वर्तमान दौर को अनिश्चितता का युग कहा जा सकता है, जहां कोई भी संस्था, संबंध या वस्तु स्थायी नहीं है। अगर कुछ स्थायी है, तो वह है भय, असुरक्षा, अविश्वास, क्रोध और हिंसा। कुछ समाज विज्ञानी इसे ‘तरल आधुनिकता’ की संज्ञा देते हैं। पोलैंड के समाजशास्त्री जिग्मंट बाउमन ने ‘तरल आधुनिकता’ की अवधारणा के माध्यम से बताया कि यह ऐसी स्थिति है, जहां समाज और इसकी संरचनाएं लगातार बदलती रहती हैं, इनका कोई निश्चित आकार नहीं होता है। यह एक ऐसी दुनिया है जहां तरल पदार्थों की तरह चीजें बहती रहती हैं, उनमें स्थिरता नहीं होती।

यहां भावी समाज या भावी जीवन की भविष्यवाणी करना मुश्किल होता है। अनिश्चितता के इस नए वातावरण ने न केवल समाज को, बल्कि मनुष्य की मानसिक स्थिति को भी अस्थिर कर दिया है। युवाओं और किशोरों को ऐसा लगने लगा है कि डिजिटल साधनों-उपकरणों के बिना जीवन का अस्तित्व ही संभव नहीं है। सुबह जागने से लेकर रात को सोने तक यह पीढ़ी बिना डिजिटल उपकरणों के कोई काम शायद कर ही नहीं सकती। इस निर्भरता ने उन्हें पंगु बना दिया है। उन्हें अनेक मानसिक और शारीरिक बीमारियों ने घेर लिया है। अकेलापन, निराशा, क्रोध, आक्रामकता, अविश्वास और स्मृतिलोप के लक्षण सामान्य बात है। मनोभ्रंश, स्मृति और एकाग्रता में ह्रास एक मानसिक स्थिति है जो अब डिजिटल प्रौद्योगिकी के अत्यधिक उपयोग के कारण भी हो रहा है।

कृत्रिम मेधा से लगेगा स्मृति लोप का पूवार्नुमान

सामान्यत: लगातार स्क्रीन पर अधिक समय बिताने और उपकरणों पर निर्भरता के कारण यह बीमारी और उभर रही है। ‘डिजिटल डिमेंशिया’ शब्द को 2012 में जर्मन तंत्रिका विज्ञानी मैनफ्रेड स्पिट्जर ने गढ़ा था। इस युग में सूचना एकत्र करने, कुछ भी सीखने, पूछने और मनोरंजन के लिए भी मनुष्य की तकनीक पर निर्भरता बढ़ गई है। इससे सूचनाओं का विश्लेषण करने और धारण करने की मस्तिष्क की क्षमता कमजोर होने लगी है।

सामान्यत: आजकल देखा जाने लगा है कि बच्चे और किशोर हर चीज के लिए आधुनिक तकनीक पर निर्भर रहने लगे हैं। जैसे ‘प्रोजेक्ट’ बनाना, होमवर्क करना, गेम खेलना, वीडियो बनाना, फोटो खींचना और दोस्तों से बात करना आदि। यह उनकी उम्र का ऐसा पड़ाव होता है, जब उनका मस्तिष्क परिपक्व हो रहा होता है। कहा जाता है कि शरीर के जिस अंग का उपयोग लंबे समय तक नहीं किया जाता, वह काम करना बंद कर देता है। ऐसे में मस्तिष्क के स्थान पर तकनीक या मशीन पर निर्भर होना बच्चों के लिए कितना घातक हो सकता है, यह सोचने का विषय है।

उम्र बढ़ने के साथ बढ़ गई है भूलने की बीमारी? एक्सपर्ट से समझिए डिमेंशिया से बचाव के लिए डाइट टिप्स

हालांकि ऐसा माना जाता रहा है कि स्मृतिलोप का संबंध बढ़ती उम्र के साथ है। यानी वृद्धावस्था में व्यक्ति की स्मरण शक्ति, सोचने-समझने की क्षमता, ध्यान में कमी और निर्णय लेने पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मगर आजकल तो बच्चे और किशोर भूलने लगे हैं। वे ध्यान केंद्रित करने में दिक्कत महसूस करते हैं। स्क्रीन पर अत्यधिक समय बिताना चिंता, तनाव और नींद की गड़बड़ी को बढ़ाता है जो समग्र मस्तिष्क कार्य को प्रभावित कर सकता है।

