यह मनुष्य का स्वभाव है कि उसके लिए पद, पैसा और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की चाहत का अंतिम छोर कहीं नहीं होता। आमतौर पर जमाने भर की उठापटक इसी सोच के तहत चलती रहती है कि जो कुछ प्राप्त है, वह अपर्याप्त है। दरअसल, ‘जितना मिल सका है, उससे और ज्यादा’ के चक्र में आदमी कभी-कभी इस कदर उलझ जाता है कि फिर उसके लिए नैतिक और अनैतिक में भेद करना जरूरी नहीं रह जाता। मन की चाहत के अनुरूप सब कुछ हासिल करने का ही भाव मन में बना रहता है। चाहे इसके एवज में मान-सम्मान ही दांव पर क्यों न लग जाए। इस संदर्भ में यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि कहीं-कहीं ऐसी मानसिकता के भी दर्शन होते हैं कि पद है, पैसा है, तो प्रतिष्ठा तो उसके संग दौड़ी-दौड़ी चली आएगी।

दरअसल, हम अपने आसपास के परिवेश पर ही दृष्टिपात करें, तो काफी हद तक ऐसी मानसिकता के उदाहरण देखने को मिल सकते हैं। आमतौर पर ऐसी शख्सियत राजनीतिक, व्यावसायिक या सामाजिक कवच धारण किए हुए होती है। यही कारण है कि फिर इनके सामने कभी-कभी कानून की पकड़ भी ढीली पड़ जाती है। यह वर्ग बदनामी में भी ‘नाम’ को लेकर आश्वस्त हो सकता है। अलग-अलग क्षेत्र के विभिन्न माफियाओं की ताकत का अंदाजा लगभग सभी को है। वास्तव में पद और पैसे की प्राप्ति राजनीतिक या सामाजिक पहुंच के आधार पर होने लगी है। धन कुबेर व्यापारिक वर्ग भी तमाम तरह की व्यवस्थाओं को अपनी अंगुली पर नचाने का माद्दा रखने लगा है।

देखते ही देखते राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्थाएं भी तीव्र गति से अर्थ प्रधान होती चली जा रही है। हालांकि धर्म, ध्यान के प्रति समर्पित भाव भी उफान पर दिखाई देता है। विभिन्न धार्मिक समागम में बड़ी संख्या में भक्तों का जमावड़ा भी देखा जा सकता है, धर्म के मर्म को समझ कर उसके अनुरूप आचरण और व्यवहार अपेक्षाकृत कम ही दिखाई देता है। सब कुछ बाहरी तौर पर ही संपन्न होता दिख रहा है। तमाम तरह के आडंबर और ‘शक्ति परीक्षण’ के दृश्य दिखाई देने लगे हैं। परमात्मा के प्रति अगाध भक्तिभाव के प्रदर्शन का पैमाना भी काफी हद तक आर्थिक होने लगा है। इसके चलते धर्म जगत में भी ‘वीआइपी कल्चर’ यानी अति-महत्त्वपूर्ण लोगों को तरजीह देने का चलन देखने को मिल सकता है।

सामाजिक परिवेश में देखते ही देखते तमाम तरह के अपराधों की लगातार बाढ़-सी आती जा रही है। कानून की पकड़ को कानून से कमजोर करने का सिलसिला भी लगातार परवान चढ़ता जा रहा है। हर तरफ तथाकथित तरक्की की दौड़ में लगभग हर कोई शामिल है। जैसे-जैसे इंसान अपनी जिंदगी के किनारे लगता जाता है, वैसे-वैसे मन की चाहत का सिलसिला भी लगातार विस्तार पाता जाता है। वैसे यह जरूर है कि हर क्षेत्र में तरक्की की कामना सभी को होती है, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि हर आती-जाती सांस हमारे जीवन का क्षरण करती जा रही है। विडंबना है कि हम इस दिशा में जानकर भी अनजान बनते हैं। एक प्रकार से बहुत ही भ्रम की स्थिति में हम खड़े हैं।

एक जमाने में ‘आंख में शर्म’ कुछ इस कदर होती थी कि जहां कहीं कोई विवाद तूल पकड़ लेता, हिंसक उपद्रव होने लगता, भारी मात्रा में हथियारों का उपयोग कर प्रतिस्पर्धी को ठिकाने लगाने की तैयारी होती, ऐसे माहौल में अगर कोई संभ्रांत शख्सियत सड़क पर उतर आती, तो कई बार देखते ही देखते केवल आंख में शर्म के चलते बहुत सारे उपद्रवी एकदम शांत हो जाते। प्रतिष्ठित लोगों को अपना पंच बनाकर बड़े से बड़े विवाद सुलझाया जा सकता था। दरअसल, एक दौर में प्रतिष्ठित लोग वास्तव में प्रतिष्ठित होते थे। जन-जन के अंतर्मन में प्रतिष्ठित व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा को लेकर गहरा सम्मान हुआ करता था। कई बार ‘शर्म और लिहाज’ से ही बिगड़ी कानून और व्यवस्था नियंत्रित हो जाती थी।

आज के परिदृश्य में आखिरकार क्या सही है और क्या गलत, इसके निर्धारण की कसौटी ही खोटी सिद्ध होने लगी है। ऐसी स्थिति में अंतरात्मा के सुकून के लिए आखिर आदमी कहां जाए, क्या करे? इस संदर्भ में सोचते और विचारते हुए संसार की वास्तविक स्थिति का आकलन करना आसान नहीं है। निश्चित रूप से हम अंतरात्मा में सुकून की दिव्य अनुभूति करना चाहते हैं, तो हमें पद, पैसे और प्रतिष्ठा की चाहत के भाव को तिलांजलि देनी होगी। वैसे भी सच्चे सुख की तलाश में कहीं और भटकने की कहीं कोई आवश्यकता नहीं होती है। आखिर हमें जीवन में कितना कुछ चाहिए होता है? संसार में जो भी आया है, खाली हाथ आया है और खाली हाथ जाना है। फिर परिग्रह के प्रति ऐसा अदम्य आग्रह क्यों?

आजकल तो यह प्रवृत्ति और ज्यादा बढ़ती जा रही है कि जिसके पास ज्यादा धन है, वह उसमें तेज रफ्तार से बढ़ोतरी करने के लिए हर तरह के उचित-अनुचित तरीके अपनाने में नहीं हिचकता। ऐसा लगता है कि उसे धन या संपत्ति के किसी खास स्तर को प्राप्त करना है और उसके बाद उसके जीवन को अभयदान मिल जाएगा। सवाल है कि इस होड़ में क्या समाज और दुनिया का बहुत बड़ा तबका पीछे नहीं छूट रहा है, जिसके जीवन की सुरक्षा और सहजता को लेकर कहीं भी फिक्र नहीं देखी जा रही है।