कला का रिश्ता संगीत से है और विध्वंस का शोर से। और जब त्योहारों और पारिवारिक उत्सवों में संगीत के स्थान पर शोर कब्जा कर ले, तब इसमें क्या शक रह जाता है कि कला के ऊपर विध्वंस हावी हो चुका है। हमारे आसपास और दूरदराज की दुनिया इसका उदाहरण बन चुकी है।
पिछले चार दशकों के दौरान यह दुनिया तेजी से बदली है। मनुष्य ने अपने जीवन से कलात्मक संघर्ष के सारे अवसर समाप्त कर दिए हैं। दिवाली के दीये पूरी रात नहीं जलते रह सकते थे। उनका होना अंधेरे के प्रतीकात्मक रूप से जूझ कर दिखाना भर था। उस रोशनी में एक सुकून से भरा एक आनंद था, लेकिन स्वीकार्यता भी थी। यह स्वीकार्यता कहती थी कि हार मानना भी नहीं है और हार को पचा जाना भी सीखना है।
मनुष्य के भीतर का यह बोध उसे एक तरफ तो अहंकार से बचाता था और दूसरी ओर उसी अंधेरे की बांह में सिमटकर चैन की नींद सो जाना भी सिखाता था। मनुष्य अंधेरे से जितना डरता और घबराता था, उतने भर की रोशनी भी जुगाड़ कर लेता था, लेकिन कालांतर में उसने अंधेरे को जीत लेने का प्रण ठान लिया।
दिवाली और आसपास के सब त्योहार बीत जाने पर भी बिजली की लड़ियां बालकनी में लटकी दिप-दिप करती दिख जाती हैं। कई जगहों पर भयानक विराट उजाले में भी उन्हें न जाने किससे लड़ने को छोड़ा गया है। कभी एक कतरा अंधेरा किसी कोने से दबा-छिपा गुजरता भी होगा, तो व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ कहता होगा कि ‘रहो भाई, तुम्हीं रहो, हम तो चले पाताल’। मनुष्य शायद भूल गया कि जिसे जीतना था, वह तो अपने भीतर का भय, आतंक और अहंकार रूपी अंधेरा था, लेकिन वह तो उल्टे कई-कई गुना बढ़ गया।
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हुआ यह कि बाहर का भौतिक अंधेरा धरती और आसमान दोनों से मिट गया। जिस चांद और तारों से भरे आसमान को देखकर मनुष्य के भीतर कलात्मकता का सागर उमड़ता था, अब वह आसमान धूल में नहाया हुआ और कई बार खीझा हुआ दिखाई पड़ता है।
पवित्र हिमालय की श्वेत चादर हमारे कीचड़ सने पैरों से मैली हो चुकी है। आसमान भी कुछ ऐसी ही कीचड़ से भरी टूटी-फूटी गली जैसा दिखाई देता है। यों भी, उधर अब देखता ही कौन है? क्या हम रोशनी का अनुपात भूल गए? आखिर कितनी रोशनी चाहिए हमें जिंदा रहने के लिए? क्या उसकी कोई सीमा नहीं?
इतनी रोशनी बढ़ गई है कि अब वह वक्त दूर नहीं जब लोग, खासकर शहरों में रहने वाले लोग, अंधकार के अधिकार के लिए कोर्ट-कचहरी करते नजर आएंगे। यह एक कल्पनात्मक स्थिति है, लेकिन प्रकृति के उतार-चढ़ावों को समझने लिए किसी सिरे की तो जरूरत होगी!
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इस अपार रोशनी के शोर ने हमारी चेतना को बहरा कर दिया है। क्या हमने कभी उन पार्टियों में शिरकत की है, जहां नीम अंधेरे में संगीत का भयानक शोर मानव शरीर को कंपायमान कर देता है? गजब बात यह कि इसे भी संगीत कहा जाता है, लेकिन हर वह चीज जिसमें गति और लय होती है, क्या वह मनुष्य के जीवन के लिए कल्याणकारी है?
अगर ऐसा है तो क्या हम शिव के तांडव की कामना करना चाहेंगे? नहीं, क्योंकि वह संगीत विध्वंस और संहार का है। वह मनुष्य के लिए नहीं।
हर व्यक्ति यह समझने के लिए मनोवैज्ञानिक नहीं हो सकता, लेकिन बारूद से उपजते शोर और प्रकाश को मनुष्य ने कब और कैसे अपने उत्सव और आनंद से जोड़ लिया, यह मनोवैज्ञानिक शोध का विषय है। हमारे पूर्वजों ने उत्सवों को नृत्य और संगीत से जोड़ा, कलात्मक सृजन से जोड़कर भूमि और भित्तियों को सजाने से जोड़ा, अन्न और अग्नि के संबंध को बनाकर सुस्वादु रसों की निष्पत्ति से जोड़ा, मन और शरीर दोनों के शुद्धिकरण और सौंदर्यीकरण से जोड़ा, एक दूसरे के प्रति क्षमाभाव से जोड़कर सामाजिकता को मजबूत करने से जोड़ा!
और आज हम उत्सव की सात्विकता को शोर और चकाचौंध के किस दलदल में धकेल आए हैं, जहां या तो मानवीय सौंदर्यबोध का विनाश है या फिर सामाजिक दायित्वबोध का। क्या अब हमने उत्सव के दिनों में स्वार्थ और बेवकूफी की पट्टी नहीं बांध ली है और ऊपर से वह शोर भी हावी कर लिया है, जहां किसी जीव की आंखों में जलता हुआ धुआं भी देखने के लिए हम अयोग्य साबित हो चुके हैं।
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उत्सवों को हमने शोषण और दोहन का अवसर बना दिया है। ये सामाजिक हाशियाकरण के औजार बन गए हैं। प्रदर्शन और अहंकार इसके नए स्थापित आयाम हैं। अपार शोर और बाजार के विराट स्वरूप के नीचे, बल्कि बहुत नीचे संवेदना, कलात्मकता और आनंद की धारा लुप्त हो गई है।
इस त्रिवेणी पर उत्सव का आयोजन तो बड़ा भारी है, लेकिन जल की एक बूंद भी नहीं है। आज कबीर होते, तो इस बात पर रो देते। वे अपनी जलती हुई लुकाठी लेकर इन मुर्दों की भीड़ को खदेड़ देते और अपने हाथों से त्रिवेणी की मिट्टी को तब तक कुरदते, जब तक उन्हें वहां सोई हुई सरिता नहीं मिल जाती।
वे इस उत्सव की त्रिवेणी को फिर से चांदी से चमकते जल से भर देते, जिसमें मनुष्य अपना मुख धोकर चैतन्य हो पाता। तो कबीर कहां हैं? क्या हम सबको अपने भीतर झांक कर नहीं देखना चाहिए!
