नेपाल में कुछ हफ्ते पहले 30 साल से कम उम्र के युवा सड़कों पर उतर आए और प्रधानमंत्री को त्यागपत्र देने के लिए मजबूर कर दिया। इन युवाओं को जेन-जेड कहा गया। नेपाल ही नहीं बीते कुछ समय में मेडागास्कर, फिलीपींस, इंडोनेशिया, केन्या, पेरु और मोरक्को में भी सत्ताधारियों को युवाओं के आक्रोश का शिकार होना पड़ा।
नेपाल के सत्ता परिवर्तन के पीछे वहाँ के नेताओं के बच्चों की विलासितापूर्ण जीवनशैली के सोशलमीडिया पर नग्न प्रदर्शन को भी एक बड़ा कारण बताया गया। नेपाल की तरह भारत में भी वंशवाद-परिवारवाद सार्वजनिक विमर्श का विषय रहा है मगर इसका कोई जमीनी असर भी है, इसमें सन्देह है।
अमीरों के बच्चों द्वारा धन या शक्ति के एक सीमा से ज्यादा प्रदर्शन पर जनता आक्रोशित होती है मगर उसका गुस्सा उस कृत्य के प्रति ज्यादा होता है न कि परिवारवाद की अवधारणा के प्रति। आम जनता किसी भी व्यक्ति द्वारा शक्ति या धन के अत्यधिक प्रदर्शन को बुरा मानती है। लोकलाज की लचीली सीमा में रहकर आरामतलब जिन्दगी जीने वाले नेपोकिड के प्रति भारतीय जनता में कोई खास नाराजगी नहीं दिखती है।
भारतीय राजनीति में परिवार-वाद और इसका विरोध आजादी मिलते ही शुरू हो गया था। विभाजित भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर उनकी बेटी इंदिरा गांधी को आगे बढ़ाने का आरोप लगे। नेहरू के परिवारवाद का राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं ने मुखर विरोध किया।
मगर भारतीय अवाम ने जिस तरह इंदिरा गांधी को जनसमर्थन दिया उससे लगता है कि यह विरोध राजनेताओं के स्तर पर ज्यादा था और जमीन पर कम। यही हाल बाद में इंदिरा जी द्वारा उनके बेटों पहले संजय गांधी और बाद में राजीव गांधी में राजनीति में लाने पर हुआ।
नेहरू परिवार को भारत पर सबसे लम्बे समय तक राज करने का अवसर मिला है इसलिए परिवार-वाद की चर्चा में भी वह प्रथम परिवार की तरह याद किया जाता है मगर भारतीय राजनीतिक दलों की वस्तुस्थिति बताती है कि देश का कोई भी दल परिवार-वाद से अछूता नहीं है।
इंडियन एक्सप्रेस के वरिष्ठ पत्रकार श्यामलाल यादव ने गुरुवार को प्रकाशित विशेष लेख में भारतीय राजनीति में वंशवाद की पड़ताल की। श्यामलाल जी ने चुनावी माहौल को देखते हुए बिहार की राजनीति में भी वंशवाद की सुध ली है।
श्यामलाल जी ने टिकटार्थियों के बजाय मौजूदा विधायकों का विश्लेषण करके यह जानने का प्रयास किया है कि भारतीय राजनीति में कितना वंशवाद है। उन्होंने सभी प्रमुख दलों के अन्दर वंशवाद की समीक्षा की है। श्यामलाल जी की ये दोनों रिपोर्ट आप इस आलेख के आखिर में दिये लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं।
राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के 18.62 प्रतिशत और कांग्रेस के 33.25 प्रतिशत सांसद राजनीतिक-परिवारों से आते हैं। भाजपा कांग्रेस को एक परिवार की पार्टी कहती रहती है मगर पिछले एक दशक में भाजपा नेताओं के बेटे-बेटियों को मिले हित-लाभ के बाद अब पार्टी इस मुद्दे पर पहले की तरह आक्रामक नजर नहीं आती। अब भाजपा पार्टी के अन्दर परिवार बनाम परिवार के अन्दर पार्टी का नरेटिव चलाने का प्रयास करती है।
भाजपा नेताओं के अनुसार परिवारवादी दलों में शीर्ष पद परिवार विशेष के लिए आरक्षित रहते हैं, जबकि उनकी पार्टी में परिवार के लोग हैं मगर ऊपर जाने का रास्ता सभी के लिए खुला हुआ है। फिलहाल यह अंतर भाजपा को गैर-भाजपा दलों से अलग करता है मगर यह फर्क इतना बड़ा नहीं है कि उसके आधार पर जनसमर्थन को मोबलाइज किया जा सके।
बात बिहार की करें तो लालू यादव की राजद में सबसे ज्यादा परिवारवाद है। उनके करीब 42 प्रतिशत विधायक राजनीतिक परिवार से आते हैं। जो लालू यादव कभी परिवार-वाद के तगड़े विरोधी और प्रतीक माने जाते थे, आज वही परिवार-वाद के सबसे बड़े चेहरे के रूप में देखे जाते हैं।
बिहार के बड़े दलों में भी सबसे कम परिवार भाजपा में दिखता है। भाजपा के करीब 21.3 प्रतिशत विधायक राजनीतिक परिवार से आते हैं मगर भाजपा के एक वर्तमान डिप्टी सीएम पूर्व मंत्री के बेटे हैं। इसलिए बिहार में भाजपा परिवार-वाद को बड़ा मुद्दा बनाने की स्थिति में नहीं है।
अंधेरे में प्रकाश की पतली किरण की तरह हम कह सकते हैं कि भारत के किसी भी दल के 50 प्रतिशत विधायक या सांसद परिवारवाद की देन नहीं हैं। यानी आधे से ज्यादा सीटें पहली पीढ़ी को मिली हैं। आप कह सकते हैं कि जनता ने सुप्रीम कोर्ट की तर्ज पर आरक्षण और समानता के बीच 50:50 के संतुलन अब तक बनाए रखा है।
भीमराव रामजी आंबेडकर का कथन प्रसिद्ध है कि अब राजा रानी की कोख से नहीं, मतपेटी से पैदा होगा। उनके पोते प्रकाश आंबेडकर महाराष्ट्र की राजनीति में सक्रिय तो हैं मगर मतपेटी उन्हें राजा बनने का अवसर नहीं दे रही है। आम्बेडकरवाद की कोख से भी पहला शासक महाराष्ट्र में नहीं उत्तर प्रदेश में गद्दी पर बैठा। वह शासक थीं बहन मायावती। अब बहन मायावती अपना उत्तराधिकार भतीजे आकाश आनन्द को देने की तरफ बढ़ रही हैं।
संक्षेप में कहें तो मेरी राय में परिवारवाद या वंशवाद अब भारतीय राजनीति में कोई मुद्दा नहीं रहा। पार्टी में परिवार हो या परिवार में पार्टी, आम जनता दोनों को मौका देती जा रही है।
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