वेतन आयोग की सिफारिशें आ गई हैं, और उम्मीदों के वृक्ष लद गए हैं। कर्मचारी हर्षाए हुए हैं कि कभी तो दूल्हे की बुआ के दिन भी फिरेंगे। राज्यों के यहां देर भले ही हो अंधेर नहीं है। है भी तो कम से कम सरकारी कर्मचारियों के विषय में नहीं है। लेकिन वेतन आयोग की खबर सुनते ही बाजार ने कमर कस ली है। महंगाई ने अंगड़ाई लेना शुरू कर दिया है। चार मकान दूर पड़ोसी के निधन की खबर से बेखबर धोबी ने कल राह रोककर मुझे बुलंद आवाज में बधाई दी। मैंने जानना चाहा कि भाई किस बात की बधाई दे रहे हो तो बोला-शर्माजी इतने भोले न बनो, सातवें वेतन आयोग की बधाई दे रहा हूं। अब तो आपकी बल्ले बल्ले हो गई न..।
मैंने समझाना चाहा- भाई अभी तो सिफारिश है मात्र, लागू तो होने दो। लेकिन रामबाबू जी ने एक न सुनी और अगले महीने से कपड़ों की धुलाई और प्रेस के रेट बढ़ाने की एकतरफा घोषणा कर दी। शाम को दूधवाला माखनलाल आया और कहने लगा कि बाबूजी नौकरी हो तो सरकारी, बिना कुछ किए धरे हर दस साल में वेतन दोगुना करवा लेते हो आप लोग। एक हम हैं जो बीस सालों में दूध बमुश्किल पचास रुपए किलो कर पाए हैं।
वेतन आयोग जब भी आता है, सांता क्लॉज की तरह उम्मीदों का टोकरा साथ लाता है । मेरे मित्र, परिजन और सहकर्मी सबकी हसरतें लपलपाने लगती हैं। वे उसमें से अपना मनोरथ फल चुन लेते हैं और मैं कथा के ब्राह्मण की तरह उसकी प्राप्ति के लिए नाना उपक्रमों में लग जाता हूं। ताकि मेरा इहलोक तो सुधर ही जाए। मुझे याद है कि पिछले वेतन आयोग की घोषणाओं के चलते मैंने तमाम तरह के ऋण ले लिए थे, जिन्हें मैं आज तक चुका रहा हूं। सुख के सब साथी, दुख का न कोय…। इन दस सालों में कोई भी यह पूछने नहीं आया कि इएमआई कैसे चुक रही है। लेकिन फिर से वेतन आयोग की सिफारिशें आते ही मोहक बधाइयों का सिलसिला शुरू हो गया है।
छोटी बहिन ने व्हाट्स एप पर संदेश भेजा है-भैया बधाई, होपिंग फॉर बिग गिफ्ट। दोस्तों ने ट्वीट किया है-व्यंग्यकारजी इस पर व्यंग्य नहीं पार्टी बनती है। बेटा पढ़ाई बीच में रोक कर सोनी प्ले स्टेशन के लिए अड़ गया है, जबकि मैं अभी भी पुराने वेतनमान के स्टेशन पर खड़ा हुआ हूं। वेतन आयोग की सिफारिशों से मेरे शांत जीवन में भूचाल सा आ गया है। संबंधों को गिफ्टों की कसौटी पर कसा जा रहा है। सहकर्मी दिन भर हिसाब किताब लगाते रहते हैं। कोई मूल वेतन को ढाई गुने से गुणा कर रहा है तो कोई उसमें वर्तमान महंगाई भत्ता जोड़कर उसमें मकान किराया जोड़ नए बेसिक का अंदाज लगा रहा है। भावी योजनाएं बनाई जा रही हैं। कर्मचारियों के वेतन की बातें सुन सुनकर सहयात्री कुढ़ रहे हैं और तिरछे नेत्रों से एक दूसरे की तरफ देख मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं।
सोशल मीडिया ग्रुपों पर कर्मचारियों को हिदायतें दी जा रही हैं कि अपने भावी वेतन का जिक्र सार्वजनिक स्थानों पर न करें। लेकिन मन है कि मानता नहीं। उसके एषणाओं के पंख लग ही जाते हैं।
बाजार कर्मचारियों की जेब पर बारीक नजर रखे हुए हैं, सरकार तो खैर सदैव ही रखती है। बाजार ने सोच लिया है कि क्या करना है, कैसे लुभावनी स्कीमें बनानी हैं, कैसे जेब हल्की करवानी है। कैसे स्वप्न दिखा कर आम आदमी को आम ही रखना है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि कुल बढ़े हुए वेतन का एक चौथाई तो सरकार पर आयकर के रूप में ही लौट जाएगा।
यह सुनकर वित्त मंत्रीजी प्रसन्न हो सकते हैं। उधर पैसा तो जेब में बैठा चंचल शिशु ठहरा। वह आते ही हाथ-पैर मारने लगेगा। अकुलाने लगेगा …मैया मैं तो चौपहिया लेहौं …भौतिक संसाधनों रूपी मेनकाएं स्वयं आपका तप भंग करने चली आएंगी। फिर आप कौन से योगीराज ठहरे, आप तो भोगीराज हैं। वर्तमान व्यवस्था से दंशित रोगीराज भी कहें तो अतिश्योक्ति न होगी। टैक्सों के शिकंजे से बचकर कहां जाइएगा। जहां जाइएगा सेवाकर पाइएगा। इसलिए वेतन आयोग की सिफारिशों के हिंडोले पर अभी भले ही पींगें भर लें। एक दिन तो पैर बाजार के खुरदुरे धरातल पर आने ही हैं। बिखेर लें कामनाओं की जुल्फें, लंबी कर लें सपनों की फेहरिस्तें। एक दिन तो खर्चों की खरोंच इस उत्साह के फेस पैक ओढ़े चेहरे को लहूलुहान कर ही देगी।