यहां तक कि बच्चों में चिड़चिड़ापन, क्रोध, हिंसा, आक्रामकता और अवसाद का उत्पन्न होना भी इसी मानसिक स्थिति के कारण हो सकता है। तकनीक का उपयोग बुरा नहीं है, लेकिन बच्चों को यह सिखाना जरूरी है कि तकनीक का उपयोग कहां, कैसे और कितना करना चाहिए। बचपन में उनको आग या तेज धार वाले चाकू और ब्लेड आदि से दूर रहना या उनका सही उपयोग करना सिखाया जाता है, तो फिर अब तकनीक से सावधान रहना क्यों नहीं सिखाया जाए? बिना किसी प्रशिक्षण के यह खतरनाक उपकरण हमने उनको पकड़ा दिया है।

एक अध्ययन के अनुसार, प्रतिदिन चार घंटे से अधिक टेलीविजन या कंप्यूटर स्क्रीन देखने से मनोभ्रंश का खतरा बढ़ जाता है। यानी किशोरों और युवाओं में भूलने की बीमारी, ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, नींद में कमी, आंखों में जलन, कमजोरी या थकान, चिड़चिड़ापन, उदासी, आक्रामकता में वृद्धि, दोस्तों और परिवार से दूरी तथा अकेलेपन की भावना का जोखिम बढ़ जाता है।

चिकित्सकों के अनुसार भारत में हर साल करीब पचास हजार युवा ‘डिजिटल डिमेंशिया’ के शिकार हो रहे हैं। इससे ग्रस्त मरीजों में बीस फीसद किशोर और बच्चे हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत और चीन में अगले पंद्रह वर्षों में इससे प्रभावित लोगों की संख्या दोगुनी हो जाएगी। ऐसा नहीं है कि लोग डिजिटल की लत के नुकसानों से परिचित नहीं हैं, लेकिन वे स्वयं पर नियंत्रण नहीं कर पा रहे या फिर कृत्रिम मेधा के उपयोग की आदत ने अपनी वास्तविक बुद्धि पर विश्वास को कम कर दिया है। आज बहुत कुछ आभासी है- आभासी समुदाय, आभासी संबंध, आभासी समाज, आभासी मित्र।

इस आभासी विश्व ने पारंपरिक मूल्यों, परिवार, विवाह, धर्म, सामाजिक संबंधों, संस्थाओं और संरचनाओं को चुनौती दी है। आज की किशोर और युवा पीढ़ी निराशा, कुंठा और तनाव के द्वंद्व में फंस रही है। इस पीढ़ी को सोशल मीडिया, वैश्वीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव का सामना करना पड़ रहा है जो उनकी जीवनशैली और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है।

यदि किसी राष्ट्र की भावी युवा पीढ़ी इस तरह बर्बादी की ओर अग्रसर हो, तो चिंता स्वाभाविक है। इसके लिए राज्य, प्रशासन और शैक्षणिक संस्थानों को समय रहते कदम उठाना जरूरी है। किशोरों को आभासी दुनिया के बजाय वास्तविक दुनिया से जोड़ने का प्रयास किया जाए। इसके लिए उन्हें सिखाएं कि डिजिटल उपकरणों का अनावश्यक उपयोग करने से कैसे बचें। स्क्रीन समय सीमित करें। ऐसी गतिविधियों को अपने दैनिक जीवन में शामिल करें जो किसी डिजिटल उपकरणों पर निर्भर न हो, बल्कि उन गतिविधियों में आपके मस्तिष्क का सक्रिय उपयोग हो। जैसे किताबें पढ़ना, पहेलियां सुलझाना, कोई नई भाषा सीखना या कोई वाद्ययंत्र बजाना, नृत्य सीखना, पेंटिंग या फोटोग्राफी करना। सामाजिक संबंधों को मजबूत करने के लिए आमने-सामने संवाद को प्रोत्साहित किया जा सकता है। याद रखने की जरूरत है कि जिस दिन तकनीक मनुष्य को नियंत्रित करने लगे, वह मानव जीवन के लिए अभिशाप बन जाती है।