दो वर्ष के शासनकाल और तीसरे बजट के बाद देश के पांच राज्यों में होने वाले चुनावों में सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी की साख दांव पर है। चुनावी रणभेरी बज चुकी है और जुबां पे जुमलों के साथ मजमा लगाने की शुरुआत भी हो चुकी है। पिछले चुनावों की बनिस्बत इस बार जुबान की धार पहले से कहीं ज्यादा पैनी और हमलावर है। भगवा पार्टी ने तय कर लिया है कि इस बार अपनी बात सख्ती से कह कर आक्रामक रुख अख्तियार किया जाए, क्योंकि अगले दो सालों में जिन दो राज्यों उत्तर प्रदेश और पंजाब में चुनाव हैं, इनके नतीजों का सीधा असर उन पर भी होगा। भाजपा के लिए खबरें अभी तक तो बुरी ही हैं। देखना यह होगा कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह इस बार कोई करतब दिखा पाते हैं या नहीं।

दिल्ली का दिया दर्द तो एक हद तक काबू आ भी गया लेकिन बिहार के जख्म तो अभी हरे ही हैं। शर्मनाक शिकस्त के बाद पार्टी की राष्ट्रीय छवि तो धूल-धूसरित होती दिखी ही है, इसके मुख्य प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और प्रमुख रणनीतिकार अमित शाह की प्रतिष्ठा पर भी सवाल उठे। लिहाजा यह चुनाव इन दोनों ही नेताओं के लिए खास परीक्षा की घड़ी है। बिहार के बाद यह कहा जाने लग गया था कि मोदी का जादू टूट रहा है और शाह की रणनीति का किला अब अभेद्य नहीं रहा, इसमें नीतीश-लालू की जोड़ी और कांग्रेस ने कामयाबी से सेंध लगा दी है। इन चुनावों में जीत दर्ज करके ही भाजपा के पास खुद को सही मायनों में राष्ट्रीय पार्टी सिद्ध करने का एक मौका है। इस बार दक्षिण के तमिलनाडु, पुद्दुचेरी व केरल के अलावा असम और पश्चिम बंगाल में भी चुनाव हैं।

पार्टी के लिए चिंता की बड़ी बात यह भी है कि इनमें से किसी भी राज्य में न तो भाजपा और न उससे जुड़े घटकों की सरकार है। पश्चिम बंगाल और केरल में वामपंथियों की खासी पैठ है और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जिस तरह से छात्र राजनीति से खेला गया, उससे वामपंथियों को जैसे एक नया जीवन मिल गया है। जेएनयू छात्र यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने जेल से निकलने के बाद तुरंत ही अपना करारा भाषण दिया, जिसमें वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को ललकारते दिखाई दिए। कॉमरेड कन्हैया को लाल सलाम ठोक कर वामपंथी नेता सीताराम येचुरी ने तो एलान भी कर दिया कि पार्टी अपने चुनाव अभियान में कन्हैया को शामिल करेगी। कन्हैया भले चुनाव प्रचार से परहेज करें लेकिन रोहित वेमुला और जेएनयू के मामले को उठकार वामपंथी दल अपनी जोरदार हाजिरी लगाने की कोशिश में होंगे।

इन राज्यों में स्थानीय क्षत्रपों की गहरी पैठ है। पिछले एक अरसे से आलम यह है कि यहां सत्ता पर काबिज होने के लिए कांग्रेस को भी स्थानीय क्षत्रपों से हाथ मिलाना पड़ता है। मुद्दत हुई, जब बंगाल में सिद्धार्थ शंकर रे की अगुआई में कांग्रेस की सरकार बनी थी। फिलहाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपनी लोकप्रियता बनाए रखी है और तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जयललिता और द्रमुक नेता एम करुणानिधि अपनी लड़ाई में किसी तीसरे को शायद आने भी न दें। भाजपा ने लोकसभा चुनावों में तो यहां अपनी मौजूदगी जोर-शोर से दर्ज करा दी थी, लेकिन उसके बाद हिंदी भाषी प्रांतों में उसका जो हाल हुआ, उसे देखते हुए अभी तो यह दूर की कौड़ी ही लग रही है कि पार्टी यहां कोई खास आधार बना पाएगी। अगर किसी तरह यह हो गया तो यह पार्टी के लिए किला फतह से कम नहीं होगा।

