भारत विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती डिजिटल अर्थव्यवस्थाओं में से एक हैं। इसका प्रमाण हमें हर दिन अपने आसपास देखने को मिलता है। एक समय था जब बैंक के छोटे-से काम के लिए भी लंबी कतार में खड़ा होना पड़ता था, लेकिन आज यूपीआइ की सफलता ने लेन-देन को इतना सरल और त्वरित बना दिया है कि सड़क किनारे बैठा ठेले वाला भी ‘क्यूआर कोड’ से भुगतान स्वीकार कर लेता है। सरकारी सेवाओं के आनलाइन वितरण और आधार-आधारित सेवाओं ने देश के हर नागरिक के जीवन को सशक्त और सरल बनाया है। यह क्रांति हमें डिजिटल रूप से सशक्त कर रही है, लेकिन इसी डिजिटल सशक्तीकरण के साथ-साथ एक स्याह पक्ष भी सामने आया है।
यह है साइबर अपराध। दरअसल, आज यह सिर्फ एक अपराध नहीं, बल्कि बेलगाम खतरा बन चुका है। यह हमारी मेहनत की कमाई, हमारे व्यक्तिगत डेटा और सबसे बढ़ कर, डिजिटल व्यवस्था में हमारे विश्वास की चोरी कर रहा है। आज अपराधी भौतिक दूरी की परवाह नहीं करता। वह हजारों किलोमीटर दूर बैठ कर, बिना किसी संपर्क के, लोगों के बैंक ब्योरे तक पहुंच बना लेता है। यह एक ऐसी अदृश्य लड़ाई है जहां अपराधी हमेशा तकनीक में एक कदम आगे रहने की कोशिश करते हैं।
वर्तमान में, साइबर अपराध के तौर-तरीकों में एक अहम बदलाव आया है। अपराधी अब अपना समय जटिल साफ्टवेयर या ‘फायरवाल’ में घुसने में नहीं लगाते। उन्होंने सीख लिया है कि सबसे कमजोर कड़ी हमेशा ‘इंसान’ होता है। अपराधी मनोविज्ञान का इस्तेमाल करते हैं। वे जानते हैं कि मनुष्य तीन प्राथमिक भावनाओं पर तुरंत प्रतिक्रिया करता है– डर, लालच, और तुरंत कार्रवाई। वे इन्हीं भावनाओं को निशाना बना कर लोगों को भ्रमित करते हैं, जिससे पीड़ित खुद अपनी गोपनीय जानकारी या पैसा उनके हवाले कर देता है। यह एक ऐसा तरीका है, जहां अपराधी ‘मनुष्य की कमजोरी’ पर ध्यान देता है।
हालिया रुझानों में, जिस रणनीति ने सबसे ज्यादा दहशत पैदा की है, वह है ‘डिजिटल अरेस्ट’। यह साइबर अपराधियों का नया और मनोवैज्ञानिक हथियार है। इसमें अपराधी स्वयं को केंद्रीय जांच ब्यूरो, नारकोटिक्स ब्यूरो या यहां तक कि स्थानीय पुलिस के उच्चाधिकारी के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे पीड़ित को वीडियो काल करते हैं, जिसमें उनकी पृष्ठभूमि में अक्सर थाने या सरकारी कार्यालय जैसा दृश्य दिखाई देता है और वे वर्दी या आधिकारिक पोशाक में होते हैं। वे पीड़ित को दिखाते हैं कि उनका आधार कार्ड या बैंक खाता किसी गंभीर अपराध में फंसा हुआ है, जैसे धन शोधन, हवाला या नशीली दवाओं की तस्करी मामले में।
धमकी का यह नाटक इतना वास्तविक होता है कि अच्छे-खासे शिक्षित और समझ रखने वाले लोग भी घबरा जाते हैं। अपराधी पीड़ित को यह विश्वास दिलाते हैं कि अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए उन्हें अपनी सारी जमा पूंजी एक ‘सुरक्षित सरकारी खाते’ में ‘जांच के लिए’ भेजनी होगी। वे भरोसा दिलाते हैं कि जांच पूरी होते ही पैसा वापस मिल जाएगा। अपराधी यह सुनिश्चित करते हैं कि पीड़ित को सोचने या किसी से सलाह लेने का समय न मिले। वे लगातार वीडियो काल कर उस पर दबाव बनाए रखते हैं। इसी तीव्र दबाव और जेल जाने के डर से, लोग जीवन भर की बचत पलक झपकते ही गंवा देते हैं। साफ है कि अपराधियों ने डर का इस्तेमाल हथियार के रूप में करना सीख लिया है।
