जलवायु परिवर्तन पर कुछ समय पहले आई एक रपट में चेतावनी दी गई है कि पेरिस जलवायु समझौते के दस साल बाद भी कई देश जीवाश्म ईंधन के उत्पादन को बढ़ावा दे रहे हैं, जो चिंताजनक है। इसमें कहा गया है कि अनेक देशों की सरकारें वर्ष 2030 तक कोयला, तेल और गैस के उत्पादन की योजना बना रही हैं, जो वायुमंडल में तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए जरूरी ईंधन से दोगुने से अधिक हो सकता है। यह उत्पादन लक्ष्य से 120 फीसद अधिक है।

पेरिस समझौते के अब दस साल पूरे होने जा रहे हैं। इसके मुताबिक, दुनिया भर के देशों ने तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने की प्रतिबद्धता जताई थी। दुबई में आयोजित ‘सीओपी 28’ में विभिन्न देशों ने ऊर्जा प्रणालियों में जीवाश्म ईंधन से दूसरे स्रोतों की ओर रुख करने के आह्वान पर पूरी तरह सहमति व्यक्त की थी।

स्टाकहोम एनवायरमेंट इंस्टीट्यूट और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फार सस्टेनेबल डेवलपमेंट एंड क्लाइमेट एनालिटिक्स की ‘उत्पादन अंतराल रपट 2025’ के अनुसार, जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने के बजाय कई देशों की सरकारें अब सामूहिक रूप से वर्ष 2035 तक कोयला उत्पादन, 2050 तक गैस उत्पादन और सदी के मध्य तक तेल उत्पादन में निरंतर वृद्धि की योजना बना रही हैं।

ऐसे में जो चुनौतियां खड़ी होंगी, उसके मद्देनजर कहा जा सकता है कि आने वाले दशकों में जीवाश्म ईंधन के उत्पादन में और भी कमी लाने के लिए कदम उठाने होंगे। यह काम निश्चित रूप से चुनौती भरा होगा। इस रपट में अमेरिका, चीन, रूस, सऊदी अरब, भारत और आस्ट्रेलिया सहित बीस प्रमुख ऊर्जा उत्पादक देशों को शामिल कर एक विश्लेषण किया गया है। इसमें पता चला है कि सत्रह देश अभी भी 2030 तक जीवाश्म ईंधन का उत्पादन बढ़ाने की योजना बना रहे हैं। यानी कोयला, तेल या गैस का उत्पादन पहले की तुलना में कहीं अधिक होगा।

रपट में बताया गया है कि वर्ष 2030 तक कोयला उत्पादन 1.5 डिग्री सेल्सियस के अनुरूप स्तर से 500 फीसद अधिक होगा। इसी तरह तेल इकतीस और गैस का उत्पादन बानबे फीसद से अधिक होगा। जबकि वैश्विक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इन देशों ने वर्ष 2040 तक कोयले का उपयोग लगभग समाप्त करने और 2050 तक तेल एवं गैस उत्पादन में तीन चौथाई कटौती करने की प्रतिबद्धता जताई थी।

धरती पर रहने वाले संपूर्ण जीव-जगत पर करीब तीन दशक से जलवायु परिवर्तन से वर्तमान और भविष्य में पैदा होने वाले संकटों की तलवार लटकी हुई है। मनुष्य के जीवन और जलवायु परिवर्तन के बीच दूरी निरंतर कम हो रही है। पर्यावरण विज्ञानियों के मुताबिक, औद्योगिक विकास से उत्सर्जित कार्बन और शहरी विकास से घटते जंगल से वायुमंडल का तापमान बढ़ रहा है। यह पृथ्वी के लिए घातक है। स्वाभाविक रूप से इससे न केवल मानव सभ्यता पर असर पड़ेगा, बल्कि धरती पर हर जीव-जंतु प्रभावित होंगे।

ऐसा ही रहा तो इस सदी के अंत तक पृथ्वी पर गर्मी 2.7 फीसद बढ़ जाएगी, जिस कारण कई तरह के खतरों का सामना करना पड़ सकता है। इस मानव निर्मित वैश्विक आपदा से निपटने के लिए प्रतिवर्ष एक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन (सीओपी) आयोजित किया जाता है। इसकी पिछली बैठक दुबई में हुई थी। पेरिस समझौते के तहत भागीदार देशों ने जो वचनबद्धता जताई थी, उसके अंतर्गत वास्तव में अभी तक छप्पन देशों ने ही संयुक्त राष्ट्र मानदंडों के अनुसार पर्यावरण सुधार की घोषणा की है।

