पिछले सप्ताह ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी एक खबर ने साबित किया कि दिल्ली में जो दंगे हुए थे 2020 में, उसके बाद पुलिस ने ऐसे लोगों को पकड़ा, जिनका उन दंगों से कोई वास्ता नहीं था। कई लोगों का मानना है कि यही कारण है कि उमर खालिद को पांच वर्ष जेल में रखने के बाद भी उन पर मुकदमा शुरू नहीं हुआ है। जब कोई मुकदमा बनाने लायक ठोस सबूत ही न हो, तो अक्सर मामला इस तरह लटकाया जाता है और इसे कहा जाता है कि सजा देने की प्रक्रिया ही सजा बन जाती है।
उमर खालिद के साथ लगता है, कुछ ऐसा ही हो रहा है। उनको बार-बार जमानत नहीं दी जाती है, इसलिए कि सरकार की तरफ से अदालत को बताया जाता है कि उनके खिलाफ गंभीर आरोप हैं, लेकिन यह कभी नहीं बताया गया है कि वे आरोप क्या हैं और उनका आधार क्या है। जिन लोगों के बयानों पर इस पूर्व विद्यार्थी नेता के खिलाफ इल्ज़ाम लगाए गए हैं, उनके नाम गोपनीय रखे गए हैं।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ की खबर के मुताबिक, दिल्ली दंगों के बाद जो लोग गिरफ्तार किए गए थे, उनमें कई ऐसे हैं, जिनके खिलाफ पुलिस ने बेबुनियाद केस दर्ज किए हैं। पांच में से एक मामले ऐसे हैं, जिनका कोई आधार नहीं है। ऊपर से यह भी पाया गया है कि जिन छियानबे लोगों को बरी किया है अदालतों ने, उनमें तिरानबे ऐसे हैं, जिन पर झूठे आरोप लगाए गए।
वैसे भी कई लोगों को शुरू से शक था कि उमर खालिद के खिलाफ पुलिस के आरोप गलत थे, लेकिन अब शक यकीन में बदलता जा रहा है। जब आतंकवाद जैसे आरोप लगाते वक्त इस तरह की गलती कर सकती है पुलिस, तो गलती बहुत गंभीर होती है।
तीन दशकों बाद हुए थे दिल्ली में दंगे, जिनमें तिरपन लोग मारे गए थे। इनमें से छत्तीस मुसलिम थे और पंद्रह हिंदू, लेकिन गिरफ्तार ज्यादातर मुसलिम ही किए गए थे। मैं दिल्ली में थी उन दिनों, इसलिए कह सकती हूं कि दंगे शुरू हुए भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं के भड़काऊ भाषणों के बाद, लेकिन पकड़े गए ज्यादातर मुसलिम। उस समय मेरे कुछ मुसलिम दोस्तों ने मजाक करते हुए कहा था कि कितना अजीब है कि मुसलमानों पर दोष लगाया जा रहा है कि उन्होंने अपने मकान, दुकानें और मस्जिद खुद जलाए थे।
याद कीजिए कि ये दंगे हुए थे, जब डोनाल्ड ट्रंप दिल्ली में थे और उनका खूब शान से स्वागत कर रहे थे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। इसलिए शुरू से मुझे शंका थी कि पुलिसवालों ने जल्दबाजी में लोगों पर आरोप लगाए। शायद इसकी वजह से दिल्ली पुलिस ने जल्दबाजी में मुसलिम लोगों को पकड़कर उन पर दंगाई होने के आरोप लगाए थे। जल्दबाजी में उमर खालिद और उनके कुछ साथियों को भी पकड़ा गया और आरोप लगाया गया दंगों का ‘मास्टरमाइंड’ होने का।
किसी ने कभी दंगा शुरू होते हुए देखा हो तो अच्छी तरह जानता है कि दंगों में अक्सर कोई पर्दे के पीछे छिपा संचालक नहीं होता। जो भी होता है, वह सबके सामने होता है, लेकिन समस्या अपने देश में यह है कि जब इन दंगों में शामिल दिखते हैं आला राजनेता या उनकी चापलूसी करने वाले, तो उनको पुलिस हाथ तक नहीं लगाती।
पत्रकारिता में मुझे कोई पचास साल हुए हैं। इस लंबे सफर के दौरान मैंने कई दंगे देखे हैं अपनी आंखों के सामने शुरू होते हुए। दिल्ली में सिखों का जब जनसंहार हुआ था इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तो संचालक थे कांग्रेस पार्टी के आला नेता, जिन्होंने टीवी पर आकर ‘खून का बदला खून’ जैसे नारे लगाए थे हत्या के अगले दिन। इन नारों में संदेश था कि बदला लिया जाएगा। उसी रात अपने मोहल्ले में मैंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के झुंड घूमते देखे, जो आक्रामक नारे लगा रहे थे।
यानी उस जनसंहार के निर्देशक कौन थे, सब जानते थे, लेकिन उनको दंडित आज तक नहीं किया गया है, बावजूद इसके कि कई आला जांच समितियां बिठाई गई हैं, जिनके सामने गवाही दी गई थी, नाम लिए गए थे। दिल्ली के दंगों के पीछे भी कई राजनेता शामिल थे। सब जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के नेता उन जगहों पर पहुंचकर धमकी दे रहे थे मुसलिम महिलाओं को, जो कई हफ्तों से धरने पर बैठी थीं नागरिकता कानून संशोधन विधेयक या सीएए के खिलाफ। वहां भी लोग कभी गिरफ्तार नहीं हुए। उनके बदले मुसलमानों को मुसलिम बहुल रिहाइशी इलाकों से पकड़-पकड़ कर जेल में डाला गया।
हिंदू-मुसलिम दंगों के बाद अगर सरकारें नहीं चाहती हैं कि उनका हाथ भी दंगों में पाया जाए तो जांच समिति का गठन किया जाता है, जो वर्षों लगाती है अपनी रिपोर्ट पेश करने में। तब तक लोग भूल जाते हैं दंगों का कारण। जाहिर है कि रिपोर्ट का महत्व समाप्त हो चुका होता है। तब तक दिल्ली वाले दंगों के बाद रिपोर्ट आने से पहले ही उमर खालिद और उनके कुछ नौजवान साथियों को जेल में बंद कर दिया गया था। वास्तव में दोषी थे ये लोग, तो ऐसा ही होना चाहिए था, लेकिन क्या उनको पांच साल तक ऐसे बंद रखना ठीक है जब उन पर मुकदमा ही नहीं शुरू हुआ है?
अनुमान लगाया जाता है कि हमारी जेलों में बंद लोगों में से पचहत्तर फीसद से ज्यादा कैदी ऐसे हैं, जिन पर कोई मुकदमा चलाया ही नहीं गया। यानी 5,73,220 कैदियों में से 4,34,302 ऐसे हैं, जिन्हें ‘अंडरट्रायल’ कहा जाता है। यही मुख्य कारण है कि अपने देश के आम आदमी को न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं हो पाता है। खतरे की घंटी कब बजेगी हमारे शासकों के कानों में?