वाम हो या दक्षिण, या मध्यमार्गी, फिलहाल इन दिनों देश का हर राजनीतिक दल अपनी राजनीति की शुरुआत बाबा साहेब आंबेडकर का नाम लेकर करता है। जब किसी पथप्रदर्शक का नाम सभी आभूषण की तरह लेने लगते हैं, तब उनके पथ पर चलने वाला कोई नहीं रह जाता है। सड़क पर चलते हरिओम वाल्मीकि को पीट-पीट कर मार डाला जाता है। एक बार फिर साबित हो गया कि देश की बड़ी संस्थाओं से लेकर सड़क तक जाति आपकी दुश्मन हो सकती है। इससे तो इंसाफ की सबसे उच्च संस्था के न्यायमूर्ति तक नहीं बच पाए। हरियाणा में पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी ने जातिगत उत्पीड़न का आरोप लगा कर खुदकुशी कर ली। प्रदेश सरकार सोच रही थी कि यह मामला टीवी पर मनोवैज्ञानिक बहसों को सुपुर्द हो जाएगा, और तनाव कम करने के उपाय के साथ खत्म हो जाएगा। इस मामले ने उस तनाव को उजागर कर दिया है, जहां दलित राजनीति सिर्फ स्वार्थ प्राप्ति का माध्यम हो गई है। इस राजनीतिक-सांस्थानिक ‘अपूरनीय’ क्षति पर बेबाक बोल।
आए है बेकसी-ए-इश्क पे रोना गालिब
किस के घर जाएगा सैलाब ए बला मेरे बाद
गालिब के पास समय-संयंत्र था। उनका एक-एक हर्फ डेढ़ सौ साल बाद हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है। खास तौर पर बेकसी का चेहरा देश की सबसे प्रतिष्ठित नौकरी के नुमाइंदे का हो तो? आज भी किसी को गलतफहमी है कि उसका घर इतने ऊंचे टीले पर है, कि सैलाब छू नहीं पाएगा, तो वह अभी हरियाणा में पुलिस सेवा के अधिकारी वाई पूरन कुमार का मामला देख ले। इसके पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के मामले में पूरा देश हतप्रभ हो ही चुका था।
पूरन कुमार, पुलिस सेवा में रहते हुए जितने ऊंचे पद पर पहुंच सकते थे, पहुंच चुके थे। पत्नी जापान के आधिकारिक दौरे पर थीं। कुमार ने पत्नी को वसीयत और आत्महत्या-पत्र वाट्सऐप पर भेज कर खुद को गोली मार ली। पत्नी ने 15 बार फोन किया, लेकिन कुमार ने फोन नहीं उठाया। परिजनों को घर के भूतल में कुमार का शव मिला।
इस खबर को ‘खुदखुशी’ की खबर के रूप में मीडिया में परोस दिया जाता है। मामले की भयावहता तब सामने आती है, जब कुमार की पत्नी जापान से लौट कर हरियाणा प्रशासन व पुलिस पर गंभीर आरोप लगाती हैं। धीरे-धीरे खबरें सामने आती हैं कि कुमार लंबे समय से जातिगत उत्पीड़न को लेकर परेशान थे। पुलिस सेवा में एक मुकाम हासिल कर चुके, कुमार खुद से अपनी जाति को अलग नहीं कर पाए। कुमार का आत्महत्या-पत्र सामने आते ही इस व्यवस्था की परतें उतरने लगीं।
पूरन कुमार की पत्नी ने हरियाणा की प्रशासनिक व्यवस्था पर जो आरोप लगाए हैं, उसके बाद इसे सांस्थानिक हत्या कहा जा रहा है। सवाल है कि इसमें उन मुख्यमंत्री की क्या प्रतिक्रिया है, जिन्हें जाति के नाम पर ही मुख्यमंत्री बनाया गया था। जिन्होंने राजनीतिक प्रदर्शन के लिए अपने मंत्रिमंडल को ‘आरक्षण’ के मानक की तरह पेश किया था। सेवा विस्तार पाए मुख्य सचिव पर जो आरोप लगे हैं, उस पर क्या कदम उठाया?
क्या इसके बाद ‘सेवा विस्तार’ का हिसाब नहीं मांगा जा सकता है? याद रहे, अमनीत कुमार ने मुख्यमंत्री के सामने आशंका जताई है कि इस शिकायत के बाद ये ‘उच्च पदस्थ’ अधिकारी मुझे और मेरे परिवार को बदनाम करने की कोशिश करेंगे। और, मुझे विभागीय या अन्य तरीकों से फंसाने की भी कोशिश करेंगे। मुख्यमंत्री क्या उच्च पदस्थ अधिकारियों से सवाल करेंगे कि उनकी छवि ऐसी क्यों है?
