भारत जैसे देश में जहां पारंपरिक सोच और आधुनिक जीवनशैली आपस में टकराती हैं, वहां महिलाएं दोहरी चुनौतियों से गुजरती हैं। एक ओर उनसे पारंपरिक भूमिकाएं निभाने की अपेक्षा की जाती है, दूसरी ओर आधुनिक प्रतिस्पर्धी समाज में बराबरी साबित करने का दबाव भी उन पर होता है। यह द्वंद्व की स्थिति उनके मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित करती है। पारंपरिक समाज में अक्सर महिलाओं की भावनाओं और उनके मानसिक स्वास्थ्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिससे वे अवसाद, चिंता और तनाव जैसी बीमारियों का सामना करती हैं। देश में महिलाओं का अवसाद से ग्रस्त होना केवल स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा नहीं है, बल्कि यह एक बहुआयामी सामाजिक समस्या है।

मानिसक तनाव और अवसाद से महिलाओं का जीवन बुरी तरह प्रभावित होने के मामले सामने आते रहते हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश में दिल को छूने वाली एक घटना घटी, जब अवसाद से ग्रस्त एक महिला सत्रह साल बाद अपने परिवार से मिली। झांसी की रहने वाली यह महिला वर्ष 2008 में अचानक लापता हो गई थी। हर जगह तलाशने के बाद परिवार ने मान लिया था कि शायद वह कभी लौट कर नहीं आएंगी। असल में यह महिला गंभीर अवसाद से जूझ रही थी। घरेलू दबाव और आर्थिक तंगी ने उसे भीतर से तोड़ दिया था। इसी मानसिक स्थिति में उसने घर छोड़ दिया और शहरों में भटकती रही। कई वर्षों तक उसने आश्रमों और पुनर्वास केंद्रों में जीवन बिताया। पिछले दिनों एक पुनर्वास केंद्र में आधार कार्ड और स्थानीय पुलिस की मदद से उसकी पहचान की गई। उसके बाद इस महिला को उसके परिवार को सौंप दिया गया।

वृद्ध महिलाओं में स्थिति होती है और भी गंभीर

हाल के शोध बताते हैं कि भारत में अवसाद से पीड़ित कुल मरीजों में लगभग आधी संख्या महिलाओं की है। प्राथमिक देखभाल स्तर पर महिलाओं में अवसाद की व्यापकता औसत इकतालीस फीसद है, जो सामाजिक और आर्थिक दबाव, घरेलू हिंसा तथा शिक्षा की कमी जैसी वजहों से और बढ़ जाती है। शहरी अनौपचारिक बस्तियों में किए गए शोध में पंद्रह फीसद महिलाओं में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी हल्के, नौ फीसद में मध्यम और छह फीसद में गंभीर अवसाद या चिंता के लक्षण दर्ज किए गए हैं। वृद्ध महिलाओं में स्थिति और गंभीर होती है। पचास वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं में अवसाद की दर 21.7 फीसद पाई गई, जबकि साठ वर्ष से अधिक आयु वर्ग की महिलाओं में यह दर 9.5 फीसद दर्ज की गई, जो पुरुषों की तुलना में अधिक है।

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मानसिक स्वास्थ्य में गड़बड़ी और अवसाद का परिणाम कई बार आत्महत्या की घटनाओं के रूप में भी दिखाई देता है। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, वर्ष 2021 में भारत में 1,64,033 लोगों ने खुदकुशी की, इनमें 48,172 महिलाएं शामिल थीं। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते हैं कि परिवार, समाज और स्वास्थ्य संस्थाओं की मदद के बिना महिलाएं अवसाद से उबरने में सक्षम नहीं हो पातीं। वर्ष 2025 के हाल में आए आंकड़े बताते हैं कि भारत में अनुमानित रूप से लगभग 41.9 फीसद महिलाएं किसी न किसी रूप में अवसाद का सामना कर रही हैं। प्रजनन आयु की महिलाओं में मानसिक तनाव और भी अधिक पाया गया है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के निम्न-से-मध्यम आय वाले क्षेत्रों में 54.3 फीसद महिलाओं ने मानसिक स्वास्थ्य संबंधी कठिनाइयों का अनुभव किया, जिनमें बीस फीसद ने गंभीर अवसाद के लक्षण महसूस किए।

