भारत में कच्चे कपास के आयात पर पहले पांच फीसद मूल सीमा शुल्क, पांच फीसद कृषि अवसंरचना और विकास उपकर तथा इन दोनों पर दस फीसद सामाजिक कल्याण अधिभार, यानी कुल मिलाकर ग्यारह फीसद का सीमा शुल्क लगता था।
फरवरी, 2021 में किसान आंदोलन के बाद देश के कपास किसानों के हित को ध्यान में रख कर यह शुल्क लगाया गया था। मगर अब सरकार ने कपड़ा उद्योग की मांग पर कच्चे कपास के आयात पर सभी सीमा शुल्क में 19 अगस्त, 2025 से छूट दे दी है।
इस फैसले की सराहना देश के कपड़ा उद्योग ने तो की ही, अमेरिकी कृषि विभाग ने भी बाकायदा बयान जारी करके इसे महत्त्वपूर्ण कदम बताया और कहा कि इससे अमेरिकी कपास का भारत में निर्यात बढ़ेगा। इस निर्णय से भले ही अमेरिका को फायदा हो, लेकिन देश के किसान इससे आहत हैं।
‘ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव’ (जीटीआरआइ) के मुताबिक, आयात शुल्क में इस छूट का सबसे बड़ा लाभ निश्चित तौर पर अमेरिका को ही होने वाला है। भारत को कपास निर्यात करने वाला अमेरिका सबसे बड़ा देश है, और वहा कपास की नई फसल बाजार में जुलाई-अगस्त से आनी शुरू हो जाती है।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आयात शुल्क उस वक्त खत्म किया गया, जब भारतीय किसानों के कपास की नई उपज बाजार में आने ही वाली थी। देश में कपास की फसल अक्तूबर से सितंबर तक होती है। इसी दौरान किसानों को कपास के अच्छे दाम मिलने की उम्मीद होती है। अब विदेश से बड़े पैमाने पर कपास आने से घरेलू कपास की कीमतें गिर जाएंगी।
सीमा शुल्क में छूट की अधिसूचना जारी होने के दिन भारतीय कपास निगम यानी ‘काटन कार्पोरेशन आफ इंडिया’ (सीसीआइ) ने कपास की कीमत 600 रुपए प्रति कैंडी (एक कैंडी- 356 किग्रा) कम कर दी और उसके दूसरे दिन फिर 500 रुपए प्रति कैंडी कम कर दी। इस तरह महज दस दिनों के भीतर ही कपास के न्यूनतम मूल्य में कुल 1700 रुपए प्रति कैंडी की कमी खुद सरकार की ओर से की गई।
अमेरिका कपास उत्पादन में तीसरे स्थान पर
अमेरिका की बात की जाए, तो कपास उत्पादन में वह दुनिया में तीसरे स्थान पर है, लेकिन इसकी घरेलू खपत वहां बहुत कम है। कुल उत्पादन का लगभग 85 फीसद कपास वह निर्यात करता है। पहले अमेरिकी कपास का सबसे बड़ा आयातक चीन था, लेकिन डोनाल्ड ट्रंप की शुल्क नीति के कारण चीन वहां से कपास का आयात कम करता जा रहा है। इसलिए अमेरिका को एक वैकल्पिक बाजार की तलाश थी, जो उसे भारत में नजर आ रहा है।
हालांकि, भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक देश है और यहां घरेलू खपत कुल उत्पादन का औसतन 95 फीसद है। मगर यहां उच्च गुणवत्ता वाले या ज्यादा लंबे रेशे वाले कपास (ईएलएस) की पैदावार कम होती है और उसकी जरूरत को आयात के जरिए पूरा किया जाता है।
अमेरिकी कृषि व्यापार निकाय काटन काउंसिल इंटरनेशनल (सीसीआइ) तो इस शुल्क को हटाने की मांग लंबे समय से कर रहा था। दरअसल, उच्च गुणवत्ता वाले या अति लंबे रेशे के कपास के आयात पर से ग्यारह फीसद शुल्क सरकार ने 20 फरवरी, 2024 से समाप्त कर दिया है, लेकिन इससे छोटे रेशे के कपास आयात पर शुल्क जारी था, जिसे इस वर्ष अगस्त में खत्म किया गया।
इस कदम से सरकार अमेरिकी शुल्क की मार से भारतीय वस्त्र निर्यातकों के मुनाफे को तो कुछ हद तक सुरक्षित कर लेगी, लेकिन इसका खमियाजा देश के किसानों को भुगतना पड़ेगा। खासकर तब जब किसानों की आय दोगुनी करने का जोर-शोर से दावा किया जा रहा है।
कपास किसानों का जिक्र करना सरकार भूल गई