अभी तक के हालात में भाजपा के पास स्थानीय क्षत्रपों से भारी तो क्या, बराबर की टक्कर वाले नेता भी नहीं हैं। इसलिए जाहिर है कि पार्टी के पास इन चुनावों में मोदी-शाह की जोड़ी के लगातार झुकते जा रहे कंधों के भरोसे ही चुनाव लड़ना होगा। इन प्रदेशों की भाषा भी यहां के चुनाव प्रचार में आड़े आती है। भाषा के प्रति जिस तरह का लगाव दक्षिण भारत, खासकर तमिलनाडु में है, वहां अगर मोदी ‘वणक्कम’ से भाषण शुरू करके नरिंदर से खत्म करके वाहवाही लूटने का भ्रम पाले हैं तो वह शायद उनकी पहली ही रैली में टूट जाएगा। ऐसे में यह तय है कि पार्टी को यहां के सशक्त स्थानीय नेताओं के दम पर ही अपना दांव खेलना पड़ेगा।

इन चुनावों से पहले केंद्र में भाजपा शासन के दो वर्ष हो चुके हैं और हाल ही में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपना गरीब किसान के हित का तीसरा बजट जारी किया है। बजट के बाद से देश में बहुलता में विद्यमान मध्य व निम्न मध्यवर्ग के लोगों में खासी निराशा है। खासकर आयकर ढांचे के जस के तस रहने से लोग खफा हैं और ईपीएफ की निकासी पर टैक्स को लेकर तो यू टर्न ही लेना पड़ गया। इसका सिला पार्टी को भुगतना पड़ सकता है। यह बजट हालांकि इन चुनावों को मद्देनजर रख कर ही बनाया गया है, लेकिन जिस तरह गरीब और किसान पर इसका फोकस रहा है, उससे ऐसा लगता है कि भाजपा के निशाने पर इन पांच राज्यों के बजाय उत्तर प्रदेश और पंजाब में अगले साल आने वाले विधानसभा चुनाव ज्यादा हैं। लेकिन अगर यही भूमिका बिगड़ गई तो पार्टी को तब तक के लिए शायद कुछ और सोचना पड़े।

खास तौर पर उत्तर प्रदेश में, जिसने कई साल पहले की परंपरा को कायम रखते हुए भाजपा को लोकसभा में 70 के पार का आंकड़ा देकर केंद्र पर काबिज कर दिया, लेकिन उत्तर प्रदेश के पड़ोस में ही नीतीश व लालू की जोड़ी ने भाजपा को न सिर्फ चारों खाने चित कर दिया था, वरन कांग्रेस में भी एक नई जान फूंक दी थी। जाहिर है, बिहार से उत्साहित कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन तलाशने के लिए जी-जान लगा देगी। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के साथ मिलकर गुपचुप तरीके से इसका खाका खींचना शुरू भी कर दिया गया है। पंजाब में पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह पहले ही प्रशांत किशोर से हाथ मिला चुके हैं और अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी के ऊपर से मधुर दिखने वाले संबंधों में गहरी दरारें पड़ चुकी हैं। ऐसे में कहना न होगा कि भाजपा को कोई जादुई दवा ही खिलानी पड़ेगी।

केंद्र में भाजपा अपने एजंडे को दो साल में जरा-सा भी आगे नहीं खिसका पाई है। भूमि अधिग्रहण और जीएसटी बिलों का जो हश्र हुआ, उससे यह साफ है कि जब तक राज्यसभा में पार्टी अपना बहुमत नहीं बना पाएगी, इसके लिए अपने एजंडे को आगे बढ़ाना आसान नहीं है। बिहार में यह एक सुनहरा मौका था कि पार्टी अपने आंकड़े में कुछ इजाफा कर पाती, लेकिन वहां तो विधानसभा में पार्टी विधायकों की संख्या पहले से भी कम हो गई। इन पांच राज्यों से भी अगर अपेक्षित परिणाम न हुए तो केंद्र की गाड़ी वहीं अटकी रहेगी और वहीं अटका रहेगा पार्टी का एजंडा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी से कन्हैया कुमार तक सभी भाजपा पर जुमलेबाजी का आरोप लगाते हैं। अगर हालात न बदले तो पार्टी को अभी कुछ और देर तक जुमलों पर ही यकीन करना होगा लेकिन क्या जुमले अभी काम करेंगे?

