दिल्ली का आसमान जब धुएं और धूल की एक मोटी चादर ओढ़ लेता है, तब सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। सूरज सिर्फ धुंधला-सा एक धब्बा बन कर रह जाता है। तब हर किसी को बारिश की प्रतीक्षा होती है। एक ऐसी बारिश की जो जहरीले गुबार को धो डाले और हवा को फिर से सांस लेने लायक बना दे। यह वह स्थिति होती है जब स्कूल बंद कर दिए जाते हैं, अस्पतालों में सांस के मरीजों की कतारें लग जाती हैं और स्वस्थ इंसान भी अपनी आंखों में जलन और फेफड़ों में चुभन महसूस करने लगता है। मगर जब प्रकृति रूठ जाती है, जब मानसून दूर होता है और पश्चिमी विक्षोभ भी धोखा दे जाता है, तब नजरें उठती हैं विज्ञान की ओर।

प्रदूषण से लड़ाई की इसी उम्मीद के साथ कुछ समय पहले दिल्ली ने कृत्रिम बारिश के लिए बादलों का दरवाजा खटखटाया था। आइआइटी कानपुर के वैज्ञानिकों के साथ मिल कर एक बड़ी योजना बनी। विशेष विमान तैयार किए गए और दिल्ली की बेबस जनता टकटकी लगाए आसमान की ओर देखने लगी। वह दिन आया, जब विमानों ने बादलों के बीच जाकर अपना काम किया। मगर नतीजा सिफर रहा। यह महंगा तकनीकी प्रयोग विफल रहा। इस नाकामी को समझने के लिए हमें यह समझना होगा कि कृत्रिम बारिश आखिर होती कैसे है?

कृत्रिम बारिश को वैज्ञानिक भाषा में ‘क्लाउड सीडिंग’ या ‘बादलों का बीजारोपण’ कहते हैं। यह पहले से मौजूद बादलों को बारिश करने के लिए ‘मनाने’ या ‘उकसाने’ की एक तकनीक है। प्राकृतिक तौर पर बारिश तब होती है, जब बादलों में मौजूद पानी की अरबों सूक्ष्म बूंदें या बर्फ के क्रिस्टल आपस में जुड़ कर इतने बड़े और भारी हो जाते हैं कि हवा उन्हें और संभाल नहीं पाती और वे गुरुत्वाकर्षण के कारण जमीन पर गिरने लगते हैं। यह प्रक्रिया उन घने ‘कपासी’ बादलों में सबसे अच्छी होती है जो रुई के पहाड़ों की तरह दिखते हैं और जिनमें पानी की मात्रा भरपूर होती है। मगर कई बार, बादलों में पानी तो बहुत होता है, मगर वे बूंदें इतनी छोटी होती हैं कि आपस में जुड़ कर भारी नहीं हो पातीं। यहीं पर बादलों के बीजारोपण की भूमिका शुरू होती है।

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इस प्रक्रिया में, एक विमान या राकेट के जरिए बादलों के एक खास हिस्से में कुछ विशेष रसायन छोड़े जाते हैं। ये रसायन ‘बीज’ का काम करते हैं। सबसे आम रसायन है सिल्वर आयोडाइड, जिसकी बनावट बर्फ के बारीक टुकड़े से मिलती है। जैसे ही इसे ठंडे बादलों में छिड़का जाता है, पानी की ठंडी बूंदें इसे असली बर्फ के टुकड़े समझ कर इससे चिपकने लगती हैं। देखते ही देखते यह छोटा सा कण लाखों बूंदों को जोड़ कर बर्फ का एक बड़ा ‘क्रिस्टल’ बन जाता है, जो पिघल कर बारिश की बूंद के रूप में जमीन पर गिरता है।

गर्म बादलों के लिए, नमक या कैल्शियम क्लोराइड जैसे ‘नमी सोखने वाले’ कणों का इस्तेमाल होता है, जो हवा से नमी खींच कर बड़ी बूंदों में तब्दील हो जाते हैं। यह तकनीक कोई नई नहीं है। चालीस के दशक में अमेरिकी वैज्ञानिक विंसेंट शेफर ने इसकी खोज की थी और तब से लेकर आज दुनिया के पचास से अधिक देश इसका इस्तेमाल सूखे से लड़ने और पानी के भंडारण के लिए या यहां तक कि बड़े आयोजनों से पहले मौसम साफ करने के लिए करते आ रहे हैं।

अब सवाल यह है कि यह तकनीक दिल्ली में क्यों नाकाम हो गई? इसका जवाब है, नमी। दिल्ली का यह प्रयोग इसलिए विफल नहीं हुआ कि वैज्ञानिकों ने कोई गलती की या विमान ठीक से नहीं उड़े या सिल्वर आयोडाइड ने काम नहीं किया। यह प्रयास इसलिए नाकाम हुआ कि जिस ‘कच्चे माल’ की इस तकनीक को सबसे अधिक जरूरत होती है, वही आसमान से गायब था। आइआइटी कानपुर के विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया कि कृत्रिम बारिश की सफलता के लिए बादलों में नमी की एक न्यूनतम मात्रा होना अनिवार्य है।

