विकास की बेलगाम दौड़ में आज मनुष्य एक ऐसी स्थिति में आ खड़ा हुआ हुआ है, जहां आने वाले समय में उसके सामने खत्म होते प्राकृतिक संसाधनों का भीषण संकट उत्पन्न होने वाला है। यह संसाधनों के अति दोहन का ही परिणाम है कि हम आने वाली पीढ़ियों के लिए एक ऐसी अभावग्रस्त और संकटपूर्ण दुनिया सौंपने की कगार पर हैं, जिसमें कहीं जल संकट होगा तो कहीं प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन से उपजी प्रकृति प्रदत्त समस्याएं, जैसे वनों के अतिदोहन से हुई पेड़ों की कमी और उसके परिणामस्वरूप मौसम और मानसून चक्र में परिवर्तन, नदियों का सूखना एवं दूषित होना, भूमि के दोहन से उपजी भूमि की उर्वरहीनता आदि।

इन सारी समस्याओं की जड़ में प्रमुख है, आवश्यकता से अधिक चीजों का उपयोग करना। यानी हम अपनी आवश्यकता को बिना सोचे-समझे ही अपने घर और जीवन में चीजों का अंबार लगाते जा रहे हैं। नतीजतन, संसाधनों पर दबाव बढ़ता ही जा रहा है। कभी हमारे पास कुछ सीमित संख्या में कपड़े, बर्तन, फर्नीचर, इलेक्ट्रोनिक उपकरण आदि होते थे, आज हमारी आलमारियां, रसोई, कमरे सब भरे पड़े रहते हैं। फिर भी हमें जरूरत न होने पर भी चीजों को खरीदने में कोई हिचक नहीं होती। कभी रियायती प्रस्ताव वाले ‘सेल’ लगे होते हैं, कभी ‘कैश बैक’ के लालच में पड़कर और कभी दूसरों के पास किसी चीज को देखकर हम बस खरीदते ही रहते हैं। इस प्रकार, घर सामानों और कपड़ों से भर जाता है। प्रति व्यक्ति खपत न केवल संसाधनों पर दबाव बढ़ाता है, बल्कि उससे ग्रीनहाउस गैसों में भी वृद्धि होती है और अन्य पर्यावरणीय कारक भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं।

जब तक हम अपनी आवश्यकताओं को नहीं समझेंगे और बिना सोचे-समझे केवल लोगों को देखकर या आकर्षक प्रस्ताव के लालच में पड़कर चीजें बटोरते रहेंगे, तब तक संसाधनों का उचित उपयोग संभव नहीं हो पाएगा। हर व्यक्ति की नैतिक जिम्मेदारी होती है कि वह इस भावना से काम करे कि ‘विश्व का कल्याण हो’। हम इस विश्व के एक अंश के समान हैं और हमें अपने अंश के कर्तव्यों को समझना होगा। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारा इस पृथ्वी के लिए जो कर्तव्य है, वह उचित तरीके से निर्वहन हो। हम अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर सकते हैं। उसके लिए हमें मानासिक रूप से दृढ़ होना होगा। क्या आवश्यक है और क्या आवश्यक नहीं है, उसमे भेद करके स्वयं को प्रशिक्षित करना होगा।

आज के दौर में एक क्लिक पर सारी चीजें उपलब्ध हैं। यह आसानी से उपलब्ध होना ही कहीं हमें अतिभौतिकवादी तो नहीं बनाती जा रही है, इस पर भी गौर करने की आवश्यकता है। खुद को रोकना होगा, ताकि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए कहीं एक अभावग्रस्त दुनिया छोड़ कर न जाएं। हमें यह भी धारण करना होगा कि हम अपने हिस्से के दायित्वों का अच्छी तरह से निवर्हन करें। कभी यह न सोचें कि एक मेरे ही जागरूक होने से क्या ही बदल जाएगा।

हमें जीवन के उन मूल्यों को भी समझना होगा, जिसमें चीजों के सीमित उपयोग को बढ़ावा दिया जाता है। इस भाव को अपनाकर हम कम से कम में जीवन जीने की कला सीख सकते हैं। हम इस भाव से भी मुक्त हो जाएंगे कि चीजों को बटोरने मात्र से ही जीवन सुखमय हो सकता है। आज मनुष्य एकाकी होता जा रहा है और चीजें उसका सहारा बनती जा रही हैं। इस तकनीकी युग में भौतिकवाद पहले से कहीं अधिक प्रबल है। समाज में दिखावे की भी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इस दिखावे की प्रवृत्ति ही कहीं न कहीं चीजों को बटोरने की प्रवृत्ति का विकास कर रही है।

पहले घरों में एक टेलीविजन होता था और पूरा परिवार साथ मिलकर देखता था, लेकिन आज हर घर में एक से अधिक टेलीविजन, हर हाथ में टीवी का काम करने वाले स्मार्टफोन, रेफ्रीजरेटर, कार आदि उपलब्ध हैं। इससे प्रति व्यक्ति खपत में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, जिससे संसाधनो पर दबाव बढ़ रहा है। बाजारीकरण के इस दौर में लोक-लुभावन प्रचार हमारी खरीदने की प्रवृत्ति में आग में घी का काम कर रहे हैं। कंपनियां अपने उत्पाद को बेचने के लिए अनेक हथकंडे भी अपनाती हैं, जिसमें एक के साथ एक मुफ्त, ‘कैश बैक’, कीमतों में कमी आदि। इस तरह के विज्ञापनों को देखकर हम आकर्षित होकर आवश्यकता न होने पर भी खरीदना शुरू कर देते हैं। इस तरह न केवल हमारा बजट बिगड़ता है, बल्कि अनावश्यक चीजों से घर भी भर जाता है। उपयोगिता भूलकर हम विज्ञापनों के झांसे में आकर लगातार बाजारीकरण और विज्ञापनों का शिकार होते रहते हैं।

आज आवश्यकता है कि हर एक इंसान संसाधनों के दोहन के प्रति जागरूक हो। जब हम अपने कर्तव्यों को समझेंगे, तभी हम एक स्वच्छ और टिकाऊ विश्व की अवधारणा को साकार होते देख सकने के साक्षी होंगे। इसके साथ ही हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक ऐसी दुनिया छोड़ सकेंगे, जहां उनके सामने प्राकृतिक संसाधनों की कमी नहीं होगी। भावी पीढ़ियां भी सबक लेकर प्रकृति के प्रति अपने संबंधों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहेंगी। इस प्रकार तेजी से क्षय होते प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग लंबे समय तक मानव समाज स्वयं के लिए कर सकने में सक्षम होगा। संसाधनों की पर्याप्त उपलब्धता बने रहने से उसके दाम में भी स्थिरता बनी रहेगी और यह समाज के निचले और कम आय वाले तबके के लिए भी उपलब्ध रहेगा।