आलम तो यह है कि राम मंदिर के निर्माण के लक्ष्य को भी विपक्ष ने पार्टी के जुमलों की सूची में जोड़ दिया है। खुद को सबसे बड़ा राष्ट्रभक्त घोषित करके पार्टी लोगों से वोटों के तौर पर जो सिला चाहती है उसे कन्हैया की जीभ का पांच लाख कीमत लगा कर उसके अपने ही नजदीकी या दूर के संगी-साथी स्वाहा कर देते हैं। वोटों का ध्रुवीकरण अगर पूरा नहीं हुआ तो पार्टी को मुंह की खानी पड़ सकती है। बिहार में यह हुआ भी।

सच तो यह है कि भाजपा को इन पांच राज्यों में असम के सिवा कहीं से ज्यादा उम्मीद भी नहीं है, जहां पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी ने अप्रत्याशित रूप से सात लोकसभा सीटें जीत ली थीं। यहां भाजपा का वोटों में हिस्सा भी सत्तारूढ़ कांग्रेस (29.6 फीसद) से ज्यादा 36.5 फीसद था। लिहाजा भाजपा यहां एड़ी-चोटी का जोर लगा कर अपनी सरकार बनाने का प्रयास करेगी। इसके अलावा तमिलनाडु में महज एक लोकसभा सीट हासिल हुई थी। यहां और केरल में पार्टी की वोटों में भागीदारी मुश्किल से दहाई का आंकड़ा पार कर सकी थी। पश्चिम बंगाल में वोटों में हिस्सा तो 17 फीसद के आसपास था, लेकिन सीटों के मामले में पार्टी को शून्य ही हाथ लगा था।

भाजपा के बजट से भी साफ है कि उसने उद्योगपतियों और उच्च मध्यवर्ग की आशाओं व महत्त्वाकांक्षाओं को ताक पर रखते हुए अब यूपीए की तर्ज पर गरीब और किसानों को इसलिए एजंडे पर रखा है कि उसे उत्तर प्रदेश और पंजाब में कामयाबी मिले। पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बढ़ते प्रयास और अकाली दल की दरकती जमीन के कारण पार्टी को यह इल्म है कि वहां हार उसकी चूलें हिलाकर रख देगी।

यों भी, पिछले दो सालों में देश के जिस मध्यवर्ग ने एक उम्मीद के साथ भाजपा को केंद्र की सत्ता सौंपी थी, वह उसकी नजर में धुंधलाती जा रही है। ईपीएफ और टैक्स के सवाल को फिलहाल भले टाल दिया गया, लेकिन इसने वेतनभोगी तबके के बीच एक आशंका बैठा दी है। इसी तरह, बड़े उद्योगपतियों और उच्चवर्गीय पूंजीपतियों के लिए मुहैया कराई जा रही विशेष सुविधाओं के बरक्स मध्यवर्ग के हितों की अनदेखी से लेकर समाज के बाकी वर्गों से टकराव के हालात ने भाजपा को अब आम जनता की नजर में दो साल पहले वाली पार्टी नहीं रहने दिया है। अलग-अलग वजहों से मध्यवर्ग और निम्न वर्ग के बीच एक असंतोष पैदा हुआ है और उससे निपटने में सरकार न केवल नाकाम हो रही है, बल्कि निपटने की कोशिश कई बार हास्यास्पद तक हो जा रही है।