इनमें यूरोपीय संघ, अमेरिका, चीन, जापान और भारत भी शामिल हैं। मगर रूस-यूक्रेन युद्ध और इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष के कारण कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए जो कार्य किया जाना चाहिए था और नवीकरणीय ऊर्जा को जो बढ़ावा दिया जाना था, वह उम्मीद के अनुरूप नहीं हो रहा है। क्योंकि जिन देशों ने वचनबद्धता निभाते हुए कोयले से ऊर्जा उत्पादन के जो संयंत्र बंद कर दिए थे, उन्हें अब फिर से चालू करने की तैयारियां हो रही हैं।

गौरतलब है कि ब्रिटेन में हुई पहली औद्योगिक क्रांति में कोयले का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। दरअसल, 1500 ईसवीं में बड़े पैमाने पर कोयला उत्खनन की शुरुआत हुई थी। इसके बाद जिन देशों में भी कारखाने लगे, उनमें लकड़ी और कोयले का इस्तेमाल लंबे समय तक होता रहा। दुनिया भर में रेलगाड़ियां कोयले से ही लंबे समय तक चलती रही हैं। भोजन पकाने, ठंड से बचने और उजाले के उपाय भी लकड़ी जला कर किए जाते रहे हैं। धुएं के बड़ी मात्रा में उत्सर्जन और धरती के तापमान में वृद्धि की शुरुआत औद्योगिक क्रांति की बुनियाद रखने के साथ ही आरंभ हो गई थी।

इसके बाद जब इन दुष्प्रभावों का अनुभव पर्यावरणविदों ने किया, तो 14 जून 1992 में रियो डी जनेरियो में पहला अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी सम्मेलन संपन्न हुआ। इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप 16 फरवरी, 2005 को जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए क्योटो अंतरराष्ट्रीय संधि अस्तित्व में आई। इसमें शामिल देशों ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रतिबद्धता जताई। दुनिया के वैज्ञानिकों ने एकमत होकर कहा कि मानव निर्मित गैस सीओ-2 के उत्सर्जन से धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। इस संधि पर 192 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं।

इस समय दुनिया में चल रहे दो भीषण युद्ध ने हालात बदल दिए हैं। नवंबर 2021 में ग्लासगो में हुए वैश्विक सम्मेलन में तय हुआ था कि वर्ष 2030 तक विकसित देश और 2040 तक विकासशील देश ऊर्जा उत्पादन में कोयले का उपयोग बंद कर देंगे। यानी 2040 के बाद थर्मल पावर अर्थात ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले से बिजली का उत्पादन पूरी तरह बंद हो जाएगा। तब भारत और चीन ने पूरी तरह कोयले पर बिजली उत्पादन पर असहमति जताई थी, लेकिन चालीस देशों ने कोयले का इस्तेमाल बंद कर देने का भरोसा दिया था। वहीं, बीस देशों ने विश्वास दिलाया था कि 2022 के अंत तक कोयले से बिजली बनाने वाले संयंत्र बंद कर दिए जाएंगे, मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। इन बदले हालात में अगर हमें जिंदा रहना है, तो जिंदगी जीने की शैली को भी बदलना होगा। हर हाल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी।

अगर तापमान में वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है, तो कार्बन उत्सर्जन में 43 फीसद कमी लानी होगी। आइपीसीसी ने 1850-1900 की अवधि को पूर्व औद्योगिक वर्ष के रूप में रेखांकित किया है। इसे ही बढ़ते औसत वैश्विक तापमान की तुलना के आधार के रूप में लिया जाता है। अगर कार्बन उत्सर्जन की दर नहीं घटी और तापमान 1.5 डिग्री से ऊपर चला जाता है, तो असमय सूखा, बाढ़ और जंगलों में आग की घटनाओं का निरंतर सामना करना पड़ सकता है। बढ़ते तापमान का असर केवल धरती पर ही होगा, ऐसा नहीं है। इससे समुद्र का तापमान भी बढ़ेगा, जिससे तटवर्ती क्षेत्रों के कई शहरों का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा।