मन को वे बातें झकझोर देती हैं जिसकी हम कल्पना तक नहीं कर पाते हैं। बिहार का जनादेश कुछ वैसा ही है। सभी अनुमान, पक्ष-विपक्ष का मूल्यांकन, सर्वे और अध्ययन सब धराशायी हो गए। ऐसा कैसे और क्यों हुआ, यह गहन चिंतन और अध्ययन का विषय है। भारत में बुद्धिजीवी इतने पूर्वाग्रह के शिकार हैं कि उन्होंने सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने की स्वयं की क्षमता घटा ली है।

ऐसा मान लिया गया था कि सामाजिक सोच अपरिवर्तनीय स्थिति में है। सुविधावादी राजनीति इसे और भी बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करती रही है। यह नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य अपने मूल स्वभाव से प्रगतिशील होता है और आदर्श उसे लुभाता है। इसलिए किसी भी परिस्थिति में संकीर्णता आधारित जीवन मूल्य उसकी बाध्यता होती है, न कि वैचारिक बुनियाद। इसलिए जैसे ही उसे अवसर मिलता है, वह उस घरौंदे से बाहर निकल जाता है।

बिहार का जनादेश सामाजिक यथास्थिति को त्यागने का एक उदाहरण है। जनादेश ने दिखा दिया कि सर्वसमावेशी विकास में परंपरागत सोच को खत्म करने की अद्भुत क्षमता होती है। आर्थिक संपन्नता व्यक्ति को स्वावलंबी बनाती है। निर्णय लेने से उसकी स्वायत्तता बढ़ती है। राज्य की कल्याणकारी भूमिका एक बार फिर से परिभाषित हुई है। वर्ष 2014 के बाद से प्रधानमंत्री का सामाजिक दर्शन आर्थिक समूहों को चिह्नित कर उन्हें स्वावलंबी बनाना रहा है। वर्ष 2014 से पूर्व दी जाने वाली सहायता राज्य के विवेक पर निर्भर थी और उसमें अनिश्चितता रहती थी। मगर 2014 के बाद दी जाने वाली सहायता अधिकार आधारित, नीतिगत है और उसमें निश्चितता है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में यह बुनियादी परिवर्तन है।

बिहार में बड़ी संख्या में किसानों को मिल रहा किसान सम्मान निधि इसका उदाहरण है। स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास से जुड़ी कल्याणकारी योजनाओं में राज्य की सक्रियता ने ग्रामीण भारत की राजनीतिक चेतना को बढ़ाया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि अधिकांश नव कल्याणकारी योजनाएं प्रधानमंत्री के सामाजिक आर्थिक दर्शन से उपजी हैं। वे दिन प्रतिदिन की जरूरत या संभावित परेशानियों के समाधान के रूप में हैं। इसलिए हाशिये के लोगों के मन में वे स्थायी रूप से घर कर चुके हैं।

कल्याणकारी राज्य का यह विकास माडल बिहार में सबसे प्रभावी रूप से महिलाओं तक पहुंचा। ग्रामीण महिलाएं आमतौर पर अपने पति या परिवार के किसी पुरुष अथवा पड़ोसी पर अपने राजनीतिक निर्णय के लिए निर्भर रहती थीं। लेकिन अब वे पितृसत्तात्मक सोच से आंशिक या पूर्ण रूप से मुक्त हैं। बदलाव की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को परंपरागत राजनीतिक शैली के लोग समझ पाने में विफल रहे हैं। महिलाओं ने अपने आर्थिक हितों के आईने में राजनीतिक विकल्पों को देखना शुरू कर दिया है। बिहार में पुरुषों एवं महिलाओं का मतदान फीसद क्रमश: 62.98 और 71.78 है। सात जिलों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने अधिक मतदान किया है। यह बिहार में लोकतंत्र का संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों विस्तार है।

औपचारिक राजनीति के इतर राज्य के लाभार्थियों में अनौपचारिक चिंतन प्रक्रिया पिछले एक दशक से चल रही है। चुनाव परिणाम के बाद चिंतकों की नींद टूट गई है। बिहार के चुनावी परिवेश में महिलाओं के मन में मद्यपान निषेध की नीति में बदलाव का भय भी था। वर्ष 2016 में पूर्ण शराबबंदी के निर्णय से बिहार को प्रत्येक वर्ष लगभग साढ़े तीन हजार करोड़ की क्षति हुई। बिहार जैसे विपन्न राज्य के लिए यह नीतीश कुमार का बड़ा निर्णय था। आर्थिक लाभ के लिए सामाजिक सौहार्द की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती है। पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रपट के अनुसार मद्यपान के कारण 83 फीसद महिलाएं, घरेलू हिंसा की शिकार होती थी। उस पर विराम लग गया।

भारत के ‘वाम उदारवादियों’ की एक बड़ी विडंबना है। जब देश में जातियां हकीकत थीं, तब वे ‘वर्ग चेतना’ की पुस्तक लेकर घूम रहे थे और जब नव उदारवाद ने आर्थिक वर्गों की श्रेणियों का निर्माण कर दिया है, तब वे जाति-चेतना पर बात करने में लगे हैं। बिहार में भारतीय जनता पार्टी और भाकपा (माले) को छोड़ कर किसी भी दल के पास जीवंत राजनीतिक संरचना नहीं है। इसलिए राष्ट्रीय जनता दल का तर्क कि ‘जंगल राज’ इतिहास हो गया है, लोगों के गले नहीं उतर पाया।

इसलिए 2025 का जनादेश शुचिता आधारित सर्वसमावेशी शासन व्यवस्था की अग्रिम जिम्मेदारी भी है। प्रधानमंत्री द्वारा उल्लिखित चार नई जातियों का उत्थान ही संपूर्ण क्रांति माना जा सकता है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसमें थोड़ी भी चूक उतनी ही तीव्रता से पुरानी राजनीति या प्रतिक्रियावाद के पुनरागमन का अवसर तैयार कर देगी।

बिहार ने 1967 और 1977 में इसी प्रकार का जनादेश देकर राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित किया था। रचनात्मक राजनीति सामाजिक प्रगतिशीलता को आगे बढ़ाती है और पीढ़ियों के लिए नया प्रतिमान प्रस्तुत करती है। सहजानंद सरस्वती, सच्चिदानंद सिन्हा, राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर ऐसे कुछ नाम हैं, जिनका राजनीतिक योगदान से कहीं अधिक सामाजिक योगदान है।

बिहार के जनतंत्र का इतिहास सदियों पुराना है। लिच्छवी गणतंत्र का अभिषेक पुष्करणी सरोवर उसकी स्मृति के रूप में वैशाली में आज भी विद्यमान है। इसमें स्नान कर प्रतिनिधि पद और गोपनीयता की शपथ लेते थे। उसी संदर्भ में भगवान बुद्ध का विज्जी संदेश आज भी प्रसांगिक हो जाता है। जिस गणतंत्र की विधायिका जन सरोकार पर निरंतर बहस करती है, जहां महिलाओं को सम्मान मिलता है और जनप्रतिनिधि का चरित्र पारदर्शी होता है, उस गणतंत्र का कभी विनाश नहीं हो सकता है।