शहरी क्षेत्रों में 25-30 फीसद महिलाएं किसी न किसी स्तर पर अवसाद से ग्रस्त

शहरी क्षेत्रों में महिलाएं नौकरी, परिवार और व्यक्तिगत जीवन के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में मानसिक दबाव झेलती हैं। ग्रामीण भारत में मानसिक अवसाद से ग्रस्त महिलाओं की स्थिति और भी जटिल हो जाती है, क्योंकि समय पर उनका सही इलाज नहीं हो पाता। स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, शिक्षा से वंचित रहना, गरीबी और समाज में मानसिक रोगों को लेकर अंधविश्वास इसके मुख्य कारण हैं। अक्सर देखा गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में जब कोई महिला अवसाद या मानसिक तनाव से जूझती है, तो परिवार और गांव के लोग इसे भूत-प्रेत या जादू-टोना का परिणाम मान लेते हैं। ऐसी परिस्थितियों में डाक्टर के बजाय ओझा, तांत्रिक या झाड़-फूंक करने वालों से परामर्श लिया जाता है। कई बार यह अंधविश्वास महिलाओं की स्थिति को और बिगाड़ देता है। कई मामलों में उनकी मौत तक हो जाती है।

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शहरी क्षेत्रों की महिलाओं में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति चिंता का विषय बन रही है। महानगरों और बड़े शहरों में रहने वाली महिलाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौतियां हैं- नौकरी और परिवार के बीच संतुलन, बढ़ती प्रतिस्पर्धा, एकाकीपन, कार्यस्थल पर उत्पीड़न, देर रात तक काम करने की मजबूरी, नींद की कमी और रिश्तों में असुरक्षा। यह सब अवसाद को और गहरा कर देता है। हालिया अध्ययन बताते हैं कि भारत के शहरी क्षेत्रों में 25-30 फीसद महिलाएं किसी न किसी स्तर पर अवसाद से ग्रस्त हैं। इनमें से एक बड़ा हिस्सा बीस से चालीस वर्ष की उम्र के बीच की महिलाओं का है। दरअसल, मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज में अब भी झिझक मौजूद है, जिसके कारण महिलाएं समय पर इलाज नहीं करा पातीं। उनमें अवसाद की समस्या का समाधान केवल दवाओं या परामर्श तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है।

आनलाइन परामर्श और कर्मचारी सहायता कार्यक्रम बहुत प्रभावी

ग्रामीण इलाकों में अवसाद की स्थिति से बाहर निकालने के लिए गांवों में स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन, महिला स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से परामर्श और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को मानसिक स्वास्थ्य की शिक्षा देना आवश्यक है। इसके अलावा, मोबाइल हेल्थ वैन और टेलीमेडिसिन सेवाएं ग्रामीण महिलाओं के लिए लाभकारी हो सकती हैं। शहरी महिलाओं की स्थिति अलग है। वे अपेक्षाकृत अधिक शिक्षित और जागरूक होती हैं, लेकिन करिअर, परिवार और सामाजिक दबाव के बीच संतुलन बनाते-बनाते मानसिक रूप से थक जाती हैं। उनके लिए कार्यस्थलों पर मानसिक स्वास्थ्य अवकाश, आनलाइन परामर्श और कर्मचारी सहायता कार्यक्रम बहुत प्रभावी हो सकते हैं। इसके साथ ही परिवार को भी यह समझने की आवश्यकता है कि महिलाओं की भावनात्मक जरूरतें भी पुरुषों जितनी ही महत्त्वपूर्ण हैं और इसका ध्यान रखा जाना चाहिए।

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महिलाओं में इस समस्या का एक और बड़ा कारण प्रसवोत्तर अवसाद है। इसके समाधान के लिए अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसव के बाद परामर्श की व्यवस्था करनी चाहिए। योग, ध्यान, प्राणायाम और नियमित व्यायाम महिलाओं की मानसिक स्थिति को काफी हद तक संतुलित कर सकते हैं। सरकारी स्तर पर भी कई कदम उठाए जा रहे हैं, जैसे टेली-मानस हेल्पलाइन, मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष योजनाएं और राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम। अवसाद से निपटने के लिए केवल चिकित्सकीय इलाज ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि समाज, परिवार तथा सरकार को मिल कर ऐसा माहौल बनाना होगा, जहां महिलाएं बिना डर और संकोच के अपने मानसिक स्वास्थ्य पर बात कर सकें। इससे वे अधिक आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी और स्वस्थ जीवन जी पाएंगी। हम सभी को मिल कर महिलाओं के लिए स्वस्थ, सुरक्षित और सामंजस्य के माहौल का निर्माण करना होगा। समाज और परिवार के स्तर पर संतुलन बनाने में उनका सहयोग करना होगा, तभी देश और समाज आगे बढ़ पाएंगे।