अपव्यय की आदत किसी व्यक्ति और समाज के विकास को ही अवरुद्ध नहीं करती, बल्कि वह उसके राष्ट्र के विकास को भी अवरुद्ध करती है, क्योंकि यह व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक आदि पक्षों को लगातार प्रभावित करती है। अनर्थ कैसा भी हो, वह किसी भी समाज के लिए घातक है। इसलिए अनर्थ अपनाने को दुष्टता कहा जाता है। शारीरिक श्रम-शक्ति को व्यर्थ में गंवाना ‘आलस्य’, मन को अभीष्ट प्रयोजनों में न लगाकर इधर-उधर भटकने देना, ‘प्रमाद’, समय का, वस्तुओं का, धन का, क्षमता का बेसिलसिले उपयोग करना, उन्हें बर्बाद करना ‘अपव्यय’ कहलाता है, लेकिन किसी व्यक्ति में तत्परता, जागरूकता, साहसिकता आदि होने के बावजूद, उसमें उत्साह का अभाव अन्यमनस्क मन से बेगार भुगतने की तरह कुछ उल्टा-पुल्टा करते रहने से अवसाद बढ़ने लगता है।

इन दुर्गुणों की चतुरंगिणी जिस पर भी आक्रमण करती है, वह जीवित मृतक जैसी स्थिति में जा पहुंचता है। इन चारों में से जहां एक होगा, वहां क्रमश: दूसरे साथी भी घुसते चले जाएंगे। पक्षाघात पीड़ित, अपंग, असहाय की तरह वह अपने लिए और दूसरों के लिए भार समान रहेगा। इन दुर्गुणों के निवारण या निराकरण के लिए भी वैसा ही प्रबल प्रयत्न करना चाहिए, जैसा कि अवांछनीयता, नैतिकता, असामाजिकता के विरुद्ध संघर्ष करना आवश्यक माना गया है।

बौद्धिक क्रांति, नैतिक क्रांति एवं सामाजिक क्रांति के लिए प्रयत्त्नशील रहना पड़ता है। जैसे मूढ़ मान्यताएं, अनैतिकताएं तथा कुछ आदतें हम सह नहीं सकते हैं, वैसे ही आलस्य, प्रमाद, अपव्यय एवं अवसाद को सहना नहीं चाहिए। श्रमनिष्ठा, कर्म-परायणता, उत्साह, स्फूर्ति, सजगता, सही व्यवस्था, मानसिक स्वच्छता हमारे अपने स्वभाव के अंग होने चाहिए। भीरुता, आत्महीनता, दीनता, निराशा, चिंता जैसी मनुष्यता को लज्जित करने वाली एक भी दुष्प्रवृत्ति अपने में रहने न पाए, ऐसी सावधानी हमेशा रखना बेहद जरूरी है।

व्यर्थ या बेकार में खर्च करने से भयानक और नुकसानदेह नतीजे आते हैं सामने

हम कितना श्रम करते हैं और कितना अर्जन करते हैं, यह कोई मायने नहीं रखता। दरअसल, हमने समाज को क्या दिया, परिवार के लिए क्या किया या देश, संस्कृति, मानवता के नाम कितना किया, यही उपलब्धि कहलाती है। धन, ज्ञान और चरित्र से हम अच्छे व्यक्ति तब कहें जाएंगे, जब उन्हें पात्र देख कर खर्च करेंगे। जो व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुरूप अपने उपादानों को कल्याण में लगाता है, वही समाजसेवी, देशभक्त और श्रेष्ठ मानव बन सकता है। इसके लिए अपनी शक्ति को उचित स्थान पर खर्च करने की आदत डालनी होगी और व्यर्थ के अपव्यय से खुद को बचाना होगा।

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अपव्यय, यानी किसी चीज की बर्बादी या फिजूलखर्ची, जबकि अनर्थ का अर्थ है बुरा, गलत या नुकसानदेह परिणाम। इसलिए अपव्यय से अनर्थ का मतलब है कि किसी भी चीज (जैसे धन, समय, ऊर्जा या शिक्षा) को व्यर्थ या बेकार में खर्च करने से भयानक और नुकसानदेह नतीजे सामने आते हैं। फिजूलखर्ची या अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करना अनर्थ को जन्म देता है। इससे उस समाज में वित्तीय संकट और बर्बादी परिलक्षित होती है। मसलन, समय मनुष्य की सबसे बड़ी संपत्ति है।

जीवन के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक पहलुओं में संतुलन की कमी के कारण समय का अपव्यय होता है, जिससे नकारात्मक परिणाम दिखाई देते हैं। किसी भी व्यक्ति की क्षमता या ऊर्जा का सदुपयोग किसी भी समाज और देश के सतत विकास के लिए बहुत उपयोगी है, लेकिन जब हम अपनी क्षमताओं (ऊर्जा) का उपयोग बिना किसी जरूरी कार्य को पूरा करने में लगाते हैं, तो यह भी एक अनर्थ माना जाता है, क्योंकि किए गए ऐसे प्रयासों से कोई प्रतिकूल लाभ न मिलना भी हमारी ऊर्जा का अपव्यय है।

प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य और नि:शुल्क बनाने का संकल्प

किसी भी विकसित समाज के लिए उसका शिक्षित होना बहुत जरूरी है। इसलिए संविधान सभा ने 23 नवंबर 1948 को संविधान की धारा 45 में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य और नि:शुल्क बनाने का संकल्प लिया था। इसमें कहा गया है कि ‘संविधान लागू होने के दस वर्ष के अंदर राज्य अपने क्षेत्र के सभी चौदह वर्ष तक की आयु के बालकों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करेगा।’ मगर प्राथमिक शिक्षा के मार्ग में प्रमुख बाधा अपव्यय की है। जब कोई विद्यार्थी किसी कारणवश अपनी शिक्षा समाप्त होने से पहले ही उसे बीच में छोड़ देता है, तो उसे अपव्यय में सम्मिलित किया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि उस विद्यार्थी की पढ़ाई अधूरी रह जाती है।

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इसके फलस्वरूप समय और धन का अपव्यय होता है, इसे ही शिक्षा में ‘अपव्यय’ कहा जाता है। इस अपव्यय का एक कारण राज्य और अभिभावकों द्वारा शिक्षा पर व्यय की जाने वाले वाली धनराशि का उचित उपयोग न कर पाना माना जा सकता है। इसी को ध्यान में रखते हुए हार्टोग समिति की स्थापना 1929 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में शिक्षा की स्थिति का अध्ययन और सुधारों की सिफारिश करने के लिए गठित की गई थी। समिति ने प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर जोर दिया और इसे बढ़ावा देने, ‘अपव्यय’ (बच्चों का स्कूल छोड़ना) और ‘ठहराव’ (बच्चों का एक ही कक्षा में कई साल तक रहना) जैसी समस्याओं को कम करने की सिफारिश की। हार्टोग के अनुसार- ‘अपव्यय से हमारा तात्पर्य किसी भी स्थिति में शिक्षा पूरी किए बिना ही बच्चे को विद्यालय से हटा लेने से हैं।’

इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसी भी तरह का अपव्यय का यह अनर्थ समाज के लिए विनाशकारी हो सकता है। कुंवर नारायण की कविता की पंक्तियां हैं- ‘राख-सी सांझ, बुझे दिन की घिर जाएगी/ वही रोज संसृति का अपव्यय दुहराएगी।’