कपास से सीमा शुल्क हटाने को लेकर जारी बयान में कपड़ा निर्माताओं और उपभोक्ताओं के हितों की बात तो कही गई थी, लेकिन कपास किसानों का जिक्र करना सरकार भूल गई। दूसरी बार जारी बयान में कहा गया कि भारतीय कपास निगम लिमिटेड द्वारा संचालित न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था के माध्यम से किसानों के हितों की रक्षा की जाती है, जो यह सुनिश्चित करती है कि किसानों को उनकी उत्पादन लागत से कम से कम पचास फीसद अधिक मूल्य प्राप्त हो।
न्यूनतम समर्थन मूल्य किसान की उपज का वह मूल्य है, जिसका निर्धारण सरकार इसलिए करती है कि किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिल सके और इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार किसानों से कपास खुद खरीदती है। अब यहां दो बाते हैं: पहली यह कि सरकार कपास का न्यूनतम समर्थन मूल्य कितना तय करती है और दूसरी यह कि इस मूल्य पर सरकार किसानों से कितना कपास खरीदती है!
सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण ए-2 एफएल फार्मूले के आधार पर करती है। इसके अनुसार, मध्यम रेशे के कपास का न्यूनतम समर्थन मूल्य वर्ष 2024-25 के लिए 7,121 रुपए प्रति कुंतल निर्धारित किया गया है। मगर किसान संगठनों की मांग है कि यह सी-2 फार्मूले के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए, जिसके अनुसार यह मूल्य 10,075 रुपए प्रति कुंतल होना चाहिए। मालूम हो कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण के लिए सी-2 का फार्मूला डा एमएस स्वामीनाथन ने सुझाया था।
99 फीसद खरीफ फसल के रूप में होती है कपास की खेती
भारत में कपास की खेती मुख्यत: लगभग 99 फीसद खरीफ फसल के रूप में होती है, जबकि तमिलनाडु और उसके आसपास के दूसरे राज्यों के कुछ हिस्सों में यह रबी की फसल है। भारत में लगभग साठ लाख किसान परिवार कपास की खेती से अपनी आजीविका चलाते हैं। इसके अतिरिक्त 4-5 करोड़ दूसरे लोग भी इसके व्यापार से जुड़े हैं।
यहां पिछले वर्ष कुल 114.47 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन पर कपास की खेती की गई, जो पूरी दुनिया में कपास की खेती के रकबे 314.79 लाख हेक्टेयर का 36.36 फीसद है। रकबे के लिहाज से भारत पूरी दुनिया में पहले स्थान पर है और उत्पादन के मामले में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। मगर यहां प्रति हेक्टेयर कपास की पैदावार (437 किग्रा प्रति हेक्टेयर) विश्व की औसत पैदावार (833 किग्रा प्रति हेक्टेयर) से काफी कम है।
पिछले दस वर्षों में सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कपास की खरीद पर कुल 1,17,348.13 करोड़ खर्च किए। यह एक निवेश की तरह है, सीसीआइ किसानों से कपास खरीद कर इसे बाजार में बेचती है। मगर किसानों की आर्थिक स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है।
इस साल के पहले तीन माह में महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के करीब 767 किसानों ने आत्महत्या कर ली। बीते दशक में कपास का कुल उत्पादन 3370.72 लाख गांठें (एक गांठ-170 किग्रा) रहा और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कुल खरीद मात्र 380.58 लाख गांठें।
इस तरह कपास का प्रति वर्ष औसत उत्पादन रहा 337 गांठें और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद केवल 38 गांठें। यानी कुल उपज का मात्र 11.27 फीसद कपास ही सरकार की ओर से खरीदा गया। यही नहीं, प्रति वर्ष कपास की खेती करने वाले लगभग साठ लाख किसानों में से केवल 7.88 लाख किसानों से ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कपास की खरीददारी की गई। इन हालात में किसानों के हित की रक्षा कैसे होगी?
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