हम न जाने रोज कितने चेहरे देखते हैं। कभी अपने आसपास, तो कभी बाहर, चहलकदमी करते हुए या फिर सफर के दौरान। ये सभी चेहरे एक दूसरे से भिन्न होते हैं। अगर मनुष्येतर प्राणियों और पौधों की विविधता को छोड़ भी दें, तो अलग-अलग चेहरों और उनकी शारीरिक भिन्नता को देखकर बहुत आश्चर्य होता है। बिल्कुल जादू की तरह। इनकी विभिन्नता देख मन में सवाल भी उठता है कि आखिर बनाने वाले ने इतनी विभिन्नता कहां से पाई!
देखा जाए तो यही विविधता मानव सभ्यता का आधार है। जिस तरह हमारे ही हाथ की पांचों अंगुलियां बराबर नहीं होतीं, उनकी बनावट अलग-अलग होती है, उसी तरह मनुष्यों में भी विविध खान-पान, विविध पहनावा, विविध भाषाएं और सबसे बढ़कर विचारों की विविधता पाई जाती है। साथ ही यहां हर व्यक्ति अपने जीवन में अलग तरह के अनुभवों, परिस्थितियों, शिक्षा, मूल्यों और दृष्टिकोणों से होकर गुजरता है। यही कारण है कि उसकी सोच दूसरों से अलग और अनोखी बन जाती है।
एक ही घटना को देखकर पांच लोग पांच अलग प्रतिक्रियाएं देते हैं। नैतिकता का सार भी इसी विविधता को समझने, स्वीकार करने और उसका सम्मान करने में निहित है। बड़ी बात यह नहीं कि हमारी सोच किससे मेल खाती है, बल्कि यह कि हम दूसरों की कल्पना और विचारों को कितनी गरिमा देते हैं। उसे कितना अपना पाते हैं। कहीं हम अपने ही पूर्वाग्रहों से ग्रसित तो नहीं रह जाते!
क्या आपका मन भी लगातार बेचैन रहता है? वजह और समाधान दोनों जानिए
कहा भी कहा गया है कि ‘विचारों में भिन्नता जीवन की सुंदरता है। यदि सबकी सोच एक जैसी हो जाए, तो प्रगति ठहर जाएगी।’ यह वाक्य मानवीय नैतिकता के मूल स्वभाव को दर्शाता है। बहुलता को स्वीकार करना सिखाता है। हर व्यक्ति इस दुनिया में अपने जीवन की अलग पृष्ठभूमि लेकर आता है। किसी का बचपन सुरक्षित और सहयोगपूर्ण बीता होता है, तो कोई कठिनाइयों से जूझ कर बड़ा हुआ होता है। किसी ने शिक्षा के माध्यम से दुनिया को गहराई से समझा होता है, तो किसी ने अनुभवों के माध्यम से। इन्हीं परिस्थितियों से किसी व्यक्ति का आचरण और नैतिकता का निर्माण होता है। जैसे एक व्यापारी अपने लाभ-हानि को केंद्र में रखकर कुछ सोचता है।
एक शिक्षक ज्ञान और मूल्यों के आधार पर विचार करता है। इसी तरह एक कलाकार और दार्शनिक की सोच में भी भिन्नता पाई जाती है। इन सभी का नजरिया अलग है, पर देखा जाए, तो इनमें से गलत कोई नहीं। सभी अपने व्यवसाय और पृष्ठभूमि से प्रभावित होकर ही सोचते हैं। इन अलग-अलग विचारों से ही विभिन्न समस्याओं का हल निकलता है, जो समाज को विभिन्न दर्शनों से परिचित करवाता है। इस संदर्भ में अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि एक ही समस्या को उसी सोच से हल नहीं किया जा सकता, जिससे वह पैदा हुई है। यानी नए विचार, नई दृष्टि और नई सोच प्रगति का पथ खोलती है। वह हमें नए रास्ते दिखाती है।
नैतिकता यह नहीं सिखाती कि सब एक जैसी सोच रखें, बल्कि यह कहती है कि अलग-अलग सोच में भी सामंजस्य खोजें, क्योंकि सबकी अलग सोच को स्वीकार करना ही मानवता है। यही लोकतंत्र, समाजशास्त्र और मानव-संबंधों का आधार है।
पार्टियों में हो रहा है धरती-आसमान हिला देने वाला शोर, फिर कला और संगीत का रिश्ता कैसे बचेगा?
इस धरती पर हर बड़ी खोज, हर बड़ी बहस और हर बड़ा परिवर्तन तब हुआ, जब किसी ने दुनिया को अलग नजरिये से देखा। पेड़ से सेब को गिरते हुए कई लोगों ने देखा होगा लेकिन न्यूटन ने इसी गिरते हुए इसी सेब को देखकर गुरुत्वाकर्षण की खोज की। और गुरुत्वाकर्षण के नियम से दुनिया को अवगत कराया। बुद्ध ने दैनिक जीवन के दुख देखकर, उनसे द्रवित होकर उसके समाधान की खोज की।
वहीं रवींद्रनाथ ठाकुर ने संगीत में प्रकृति का दर्शन देखा। अगर सबकी सोच एक जैसी होती, तो न विज्ञान आगे बढ़ता, न साहित्य, न समाज, न मनुष्य की चेतना। यह अलग बात है कि हम अपनी सोच की इस भिन्नता को किस दिशा में मोड़ पाते हैं। किसी की प्रगति देखकर कोई ईर्ष्या से भर कर अपना ही नुकसान कर लेता है। जबकि इसके ठीक उलट कोई उससे प्रेरित हो अपनी जिंदगी को सही दिशा दे देता है।
अक्सर सोच के इस अंतर को संघर्ष और ईर्ष्या का कारण मान लिया जाता है। पर दरअसल यह अंतर ही कुछ नया सीखने का अवसर है। जैसे संगीत में हर सुर अलग है, पर सब मिलकर एक राग बनाते हैं। वैसे ही समाज में हर व्यक्ति की अपनी एक अलग सोच है। जो किसी समस्या का अलग-अलग निदान ढूंढ़ सकती है, लेकिन इस दुनिया को विचारों की सामूहिकता की जरूरत है। अब प्रश्न उठता है कि जब विचार ही अलग हों, तो उनकी सामूहिकता कैसे हो सकती है! वह भी विभिन्नताओं से भरी इस दुनिया में!
दरअसल, विचारों का आदान-प्रदान समाज को अधिक लोकतांत्रिक और संतुलित बनाता है। जिस तरह बुद्ध के विचारों को, जो कभी हम सबसे अलग और नवीन थे, आज हम सभी मानते हैं। दूसरों की सही सोच को समझना और अपनाना ही परिपक्वता होती है। इससे पूर्वाग्रह कम होते हैं। यह हमें नम्रता, धैर्य और स्वीकार्यता का पाठ पढ़ाता है। विविधता को अपनाना ही सभ्य समाज की पहचान है। जब हम लोगों के विचारों का आदर करते हैं, जब हम उनकी पृष्ठभूमि को समझते हैं और जब हम अपनी सोच दूसरों पर थोपने के बजाय साझा करते हैं, तभी हम वास्तव में मनुष्य कहलाते हैं।