सीधे शब्दों में कहें, तो बादल ‘गीले’ और घने होने चाहिए। वैज्ञानिकों के अनुसार, एक सफल बीजारोपण के लिए बादलों में कम से कम 50 फीसद या उससे अधिक तरलता होनी चाहिए। मगर दुर्भाग्य से, जिस दिन दिल्ली में यह परीक्षण किया गया, उस दिन आसमान में जो बादल मौजूद थे, वे बहुत पतले, सूखे और बेजान थे। वे घने कपासी बादल नहीं थे। उनमें नमी की मात्रा सिर्फ दस से बीस फीसद के बीच पाई गई। यह उस सूखी ‘स्पंज’ की तरह था, जिसे कितना भी निचोड़ लें, उसमें से पानी नहीं निकल सकता।

विडंबना देखिए, जिस प्रदूषण को मिटाने के लिए यह बारिश कराई जा रही थी, शायद उसी प्रदूषण ने बादलों की संरचना को इस हद तक बिगाड़ दिया था कि वे कृत्रिम बीजारोपण के लिए भी तैयार नहीं थे। वैज्ञानिकों को सिर्फ सूखे बादलों से ही नहीं, बल्कि ‘प्रदूषित’ और ‘बिगड़ैल’ बादलों से भी निपटना था। विमानों ने बादलों में सिल्वर आयोडाइड दागे, उन रसायनों ने अपना काम करने की कोशिश भी की, लेकिन जब बादलों में पर्याप्त जल कण ही नहीं थे, तो वे आपस में जुड़ कर बड़ी बूंदें कैसे बनाते? जो थोड़े-बहुत कण बने भी, वे इतने हल्के थे कि जमीन तक पहुंचने से पहले ही हवा में भाप बन गए। इस विफलता का एक और तकनीकी कारण था बादलों की ऊंचाई।

विशेषज्ञों के मुताबिक, यदि बादल पांच हजार फुट के आसपास यानी जमीन के करीब होते, तो सफलता की संभावना ज्यादा होती, लेकिन दिल्ली के ऊपर बादल करीब दस हजार फुट या उससे भी अधिक ऊंचाई पर थे। इतनी ऊंचाई से एक छोटी बूंद का जहरीली और गर्म हवा के थपेड़ों को झेल कर जमीन तक पहुंचना लगभग नामुमकिन था। इसके अलावा, दिल्ली की सर्दियों में ‘तापमान व्युत्क्रमण’ की एक मोटी परत बन जाती है, जिसमें ठंडी हवा नीचे फंस जाती है और गर्म हवा उसके ऊपर एक ढक्कन लगा देती है। यह ढक्कन ही सारे प्रदूषण को शहर के ऊपर कैद रखता है। कृत्रिम बारिश के इस प्रयोग का एक मकसद इस ढक्कन को तोड़ना भी था, लेकिन अपर्याप्त नमी के कारण यह प्रयास सफल नहीं हो सका।

कृत्रिम बारिश प्रदूषण का स्थायी समाधान नहीं है। यह एक ‘आपातकालीन’ उपाय है, जिसका इस्तेमाल तभी किया जा सकता है, जब मौसम की सभी परिस्थितियां, खासकर नमी सौ फीसद अनुकूल हों। दरअसल, दिल्ली का प्रदूषण जमीनी समस्या है। इसका समाधान बादलों में सिल्वर आयोडाइड छिड़कने से नहीं, बल्कि जमीन पर प्रदूषण फैलाने वाले स्रोतों को बंद करने से होगा। जब तक करोड़ों गाड़ियां धुआं उगलती रहेंगी, जब तक निर्माण स्थलों से धूल उड़ती रहेगी और जब तक औद्योगिक इकाइयां जहरीली हवा छोड़ती रहेंगी, तब तक कोई भी कृत्रिम बारिश हमें बचा नहीं सकती।

हमें अपनी जीवनशैली, अपनी नीतियों और अपनी प्राथमिकताओं को बदलना होगा। हमें सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करना होगा, स्वच्छ ऊर्जा को अपनाना होगा। प्रदूषण के खिलाफ एक सख्त और ईमानदार जंग लड़नी होगी। दिल्ली में प्रदूषण का गहराता संकट एक चेतावनी है कि हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ तो कर सकते हैं, लेकिन उसे नियंत्रित करने का वहम पालना छोड़ देना चाहिए। समाधान ऊपर आसमान में नहीं, नीचे जमीन पर है।