नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद हुए संसद के पहले सत्र को याद करें तो कोई यह सोच भी नहीं सकता कि डेढ़ साल में ही संसद सत्र मौजूदा हाल में पहुंच सकता है। हालांकि सरकार की ओर से शांति और तरक्की के लिए पाकिस्तान से संबंध सामान्य करने की पहल सहरानीय है, लेकिन यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि विपक्षी पार्टियों से भी रिश्ते सामान्य किए जाएं। भारत का राजनीतिक परिदृश्य अखाड़े वाला बन गया है। संसद के भीतर से लेकर टीवी चैनल के स्टूडियो तक में माहौल ऐसा हो गया है कि कोई सहिष्णुता/असहिष्णुता पर बहस कर वक्त जाया नहीं करना चाहता।
यह पूछे जाने की जरूरत है कि आखिर अचानक ऐसी स्थिति क्यों बन गई। संसद से ज्यादा सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट खबरों में हैं। मेरे हिसाब से मुख्य कारण यह है कि सरकार ने अपने को ‘सबका साथ, सबका विकास’ के एजेंडे से अलग कर लिया है। दुर्भाग्यवश सीबीआई अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है। आम धारणा यह बन गई है कि सीबीआई सरकार की कठपुतली बन कर रह गई है, जिसका इस्तेमाल सरकारें अपने फायदे के लिए करती रही हैं। अगर आप दोस्त हैं तो सौ खून माफ। लेकिन अगर आपसे कोई खतरा लगता है तो फिर पूरी कहानी ही बदल जाएगी। चाणक्य से लेकर मुगल और ब्रिटिश काल तक में शासकों ने राजनीतिक फायदे के लिए सत्ता का दुरुपयोग किया है, जिसे राजनीतिक बदले की भावना से की गई कार्रवाई कहते हैं। जनता राज के दिनों में शाह कमीशन को कोई नहीं भूल सकता, जिसने इंदिरा गांधी को देश भर में अदालतों का दरवाजा खटखटाने के लिए मजबूर कर दिया। नतीजा हुआ कि इंदिरा गांधी जबरदस्त बहुमत के साथ सत्ता में आईं।
बिहार चुनाव के नतीजों के बाद लोगों ने यही सोचा होगा कि अब मोदी विपक्ष से टकराव नहीं लेंगे और मोदी सरकार के लिए अच्छा यही होगा कि वह विपक्ष को साथ लेकर अपनी स्थिति मजबूत करे। पर इसके ठीक उलट होता दिख रहा है। सरकार का हर कदम विपक्ष को एकजुट कर रहा है। हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री की बेटी की शादी के वक्त उनके घर पर सीबीआई का छापा मारना हो या फिर दिल्ली में मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव के दफ्तर में छापामारी या फिर अरुणाचल में कांग्रेस की सरकार गिराना….
ऐसी धारणा भी विकसित हो रही है कि शायद सरकार ही संसद को नहीं चलने देना चाहती। हो सकता है कि भूमि अधिग्रहण बिल की तरह ही सरकार जीएसटी बिल को लेकर पसोपेश में हो। हो सकता है भाजपा यह भांप चुकी हो कि जीएसटी उसके मध्य वर्ग के मतदाताओं के लिए फायदेमंद नहीं होगा। जैसा एफडीआई के मामले में हुआ। अंतत: भले ही सरकार आरोप विपक्ष के सिर मढ़ दे, पर सच यह है कि वह आर्थिक सुधार का अपना एजेंडा आगे नहीं बढ़ा पा रही है। और न ही 2014 के संसद के पहले सत्र की तरह संसद को सही तरीके से चलवा पा रही है। भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत चाहती है, लेकिन उसके काम करने का तरीका कांग्रेस वाला ही है।