दूसरी ओर, लालच का इस्तेमाल कर की जाने वाली धोखाधड़ी भी तेजी से बढ़ रही है। ‘आकर्षक रिटर्न’ का लालच देकर फर्जी ट्रेडिंग मंच और क्रिप्टोकरंसी में निवेश कराया जाता है। अक्सर लोगों को सोशल मीडिया या टेलीग्राम पर ऐसे संदेश मिलते हैं जिनमें ‘घर बैठे काम’ या ‘थोड़े समय में पैसा दोगुना’ करने का वादा किया जाता है। अपराधी छोटे निवेश पर शुरुआत में कुछ मुनाफा देकर पीड़ितों का भरोसा जीतते हैं। जब पीड़ित बड़ा निवेश करता है, तो अपराधी मंच बंद करके या मुनाफा निकालने की प्रक्रिया को जटिल बना कर गायब हो जाते हैं। इसके अलावा, तत्काल कर्ज देने वाले फर्जी ऐप भी तेजी से फैले हैं, जो कम कागजी कार्रवाई के नाम पर लोगों के फोन का पूरा डेटा चुरा लेते हैं और फिर भयादोहन कर उनसे वसूली करते हैं।
इसके अलावा, दैनिक जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी, लेकिन व्यापक धोखाधड़ी भी आम हो गई है। ‘केवाईसी अपडेट करें’ या ‘आपका बिजली बिल बकाया है, रात दस बजे बिजली काट दी जाएगी’ जैसे संदेश भेज कर लिंक पर क्लिक कराया जाता है। ऐसा करते ही या तो व्यक्तिगत डेटा चुरा लिया जाता है या पीड़ित से ओटीपी मांग कर उसके खाते से पैसे निकाल लिए जाते हैं। क्यूआर कोड स्कैन करवा कर पैसे निकालने की धोखाधड़ी भी आम हो गई है, जहां अपराधी पैसा भेजने के बजाय राशि प्राप्त करने का कोड भेजते हैं और अनभिज्ञ लोग पिन डाल कर पैसा गंवा देते हैं।
इन अपराधों की प्रकृति ऐसी है कि यह किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं है। गांव का किसान जो पहली बार डिजिटल बैंकिंग का उपयोग कर रहा है और शहर नागरिक, दोनों ही अब जोखिम में हैं। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि हर मिनट कोई न कोई भारतीय साइबर धोखाधड़ी का शिकार हो रहा है, जिससे भारी वित्तीय नुकसान के साथ ही पीड़ितों को गहरा मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक आघात भी लगता है। अपनी मेहनत की कमाई अचानक खो देने का सदमा पीड़ितों को तनाव, अवसाद और सामाजिक अलगाव का शिकार बना देता है। शर्म और बदनामी के डर से कई लोग शिकायत दर्ज कराने से भी बचते हैं, जिससे अपराधियों को और बल मिलता है।
इस गंभीर स्थिति का सामना करने के लिए सरकार ने कुछ बड़े कदम उठाए हैं। इनमें राष्ट्रीय हेल्पलाइन 1930 और साइबर अपराध रिपोर्टिंग पोर्टल शामिल हैं। भविष्य में यह चुनौती और भी बड़ी होने वाली है। कृत्रिम मेधा और ‘डीपफेक’ तकनीक अब अपराधियों के हाथ लग रही है। एआइ किसी की आवाज या वीडियो चेहरे की हूबहू नकल तैयार कर सकता है। ऐसे में जब ठगी करने वाला व्यक्ति किसी व्यक्ति के रिश्तेदार की आवाज और चेहरे का उपयोग कर भावनात्मक मदद मांगेगा, तो सामान्य व्यक्ति के लिए सत्य और झूठ में अंतर कर पाना लगभग असंभव हो जाएगा। डीपफेक तकनीक न केवल वित्तीय धोखाधड़ी बढ़ाएगी, बल्कि यह समाज में गहरा अविश्वास और अराजकता भी पैदा कर सकती है।
साइबर सुरक्षा का मूल मंत्र सरल है– ‘रुको, सोचो और पुष्टि करो।’ किसी भी लिंक पर क्लिक करने या पैसा भेजने से पहले रुकें, उस संदेश के पीछे के तर्क पर सोचें और संबंधित आधिकारिक स्रोत से फोन कर पुष्टि करें। परिवार के बुजुर्ग सदस्यों को इन खतरों के बारे में शिक्षित करना और उन्हें 1930 जैसे हेल्पलाइन नंबरों के बारे में जानकारी देना भी हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। डिजिटल इंडिया तभी सुरक्षित होगा, जब हर नागरिक साइबर सुरक्षा के प्रति सजग, जिम्मेदार और शिक्षित होगा। हमें तकनीक का इस्तेमाल करना है, न कि तकनीक से डरना है। यह तभी संभव है जब हम सुरक्षित और समझदारी से डिजिटल लेन-देन करें।
