शब्द केवल वर्णों का मेल या ध्वनियों का उच्चारण नहीं, बल्कि संवेदनाओं की धड़कन भी होते हैं। ये समंदर की लहरों की तरह होते हैं। कुछ सहलाते हैं, शांति और सुकून देते हैं और वहीं कुछ आत्मा की तलहटी पर जाकर घाव कर देते हैं। कुछ का भाव आंसुओं से भी अधिक नम होता है और कुछ का चीखों से भी अधिक तीखा। जब कोई शब्द बार-बार दोहराया जाता है और सहज इस्तेमाल होने लगता है, तो उसका असर धुंधला पड़ने लगता है। अर्थ तो वही रहता है, पर भाव फीका पड़ जाता है।
यही हुआ कुछ शब्दों के साथ जो कभी समाज की रगों में सिहरन भर देते थे और आत्मा को खरोंच देते थे। जैसे बलात्कार, हत्या, जनसंहार, आत्महत्या, भीड़-हत्या, दहेज हत्या, बाल शोषण, मानव तस्करी, आतंकवाद, अपहरण आदि। अब ये शब्द खबरों और बातचीत में तो गूंजते हैं, पर आत्मा तक नहीं पहुंचते। मानो इनके प्रति हमारी संवेदना अब शोर में बदल गई है और शब्दों की पीड़ा अक्षरों में सिमटने लगी है।
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कुछ खौफनाक शब्दों के हम इतने आदी हो गए हैं कि इन्हें बोलते हुए अब गला नहीं रुंधता, रूह नहीं कांपती और इन्हें बोलते समय हम जरा भी नहीं हिचकिचाते। संवादों में, घरों, दोस्तों की महफिल में और यहां तक कि बच्चों के सामने भी ये शब्द इतने सहजता से निकल जाते हैं, मानो ये कोई साधारण रोजमर्रा के जुमले हों। अब इनका भय हमारी सहजता में विलीन होने लगा है।
हम भूलते जा रहे हैं कि ये शब्द मानवता के ताजे जख्मों को इंगित करते हैं। ये किसी भाषण और बातचीत की अलंकारिक शोभा नहीं, बल्कि सभ्यता की त्रासदी के कड़वे सत्य हैं। हम क्यों भूल रहे हैं ‘बलात्कार’ शब्द में एक स्त्री की टूटी हुई आत्मा का मौन विलाप है… ‘हत्या’ में एक परिवार की बुझी हुई आशाओं का अंधेरा है… ‘जनसंहार’ में मासूमों की सामूहिक लाशों की निशब्द चीखें हैं… ‘दहेज हत्या’ में वह आग है जो घर की चौखट पर ही बेटी का जीवन निगल जाती है… ‘बाल शोषण’ में लुटे हुए बचपन की किलकारियां दफन हैं… ‘मानव तस्करी’ में बिके हुए सपनों और छिनी हुई आजादी की दास्तान है और ‘आतंकवाद’ में लहूलुहान जमीन और बिखरी हुई चीखों का आतंक है।
इन शब्दों का उच्चारण किसी चेतावनी की घंटी की तरह होना चाहिए, जो भीतर तक झकझोर दे और हमें रुककर सोचने पर मजबूर करे। इन्हें सुनते ही मनुष्य को अपनी सभ्यता पर प्रश्नचिह्न दिखना चाहिए और आत्मा को मानो किसी भारी बोझ तले दब जाना चाहिए। पर अफसोस यह है कि हम इन्हें उसी सहजता से ग्रहण करने लगे हैं, जैसे कोई रोजमर्रा की खबर। इन शब्दों को इतना साधारण बना दिया गया है कि अब इनमें न भय शेष रहा, न पीड़ा, न शर्म। बिना गंभीरता के जैसे चाहा बोल दिया। गौरतलब है कि जब शब्दों का दर्द हमारे दिलों से उतर जाता है और उनका उच्चारण हमें शर्मिंदा नहीं करता, तब करुणा मर जाती है। और जब करुणा मर जाती है, तो समाज केवल भीड़ में बदल जाता है।
एक ऐसी भीड़, जो देखती है, सुनती है, जानती है, पर भीतर से विचलित नहीं होती। यही मानवता के पतन की शुरुआत है, क्योंकि शब्दों की संवेदना ही सभ्यता की अंतिम सांस होती है। अगर शब्द न कांपें, तो आत्मा भी धीरे-धीरे पत्थर में बदल जाती है। जब ऐसे हृदय विदारक शब्द मासूम कानों तक बिना किसी संवेदनात्मक भार के पहुंचते हैं, तो उनकी आत्मा के भीतर संवेदना का पहला अंकुर ही कुचल जाता है। यह सामान्यीकरण केवल शब्दों के भावों का पतन नहीं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के हृदय से करुणा और लज्जा के लोप का बीज बोता है।
हृदय को छलनी कर देने वाले शब्दों का सामान्यीकरण समाज को मनोवैज्ञानिक रूप से भी प्रभावित करता है। इन शब्दों का दो टूक दोहराव अवचेतन में अपनी तीव्रता खो देते हैं और अपराध धीरे-धीरे हमारे सामूहिक मानस में एक ‘स्वीकृत यथार्थ’ बन जाता है। इससे अपराध को बढ़ने से रोकने वाली अंतिम दीवार ढह जाती है और अपराधी के भीतर से भी भय का बोध मिटने लगता है। दरअसल, जहां संवेदना मरी हो, वहां अपराध को अंकुरित होने के लिए अनुकूल भूमि मिल जाती है।
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आज बहुत सारे लोग ऐसे दिख जाएंगे, जिनके लिए बोले गए शब्दों से पहले कुछ सोचना जरूरी नहीं लगता, लेकिन वे कई बार ऐसा कुछ बोल जाते हैं, जिससे न केवल किसी एक व्यक्ति को चोट पहुंचती है, बल्कि शब्दों से जुड़ा वह व्यवहार सामाजिक व्यवहार का एक पैमाना और उदाहरण रच देता है। इसके बाद इस तरह के व्यवहार को चलन बनते और किसी के खिलाफ अघोषित हथियार बनते देखा जा सकता है। यह सिर्फ इसलिए हो पाता है कि बोले या इस्तेमाल में लाए गए शब्दों की संवेदना की समझना हमारे लिए जरूरी नहीं लगता। इसलिए आज समाज की सबसे बड़ी आवश्यकता है हृदय विदारक शब्दों की संवेदनशीलता को बनाए रखा जाए।
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शिक्षा, साहित्य और घर-परिवार में इन शब्दों का प्रयोग हर हाल में और हर स्तर पर पूरी संवेदनशीलता के साथ केवल अत्यंत आवश्यक होने पर ही होना चाहिए, ताकि उनका मूल्य, उनका अर्थ और उनकी गूढ़ता बनी रहे। इनके उच्चारण में संबंधित अपराधियों के प्रति घृणा, क्रोध और सामाजिक बहिष्कार की भावना इतनी तीव्र हो कि वह अपराधियों के मन में भय पैदा करे और ऐसे कृत्य करने का खयाल आने से पहले मोटी दीवार खड़ी हो जाए। जब शब्द कांपेंगे, तब चेतना जागेगी। जब चेतना जागेगी, तभी मानवता की रक्षा संभव होगी।
