हम बच्चों को गिनती सिखाते हैं, वर्णमाला सिखाते हैं, विज्ञान के नियम और अंग्रेजी के शब्द रटवाते हैं। हम उन्हें मोबाइल चलाना सिखा देते हैं। इसके बाद उन्हें बैंक से जुड़ी गतिविधियों के लिए एप डाउनलोड करना आ जाता है, कैलकुलेटर पर बड़ी से बड़ी गणना करने में वे माहिर हो जाते हैं। वे सोशल मीडिया के सभी मुख्य मुद्दों के बारे में जानते हैं। वे एक क्लिक में फोटो को संपादित करके उसे अपने मन के मुताबिक बना सकते हैं, आनलाइन आवेदन भर सकते हैं।
मगर क्या कभी हमने उन्हें खुश रहना सिखाया है या उन्होंने कहीं से सीखा है? या फिर खुशी की किसी अंधेरी दुनिया में गुम हो रहे हैं? क्या हमने उन्हें यह बताया है कि दुख को स्वीकार कैसे किया जाता है या हार को अपमान नहीं समझा जाता? हर दिन जीत का दिन नहीं होता, लेकिन हर दिन जीने लायक हो सकता है? अगर मन का मौसम बदला-बदला हो, तो भी जिंदगी को पकड़े रहना जरूरी है। हमारी शिक्षा और परवरिश, हमारे सारे संसाधन आज इस बात पर केंद्रित हैं कि बच्चा सफल हो, श्रेष्ठ बने, तेज दौड़े, दुनिया से आगे निकले। मगर कोई यह नहीं सिखाता कि अगर कभी थक जाओ, तो रुक जाना भी ठीक है, अगर मन उदास हो, तो चुप बैठना भी चलता है और सबसे जरूरी- बिना किसी उपलब्धि के भी खुश रहना एक कला है।
आज की पीढ़ी भीतर से अक्सर रहती है खाली
आज की पीढ़ी सब कुछ जानती है, लेकिन भीतर से अक्सर खाली है। उनके पास ब्रांडेड कपड़ों से भरी अलमारियां हैं, कमरे में सजावटी रोशनी और स्मार्ट स्क्रीन हैं, लेकिन चेहरों पर मुस्कान सिर्फ तस्वीरों के लिए होती है। जो हंसी पहले गली में दौड़ते हुए फूटती थी, वह अब फिल्टर लगाकर सोशल मीडिया पर चिपकाई जाती है। बच्चों के पास अब हर जानकारी है, लेकिन जीवन की समझ नहीं। वे क्या चाहते हैं, यह तय करने से पहले ही उन्हें बता दिया जाता है कि उन्हें क्या बनना है। उनका बचपन ‘करियर बनाने’ की दौड़ में बहुत जल्दी बड़ा हो जाता है। उनके चेहरे पर चिंता है, आंखों में थकान है, और होठों पर ‘सब ठीक है’ का नकाब। जब कोई पूछता है- ‘कैसे हो?’ तो उत्तर आता है- ‘ठीक हूं’। इस ‘ठीक’ के पीछे कितना अस्वस्थ होना, कितनी उलझन, कितना अकेलापन छिपा है, यह किसी को नहीं दिखता।
हर शहर की अपनी होती है अलग तासीर, हमारे भीतर की संवदेना से जुड़ जाते हैं इसके तार
हमने बच्चों से ‘अच्छा’ बनना तो मांगा, लेकिन उन्हें यह कभी नहीं बताया कि अच्छा दिखने की नहीं, अच्छा महसूस करने की जरूरत होती है। यह महसूस करना तब आता है, जब हम भीतर से सहज हों। जीवन में सुख-दुख साथ-साथ चलते हैं, पर हमने उन्हें सिर्फ सफलता का पाठ पढ़ाया। अब जरा-सी असफलता मिलते ही वे टूट जाते हैं, क्योंकि उन्हें गिरना, फिर उठना सिखाया ही नहीं गया। उन्हें यह नहीं बताया गया कि उदासी कोई शर्म की बात नहीं। वे डरते हैं अपनी भावनाओं को स्वीकार करने से, क्योंकि हमने उन्हें स्वीकृति की जगह प्रदर्शन करना सिखाया। उन्हें सिखाया गया कि ‘मजबूत’ वही है, जो रोए नहीं, जबकि सच्चाई यह है कि रो लेना भी कभी-कभी मजबूती की निशानी होता है।
