घरौंदों की तलाश में करोड़ों लोग इधर से उधर भटकते रहते हैं, वर्षों तक संघर्ष करते हैं, तब जाकर कहीं उन्हें एक छोटा-सा घर मिलता है। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि वह छोटा घर भी उन्हें नसीब नहीं होता। अपने घर में रहने का सुख अलग और खास होता है। जब आदमी किराए के मकान को छोड़ कर अपने मकान में रहने जाता है, तो उसे ऐसा लगता है कि आज ही वह अपने जीवन में स्वतंत्र हुआ है।
हालांकि यह भी सच है कि छोटे से लेकर बड़े शहरों के हजारों बाशिंदे किराए के मकान को ही अपना घरौंदा बनाकर रह रहे हैं। उन्हें कभी मजबूरी में तो कभी नौकरी और अपने काम के लिए किराए के मकान में रहना पड़ता है। इस सबके बीच इसमें कोई दोराय नहीं कि आवास एक बहुत बड़ी समस्या है, जिसका निराकरण होना आवश्यक है। मगर आर्थिक जटिलताओं के और घनीभूत होने के दौर में क्या अपना घर होने का सवाल इतना आसान रह गया है?
अपने घर का सपना क्यों बन गया है मुश्किल?
अपने घर का सपना हर आदमी हर रोज देखता है। यह जीवन के कुछ मूलभूत उद्देश्यों में शामिल होता है। संघर्ष करते-करते दो कमरों की आस में कभी-कभी व्यक्ति जीवन की संध्या तक पहुंच जाता है, लेकिन अपना मकान नसीब की ही बात हो जाती है।
आज शहर कंक्रीट के जंगल बन गए, लेकिन आवास एक समस्या बनकर उभरी है। किराएदार होने का दर्द हो या सड़क पर सोने का संकट, समस्या दोनों ही रूप में काफी गंभीर है। टपकती छतें, मकान मालिक के ताने या फिर बार-बार मकान बदलने का झंझट आदि, संकट में सिर्फ आम आदमी पिसता है। सरकारों ने समय-समय पर कम कीमतों पर आवासीय कालोनियां बसाने का दावा किया है, लेकिन सच यह है कि कई बार यह भी आम आदमी की पहुंच से बाहर ही रहा है। सरकार की ओर से पहुंच वाली कीमत पर आवास उपलब्ध कराने की बात तो कही जाती है, लेकिन संसाधनों के साथ-साथ आवासों की सीमित उपलब्धता ने इस संकट को बरकरार रखा है।
दिल्ली, मुंबई जैसे महानगर में मकान लेना मध्यम वर्ग के लिए अब कल्पना होती जा रही है। सरकार की ओर से जरूरतमंदों को आवास मुहैया कराने की योजना के जरिए शहर और ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की दिक्कतों को कुछ कम करने की कोशिश हो रही है और उसे महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।
इस योजना में झुग्गी-झोपड़ी वालों को भी शामिल किया गया। इसके अंतर्गत कमजोर वर्ग के लोगों, निम्न आय वर्ग और मध्यम वर्ग के लोगों को आवास उपलब्ध कराने के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों के उन लोगों को भी शामिल किया गया, जिनके पास आवास नहीं है या कच्चे मकान हैं। मगर हकीकत यह है कि इन कवायदों के बावजूद आज भी बहुत सारे लोग सिर्फ अपने घर का सपना देखने तक सीमित हैं।
वक्त के साथ सब कुछ महंगा होते जाने और आय में कमी के साथ-साथ घर बनाना बहुत मुश्किल साबित हो रहा है। बड़े रिहाइशी परिसरों या बहुमंजिला इमारतों में फ्लैट या छोटे से छोटे घरों की कीमत अब लोगों की पहुंच से दूर होती जा रही है। ऐसे में गरीब आदमी की आर्थिक क्षमता उसे यह सपना देखने से भी वंचित करती है कि वह कहीं घर बना ले। जहां दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो रहा हो, वहां अपना घर लेना वाकई असंभव दिखता है।
इसके लिए हमारी सरकारों को कोई सुचिंतित पहल करनी होगी, न केवल अपने स्तर पर, बल्कि जमीन-जायदाद की कीमतों पर भी नियंत्रण रखना होगा। व्यक्ति तभी सुकून से जीवन जी सकता है, जब उसका स्वाभिमान बरकरार रहे। यह हमारे समाज की जिम्मेदारी भी है कि व्यक्ति स्वाभिमान के साथ जिए। अगर व्यक्ति किराएदार के तौर पर रह रहा है तो उसके अधिकारों और सम्मान का पूरा ध्यान रखना कई बार व्यक्तिगत स्तर पर इस आवासीय तनाव को कम कर सकता है।
इसके अलावा, मकानों के निर्माण से संबंधित सामग्री जैसे सीमेंट, बजरी, ईंटों से लेकर मजदूरी तक सभी चीजों की कीमतें निर्धारित होनी चाहिए। उनमें बेतहाशा बढ़ोतरी की स्थिति को नियंत्रित किया जाना चाहिए। निर्माण सामग्री की मनमानी कीमतें घर बनाने के आम आदमी के हौसले को पस्त कर देती हैं। साथ में समाज के समर्थ लोग अगर खुद को सक्षम पाएं, तो वे एक या दो परिवारों के लिए घर की छत का इंतजाम कर सकते हैं। यह बहुत नेक काम होगा। उनके ऐसा करने से धीरे-धीरे बहुत से लोग आगे आएंगे और इस समस्या को हल करने में मदद कर पाएंगे।
चाहे वह सड़क पर सो रहा आदमी हो या किराए की छत के नीचे आस लगाए बैठा व्यक्ति, दोनों ही परिस्थितिवश मजबूर हैं, लेकिन उनको मजबूत बनाकर समाज उनको एक आधारशिला प्रदान कर सकता है। ऐसा सुनिश्चित करके बहुत सारे जरूरतमंद लोगों की रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकता पूरी की जा सकती हैं। हमारा देश लोकतांत्रिक और कल्याणकारी विचारधारा पर आधारित है, तो उसके जरूरतमंद नागरिकों के पास सम्मान से जीने के लिए एक घर हो तो इससे आखिरकार बेहतर भविष्य का ही निर्माण होगा।