यह भी तय है कि आगामी चुनावों में भाजपा कुछ कमाल न कर पाई तो वह चुनाव विश्लेषकों के निशाने पर जरूर चली जाएगी। इस बात की भूमिका पहले से ही बन रही है कि दो साल पहले सत्ता के शिखर पर जो मोदी मंत्र गूंजा था, वह धीरे-धीरे बेसुरा होता जा रहा है। लिहाजा पार्टी ने अपने माथे पर लगते सूट-बूट की सरकार का धब्बा बजट के जरिए धोने के साथ-साथ अपना चुनावी फोकस भी पुन: केंद्रित करने का प्रयास किया है, लेकिन यह कितना कामयाब होगा यह तो चुनावी नतीजे ही बताएंगे।
मोदी केंद्रित नहीं

2014 के आखिर में हुए हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू कश्मीर में भाजपा को मिली सफलता भी मोदी के खाते में ही गई। बाद में दिल्ली और बिहार में मोदी का जादू नहीं चला। इसलिए इस बार भाजपा मोदी केंद्रित होने से परहेज करेगी। असम में पांच से छह तो अन्य राज्यों में भी वे दर्जन भर से ज्यादा सभाएं नहीं करेंगे। हां, केंद्र की विकास योजनाएं चुनावी प्रचार का अहम हिस्सा होंगी।

आगे उत्तर प्रदेश है…

इन पांच राज्यों में भाजपा के पक्ष में शायद वही कारक नहीं काम करे, जिसकी उम्मीद उत्तर प्रदेश की गद्दी के लिए की जा रही है। यानी जाति के समीकरणों को पुख्ता करना और सांप्रदायिक मुद्दों को हवा देना। हालांकि इन्हीं मुद्दों पर बिहार में भाजपा को करारी शिकस्त खानी पड़ी थी। इसलिए संभवत: बाजी दोनों मोर्चों पर खेली जाए। एक ओर, पिछले दो साल के दौरान केंद्र सरकार की उपलब्धियों और उसकी छवि को ज्यादा से ज्यादा प्रचारित किया जा सकता है, दूसरी ओर विश्व हिंदू परिषद या बजरंग दल या फिर इनसे मिलते-जुलते संगठनों को जहर उगलने और नफरत फैलाने वाले भाषणों के प्रति नरमी दिखाई जाएगी। इसकी शुरुआत आगरा से हो भी चुकी है, जिसमें एक समुदाय विशेष के खिलाफ अधिकतम जहर भरा जा रहा था, दंगों के लिए लोगों को तैयार किया जा रहा है। जाहिर है, यह रणनीति अभी असम या बाकी राज्यों के मद्देनजर बनाई गई थी।

सांप्रदायिकता पर राष्ट्रवाद का मुलम्मा

विडंबना यह है कि केंद्र में सत्ता संभालने के बावजूद भाजपा ने खुद को केंद्र सरकार का पर्याय मान लिया है। तमाम गैर-भाजपा दलों के प्रति जिस तरह के बर्ताव हो रहे हैं, वह लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर भाजपा की निष्ठा दिखाई देती है। जाहिर है, भाजपा के इस रुख को लेकर गैर-हिंदू तबकों के बीच एक आशंका खड़ी होगी। लेकिन आरएसएस और उसके संगठनों ने मुसलिम विरोध और सांप्रदायिकता का जो एजंडा रचा जा रहा था, उस गुब्बारे को लोगों ने लेने से इनकार कर दिया। दिक्कत यह है कि सांप्रदायिकता को हवा देकर एक खास समुदाय को निशाने पर लाने का खेल खेला जा रहा था। चूंकि सांप्रदायिकता के मुद्दे पर लड़ने का बहाना तमाम मुसलमानों तक ही केंद्रित रहता है, इसलिए उस जद में गैर-भाजपा के लोग या समर्थकों को लाना मुश्किल हो रहा था। अब राष्ट्रवाद के नारे के साथ किसी भी अपने से असहमत और ‘गैर-भाजपा’ नागरिक को ‘सजा’ दी जा सकती है। सांप्रदायिकता के मुद्दे पर लड़ाई की सीमा को देखते हुए अब राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढ़ा कर वोटों का धु्रवीकरण किया जा सकता है। लेकिन सवाल है कि बुनियादी मुद्दे को लंबे समय तक कैसे टाला जा सकता है! राष्ट्रवाद के परदे से अब तक वास्तविक हालात और अभावों को ढकने की कोशिश कर रही हैं।