हम बच्चों को संतुलन बनाकर साइकिल चलाना सिखाते हैं
हमें अब यह समझना होगा कि खुश रहना कोई स्वत: विकसित हो जाने वाली आदत नहीं है। अब तो यह भी सिखाने की चीज है, जैसे खाना बनाना या साइकिल चलाना। जैसे हम बच्चों को संतुलन बनाकर साइकिल चलाना सिखाते हैं, वैसे ही हमें उन्हें यह सिखाना होगा कि भावनाओं का संतुलन कैसे बनाएं। उन्हें बताना होगा कि सब ठीक न हो, तब भी मुस्कराया जा सकता है।
जब मन भारी हो, तो उसे शब्द दिए जा सकते हैं। मन के अंदर उमड़ते-घुमड़ते विचारों को डायरी में लिखना, किसी भरोसेमंद व्यक्ति से साझा करना, या बस खुली हवा में टहलना भी मन के बोझ को हल्का कर सकता है। जब कोई कारण न भी हो, तब भी जीवन से प्रेम किया जा सकता है। हमें अपने संवादों में से ‘सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान दो’ हटाकर ‘खुद पर ध्यान दो’ जैसी बातें जोड़नी होंगी। हमें यह मानना होगा कि मानसिक स्वास्थ्य विलासिता नहीं, बल्कि जीवन जीने की बुनियादी जरूरत है। जैसे हम नियमित भोजन और व्यायाम को जरूरी मानते हैं, वैसे ही रोज कुछ समय अपने मन के लिए भी निकालना सिखाना होगा।
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आज हम उन्हें सब कुछ देने को तैयार हैं- बेहतर स्कूल, बेहतरीन किताबें, महंगे ट्यूटर, विदेश में पढ़ाई के अवसर, लेकिन अगर हमने उन्हें भीतर से मजबूत नहीं किया, तो यह सब एक चमकदार आवरण से ज्यादा कुछ नहीं होगा। समय आ गया है कि हम अपने बच्चों को जीवन की पढ़ाई दें- जिसमें वे खुद को समझें, स्वीकारें, और अपने ही साथ रहना सीखें।
हर दिन उत्पादक होना जरूरी नहीं
उन्हें यह बताना होगा कि हंसी दूसरों को दिखाने के लिए नहीं, अपने मन को हल्का करने के लिए होती है। उन्हें यह भी समझाना होगा कि खुशी कोई उपलब्धि नहीं, एक अभ्यास है। यह अभ्यास हर दिन, हर उम्र में किया जा सकता है- बारिश में भीगते हुए, हवा के झोंके में आंखें मूंदते हुए या बस यों ही किसी पेड़ के नीचे बैठकर। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि आने वाली पीढ़ी सिर्फ डाक्टर, इंजीनियर, अफसर या उद्यमी न बने, बल्कि ऐसा मनुष्य बने जो जीवन को महसूस कर सके। जो यह जाने कि हार का अर्थ अंत नहीं, बल्कि एक नया आरंभ है। जो यह समझे कि हर दिन उत्पादक होना जरूरी नहीं, लेकिन हर दिन जीना जरूरी है।
अगर हम बचपन से ही यह सिखा दें कि असफलता का स्वाद भी जिंदगी का हिस्सा है, तो शायद हम बच्चों के भीतर वह आत्मबल पैदा कर पाएंगे, जो उन्हें हर परिस्थिति में संभाल सके। अगर हमने उन्हें यह सिखा दिया, तो आने वाले समय में हमारे बच्चे केवल सफल नहीं, सचमुच संतुष्ट और खुश भी होंगे। यही वह विरासत होगी, जो हम उन्हें दे सकते हैं- सबसे कीमती, सबसे स्थायी और सबसे मानवीय।