरे से परे सृजन, विघटन और परिवर्तन के क्षेत्र में ले जाता है। महत्त्वाकांक्षा यथास्थिति को स्वीकार करने से इनकार करना है और व्यक्तिगत व सामाजिक सीमाओं को बढ़ाने का आंतरिक दबाव है। यह जोखिम लेने, दृढ़ता और इस जिद्दी विश्वास के लिए उत्प्रेरक के रूप में उद्यमशीलता को रेखांकित करती है कि एक बेहतर तरीका न केवल संभव है, बल्कि आवश्यक भी है। इसके बिना नवाचार रुक जाता है।
विज्ञान से लेकर कला और राजनीति तक सभी क्षेत्रों में इतिहास की सफलताएं शायद ही कभी आत्मसंतुष्टि का परिणाम हैं- वे बेचैन, महत्त्वाकांक्षी दिमागों के अवशेष हैं। महत्त्वाकांक्षी लोगों के बारे में कई बार नकारात्मक धारणाएं फैलाई जाती हैं, लेकिन दुनिया काफी हद तक महत्त्वाकांक्षी लोगों का उत्पाद है। इसे वे लोग आकार देते हैं जो शांत नहीं बैठ सकते। वे लोग भी, जो विरासत में मिली सीमाओं से संतुष्ट नहीं थे और अपने विचारों पर काम करने के लिए खुद को बाध्य महसूस करते थे, चाहे वे कितने भी कठिन या अलोकप्रिय क्यों न हों।
प्रगति कभी भी समान रूप से वितरित नहीं हुई है। यह उन व्यक्तियों और समूहों द्वारा संचालित की गई है जो अपनी छाप छोड़ने की अत्यधिक इच्छा रखते हैं। महत्त्वाकांक्षा असंतोष को गति में और कल्पना को बुनियादी ढांचे में बदल देती है। यह न केवल यह बताती है कि कौन नेतृत्व या आविष्कार करने के लिए उठता है, बल्कि यह भी बताती है कि सभ्यताएं क्यों फैलती हैं, प्रौद्योगिकियां आगे बढ़ती हैं और संस्कृतियां विकसित होती हैं।
एक विद्वान ने कहा है, ‘महत्त्वाकांक्षा के बगैर बुद्धिमत्ता पंखों के बिना पक्षी के समान है।’ यह महत्त्वाकांक्षा का एक उजला पक्ष हो सकता है, लेकिन तब तक, जब वह संयमित और नियंत्रित हो। बहुत अधिक होने पर महत्त्वाकांक्षा जुनून में बदल सकती है। विनम्रता, सहयोग और यहां तक कि नैतिक निर्णयों को भी पीछे छोड़ सकती है।
जब महत्त्वाकांक्षा असीमित हो जाती है, तो यह व्यक्ति की सेवा करना बंद कर देती है और त्याग की मांग करने लगती है- रिश्तों, मूल्यों और दीर्घकालिक कल्याण की। यह आत्म-धारणा को विकृत कर सकती है और खुद को शून्य-योग प्रतियोगिता में अकेले नायक के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित करती है। अनियंत्रित महत्त्वाकांक्षा अक्सर लालच में बदल जाती है। न केवल सफल होने की, बल्कि हावी होने की एक अतृप्त भूख।
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लालच एक उत्तेजक मंत्र तो हो सकता है, लेकिन अंधाधुंध रूप से लागू होने पर इसे एक खतरनाक दर्शन में बदलते देर नहीं लगती। लालच सामाजिक अनुबंधों को नष्ट कर देता है और शोषण को उचित ठहराता है, अनैतिक संक्षिप्त रास्तों को सहन करता है, लोगों को लक्ष्य प्राप्ति के साधन के रूप में देखता है। बेलगाम महत्त्वाकांक्षा अर्श से फर्श पर ला सकती है।
स्वस्थ महत्त्वाकांक्षा उद्देश्य पर आधारित होती है, आत्म-जागरूकता से संतुलित होती है और सामूहिक सफलता के प्रति प्रतिबद्धता से जुड़ी होती है। यह सभी को ऊपर उठाती है, न कि केवल सबसे तेज गति से ऊपर चढ़ने वाले को। जब ‘आगे बढ़ने’ की इच्छा ‘मिलकर चलने’ की प्रवृत्ति से अधिक हो जाती है, तो महत्त्वाकांक्षा सामाजिक सामंजस्य को मटियामेट कर सकती है।
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जैसे-जैसे महत्त्वाकांक्षा बढ़ती है, वैसे-वैसे श्रेष्ठता और दूसरों के प्रति उपेक्षा की भावना भी बढ़ती है। इसमें हेरफेर, बदमाशी, सयानेपन या आलोचना को स्वीकार करने से इनकार करने जैसे विषाक्त व्यवहार हो सकते हैं। जब महत्त्वाकांक्षा असामाजिक लक्षणों के साथ जुड़ जाती है, तो यह एक गुण नहीं रह जाती और एक दायित्व बन जाती है- व्यक्ति और उस प्रणाली दोनों के लिए, जिसका वे हिस्सा हैं।
महत्त्वाकांक्षा अक्सर समझौते की मांग करती है, लेकिन जब वे समझौते बलिदान बन जाते हैं, तो परिणाम गंभीर हो सकते हैं। तीव्र व्यावसायिक लक्ष्यों से प्रेरित लोग परिवार, दोस्तों और आत्म-देखभाल की उपेक्षा कर सकते हैं, यह मानते हुए कि सफलता लागतों को उचित ठहराती है। समय के साथ उपेक्षा बढ़ती जाती है, रिश्ते खराब होते हैं, स्वास्थ्य बिगड़ता है, बड़ी उपलब्धियों के बाद भी खालीपन की भावना पैदा हो सकती है।
आमतौर पर बेलगाम महत्त्वाकांक्षाओं को सतही माना जाता है, क्योंकि यह हमेशा परिणाम की तलाश में रहती है और कभी पीछे मुड़कर नहीं देखती। यह याद रखना जरूरी है कि कभी-कभी पर्याप्त लक्ष्य रखना सबसे बुद्धिमानी और सबसे टिकाऊ रणनीति होती है। हम भूल जाते हैं कि महत्त्वाकांक्षा स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ नहीं होती, यह केवल पहले से मौजूद चीजों को बढ़ाती है। सही हाथों में यह नवाचार, सेवा और प्रगति को उत्प्रेरित करती है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि यह किसी व्यक्ति के भीतर की क्षमताओं में उभार लाकर उसे अपने सामान्य और यथास्थिति का शिकार हो गए जीवन में कोई नया मुकाम बनाने को प्रेरित कर सकता है, लेकिन यह तभी तक संभव है, जब तक अपनी इस आकांक्षा को मानवीय और संवेदनशीलता की कसौटी पर कसते हुए अपनी उन्नति की राह पर आगे बढ़ाया जाए। यह भले लोगों के लिए बहुत मुश्किल नहीं है।
मगर गलत लोगों में यह अहंकार, शोषण और आखिरकार पतन को बढ़ावा देती है। भविष्य उन लोगों का नहीं होगा जो सबसे तेज चढ़ते हैं, बल्कि उनका होगा जो उद्देश्य के साथ चढ़ते हैं और दूसरों को अपने साथ लाते हैं। हेनरी वर्ड्सवर्थ के शब्दों में, ‘अधिकांश लोग छोटी-छोटी चीजों में भी सफल हो जाते, अगर वे बड़ी महत्त्वाकांक्षाओं से ग्रसित न होते।’