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: तालीमार ‘पत्रकार’
जिस पत्नी ने अपना पति खोया है, वह अंतिम संस्कार करने के बजाए ‘प्राथमिकी’ की जंग लड़ने के लिए मजबूर हो गई। जब आइएएस अधिकारी का यह हाल है तो आम लोगों के बारे में सोच कर सिहरन होती है। हरियाणा काडर (2001) की आइएएस अधिकारी अमनीत पी कुमार ने चिट्ठी में लिखा कि उनके पति, आइपीएस अधिकारी वाई पूरन कुमार को डीजीपी शत्रुजीत सिंह कपूर और रोहतक के एसपी नरेंद्र बिजारनिया ने आत्महत्या के लिए मजबूर किया। अमनीत कुमार ने कहा कि इनकी तत्काल गिरफ्तारी जरूरी है क्योंकि इनके उत्पीड़न और उकसावे की वजह से ही उनके पति की मौत हुई।
केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन चंडीगढ़ पुलिस प्रशासन को अमनीत कुमार की लिखी दूसरी चिट्ठी के कथ्य से साबित हो जाता है कि इस देश में जिसके साथ व्यवस्था (जातिगत) नहीं, वह आसमान में टिके होने के बावजूद सैलाब का शिकार हो जाएगा। अमनीत कुमार ने शुक्रवार को चंडीगढ़ पुलिस प्रशासन को फिर से चिट्ठी लिख कर ‘कमजोर प्राथमिकी’ पर सवाल उठाए।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: किताबी हिसाब
उन्होंने कहा कि आत्महत्या-पत्र में जिन अधिकारियों के नाम दर्ज हैं, उन्हें प्राथमिकी के ‘संदिग्ध स्तंभ’ के अंतर्गत नहीं रखा गया। अभी वे ‘नामजद’ हैं। साथ ही कहा कि ‘एससी एसटी एक्ट’ की जो मजबूत धाराएं लगाई जानी चाहिए थीं, वह भी नहीं लगाई गई। प्राथमिकी की बिना हस्ताक्षर वाली प्रति दी गई। इतनी कमजोर प्राथमिकी से निष्पक्ष और पारदर्शी जांच नहीं हो सकती है।
आजादी के 79 वर्षों बाद, देश के शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति से लेकर राजनीति में सबसे निचले स्तर का कार्यकर्ता भी बाबा साहेब आंबेडकर का नाम लेकर अपनी राजनीति की शुरुआत करता है। हर उच्च प्रतीकात्मक पदों पर वंचित समुदाय के चुनिंदा चेहरों को स्थापित कर जातिगत व्यवस्था दावा करती है, देखो, सबसे ऊपर बैठे को देखो, हमारा समाज कितना महान हो चुका है। हकीकत यह है कि इस जातिगत व्यवस्था के सामने सबसे ऊपर बैैठा व्यक्ति यह भी नहीं पूछ सकता कि ‘हरिओम वाल्मीकि’ को सड़क पर पीट-पीट कर क्यों मार दिया गया? मुख्य न्यायाधीश के साथ ऐसा क्यों हुआ? वह उससे किसी तरह का जुड़ाव भी जाहिर नहीं कर सकता है।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: मैदान से बाहर देशप्रेम
दलित राजनीति का लाभ लेने वाले इस पर कुछ नहीं बोलेंगे। हम सवाल करते रहे हैं, इस बार भी करेंगे। सड़क पर रात में कई लोग चलते हैं, बिना लूट व डकैती के हरिओम वाल्मीकि को ही पीट-पीट कर क्यों मार डाला गया? उसकी किसी से दुश्मनी भी नहीं थी। हरिओम वाल्मीकि की किसी से दुश्मनी नहीं थी, लेकिन वह यह नहीं जान पाया था कि उसकी जाति ही उसकी दुश्मन बनेगी। उसकी हत्या पर बोलने का काम विपक्ष के हिस्से छोड़ दिया जाता है। सत्ता में पहुंचने के बाद दलितों को इंसाफ दिलवाने की बस अदाकारी ही जरूरी होती है।
मुख्य न्यायाधीश, हरिओम वाल्मीकि से लेकर पूरन कुमार का जो पुल बनता है, उस पर चलते हुए हम पाएंगे कि नीचे अभी बहुत गहरी खाई बनी हुई है। एक दलित को सड़क पर मार दिया जाता है। दूसरे की उच्चाधिकारी पत्नी को मुख्यमंत्री के सामने गुहार लगानी पड़ती है। कुमार की पत्नी ने इस मामले में इंसाफ पाने का रुख अख्तियार नहीं किया होता तो यह मामला अखबारों व टीवी बहसों में मनोवैज्ञानिकों के सुपुर्द कर दिया जाता और तनाव कम करने के लिए कुछ व्यायाम के सुझाव देकर खानापूर्ति कर दी जाती।
जाति उत्पीड़न के तनाव को कोई मनौवैज्ञानिक दूर नहीं कर सकता। यह संस्थागत व राजनीतिक व्यवस्था का मामला है। पूरन कुमार के परिवार का कहना है कि जब तक न्याय की दिशा में ठोस कदम नहीं दिखेंगे, तब तक वे न तो अंत्यपरीक्षण की इजाजत देंगे और न अंतिम संस्कार करेंगे। इससे आपको अखबारों में छपी कोई खबर याद आ रही है? दलित के शव को सड़क पर रख परिवार ने मांगा इंसाफ…।
राजनीति लगातार दावा कर रही है कि अब अंतिम पंक्ति का आदमी भी शीर्ष पर पहुंच सकता है। जमीनी सच यह है कि शीर्ष पर पहुंचा व्यक्ति भी, महज जाति के कारण ऐसा महसूस करता है कि वह अंतिम कतार में खड़ा कर दिया गया है, और वहां से कभी आगे बढ़ ही नहीं सकता है। मोहन भागवत ने पिछले दिनों जाति व्यवस्था पर कहा था कि हालात को ठीक होने में दो सौ साल लगेंगे। अभी तो लगता है कि दो हजार साल भी कम पड़ेंगे। हुकूमत किसी की हो, दलितोत्थान बातों और प्रतीकों में सीमित है। आज भी गालिब का डर कितना वाजिब है-अगला नंबर किसका?