जनता जानती है कि बदलाव सरकार बदलने से नहीं सिस्टम तोड़ने से होता है। तेजस्वी अपनी पार्टी के उस सिस्टम को नहीं तोड़ सके जिसका बिहार के युवाओं को उम्मीद थी। इसको उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के पीडीए फार्मूले से समझिए। उन्होंने बहुत रणनीति तरीके से यादव अग्रेशन को 2022 के चुनाव से पहले ही रोक रखा था। और उनको सफलता मिली भी। यही नहीं अखिलेश यादव ने बहुत एहतियात के साथ ये संदेश दिया कि मुस्लिम वोट की पॉलिटिक्स करते हैं मुस्लिम तुष्टीकरण की नहीं। क्योंकि अखिलेश यादव ने सबसे पहले यह समझा कि अब सोशल डायनामिक्स बदल चुका है।

2014 से 2019 की भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने जो पैटर्न सेट किया है। आक्रामक हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति ने सामाजिक आयाम में बड़ा बदलाव कर दिया है। एक भारत श्रेष्ठ, भारत के नारे के साथ भाजपा अपने मिशन पर 2019 और फिर 2024 में सफल रही है। खासकर हिन्दी प्रदेशों में इसको तोड़ने के लिए विपक्ष के पास अब कोई लांग टर्म प्लानिंग नही दिखती है। सिवाय जाति और क्षेत्रीय पहचान के या फिर एंटी भाजपा किसी समीकरण के।

यह सामाजिक बदलाव दो सौ साल पहले हुआ था। जिसे बंगाल में पुनर्जागरण कहा गया। और धीरे धीरे भारतीय समाज आधुनिक भारत में बदल गया। इस्लामिक शासन में नौकरी के लिए अरबी फारसी में शिक्षित समाज तब अंग्रेजी शासन की नौकरी के लिए अंग्रेज बन गया। अंग्रेजों का मार्डन इंडिया 1947 तक कायम रहा है।

आजाद भारत में अंग्रेजों के ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को नेहरूवादी समाजवादी शासन में लोकतंत्र को नए सिस्टम के साथ अपनाया गया। उसके बाद के वर्षों में भारत के सामाजिक परिदृश्य में विकास के चिन्ह नहीं मिलते बल्कि सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन की राजनीति बड़े पैमाने प्रभाव दिखाते हैं।इसकी वजह से पिछड़ी जातियों और दलितों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व तो मिला। लेकिन भारत में एकीकृत समाज का विकास नही हुआ। सवाल ये है कि सामाजिक आर्थिक सशक्तिकरण के साथ भारत के लोग एक जैसा क्यों नहीं सोचते हैं?

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औपनिवेशिक काल में चीन की नजर में भारत के लोगों को अंग्रेजों का गुंडा समझा जाता था। क्योंकि ब्रिटिश सेना में भारतीय सैनिक होते थे। आजादी के बाद पंडित नेहरू ने अंग्रेजों पर चीन को तरजीह दिया। लेकिन चीन के अंदर तब भी भारत के लोगों का खौफ बना रहा। अब आगे ये कितना टूटेगा? ये वक्त बताएगा।

लेकिन 2014 से भाजपा की सरकार ने अंग्रेजों के ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के चक्र को तोड़ दिया है। जातीय जनगणना के ऐलान के बाद यदि इसका फायदा राजद कांग्रेस को नहीं मिलता है तो ये साबित हो जाएगा कि चुनावी राजनीति से राजनीतिक दल नहीं चल पाएंगे। एंटी-बीजेपी राजनीति के लिए आपको सामाजिक राजनीति की नई थियरी लानी पड़ेगी।

बिहार के बाद यूपी और पंजाब के चुनाव होंगे। यूपी में समाजवादी पार्टी ने पीडीए का प्रयोग कर लिया है। वह आंशिक तौर पर सफल भी रहा है। लेकिन एंटी भाजपा राजनीति से बाहर निकलकर अखिलेश यादव क्या फार्मूला निकालते हैं। यह देखना दिलचस्प होगा। 2026 में यूपी में जातीय जनगणना शुरू हो चुकी होगी। एंटी भाजपा राजनीति के चक्कर में इसे जितना बड़ा मुद्दा बनाया जाएगा ये उतना ही आत्मघाती साबित होगा।

जातीय जनगणना के बाद हिस्सेदारी की बात शुरू होगी। अब सवाल फिर से वही है कि सरकार बदलने से बदलाव तो आएगा नहीं। बदलाव तो समाज में आना चाहिए। जैसा समाज होगा वैसी राजनीति होगी। पारसी,जैन,कायस्थ तो मंत्री पद नहीं मांगते हैं और ना ही मुस्लिमों को उम्मीद है कि कोई मुस्लिम प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनेगा। बावजूद इसके ये जातियां सामाजिक तौर पर मजबूत हैं।

भारत के पुराने सिस्टम में बदलाव की शुरूआत हो चुकी है। जातीय जनगणना और फिर एक देश, एक चुनाव के साथ भाजपा आयडिया ऑफ नेक्स्ट इंडिया पर काम कर रही है।इसलिए विपक्षी दलों को सरकार बदलने की राजनीति के लिए आयडिया ऑफ न्यू इंडिया लाना होगा। बदलाव और सामाजिक न्याय के नारे पिट चुके हैं।