हमारे देश की आधी आबादी काम करने योग्य युवाओं की है। इस समय भारत की आबादी चीन को पछाड़ कर दुनिया में सबसे अधिक हो चुकी है। इस आबादी में कितनी युवा शक्ति हमारे पास सुरक्षित है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। विसंगति यह है कि हमारा देश पड़ोसी देशों में तेजी से बूढ़ी होती हुई आबादी से घिरा हुआ है। चीन की दिक्कत है कि वहां प्रजनन दर इतनी कम हो गई है कि बुजुर्गों की संख्या युवाओं पर भारी हो रही है। अपनी कार्ययोग्य आबादी को चाक-चौबंद रखने के लिए चीन ने ‘हम एक हमारा एक’ का नारा छोड़ कर अधिक संतान पैदा करने के लिए अपने नागरिकों को प्रेरित किया है।
हमारे देश में परिवार नियोजन एक अभियान के रूप में चल रहा है। थोड़ी-सी प्रजनन दर कम भी हुई है, लेकिन फिर भी प्रभावी युवा शक्ति की देश में कमी नहीं। मगर दुखद यह कि युवाओं को यथोचित रोजगार नहीं मिलता। उन्हें अनुकंपा से बहलाया जाता है।
देश में मुफ्तखोरी बनाम ‘शार्टकट संस्कृति’ धीरे-धीरे पनप रही है। नौजवानों में नैतिक मूल्यों का तेजी से क्षरण हो रहा है। ‘सब चलता है’ का सूत्र वाक्य उनकी मनोवृत्ति पर हावी हो गया है। कोई भी लालफीताशाही से जुड़ा हुआ काम करवाना हो, तो बिचौलियों या दलालों की मदद लेनी पड़ती है। एक अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में सामने आया था कि यहां लोग काम की जगह आराम करना पसंद करते हैं। अलबत्ता, तरक्की करने के नारे उन्हें बहुत पसंद हैं। इनका बार-बार उत्सव मनाने से वे चूकते नहीं। ये उत्सव उन्हें सच लगें, इसलिए उनकी पेशकश पर मिथ्या आंकड़ों की मीनाकारी भी कर दी जाती है।
अंधकारमय नजर आ रहा युवाओं को भविष्य
उन्हें देश की उपलब्धियों के बारे में भाषण सुनना बहुत पसंद है। इस समय युवा पीढ़ी लगातार उपेक्षित है। उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय नजर आता है। इसीलिए उनमें से कई युवा देश से पलायन का रास्ता भी तलाशते हैं। वैध-अवैध तरीकों से विदेश चले जाना चाहते हैं। जो नहीं जा पाते, उन्हें हथियार और नशे के सौदागर तथा आतंकवाद को पालने-पोसने वाले आकर्षक जिंदगी का लोभ देकर अपनी ओर खींचते हैं और बाकी बचे लोगों में से अधिकांश युवा अवसादग्रस्त हो जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में युवकों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ी है, क्योंकि उनको भूखा न मरने देने की गारंटी तो मिली है, लेकिन उनके हाथों को यथोचित काम या रोजगार का भरोसा नहीं मिला।
मुकदमों के बोझ तले दबती भारतीय न्यायिक व्यवस्था
पिछली बार प्रधानमंत्री ने लालकिले से देश की युवा शक्ति को राष्ट्र निर्माण के लिए आह्वान किया था। अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि युवाओं को नया देश बनाने की ओर कदम बढ़ाने चाहिए। प्रधानमंत्री का लक्ष्य अभी एक लाख नौजवानों को राजनीति से जोड़ उसका रंग-ढंग बदल कर निर्माणात्मक राजनीति बना देने का है। इसके लिए उन्होंने एक नया कार्यक्रम शुरू करने का संकल्प भी लिया है। इसके लिए ग्यारह-बारह जनवरी को दिल्ली में ‘विकसित भारत युवा नेता संवाद’ होगा, जिसमें नौजवानों को उनके अतीत से या स्वाधीनता संग्राम के बलिदानियों की कहानियों से प्रेरित किया जाएगा।
बहुत समृद्ध है भारतीय विरासत
उन्होंने कहा कि हमारी विरासत बहुत समृद्ध और राष्ट्रीयता को समर्पित है। हम इसे नौजवानों के लिए संरक्षित करेंगे, ताकि वे भी इसी रास्ते पर आगे बढ़ सकें। प्रधानमंत्री ने नौजवानों से उभरते-संवरते भारत के लिए अपना योगदान देने के लिए कहा है। यह योगदान राजनीति में होगा, तो आज की आपाधापी से युक्त राजनीति की जगह सैद्धांतिक और सेवा-समर्पण वाली राजनीति के मूल्य उभरेंगे। ऐसा होना चाहिए, क्योंकि आज नेतागीरी का लक्ष्य कुर्सी हथियाना भर रह गया है। भ्रष्टाचार बिल्कुल सहन न करने की बात कहने वाले नेता ही दलदल में फंसे नजर आते हैं।
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राजनीति तो अजब भेड़िया धसान हो गई है, जहां आपाधापी के इस युग में नेताओं की यह पीढ़ी अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार है। न्यायपालिका से लेकर शीर्ष सत्ता तक कहती है कि जनता को लुभाने के लिए रेवड़ियां नहीं बांटी जानी चाहिए, लेकिन हर चुनाव के दौरान ज्यादातर दलों में अनुकंपा की झड़ी लगा देने की होड़ लगी रहती है। यह बरसात किस खजाने से होगी, इसकी परवाह नहीं होती। इसीलिए प्राय: राज्य कर्जदार नजर आते या वित्तीय घाटे का रोना रोते हैं। ऐसी हालत में युवाओं को आगे बढ़ने के लिए कहा जा रहा है। बेशक यह प्रेरणा बहुत सार्थक है। देश का युवा आगे बढ़ेगा, तो बदलाव होगा। बदलाव का रुधिर दौड़ेगा, लेकिन क्या हमने अपने देश की युवा पीढ़ी को इस काबिल बनाया है। भरपूर मेहनत के बाद सरकारी नौकरियों की परीक्षाओं में जो धांधली होती है, उससे मेहनती नौजवान मोहभंग का शिकार होते हैं।
पूरे परिवेश को चौंका देता हैं धनकुबेरों का भ्रष्टाचार
सरकारी क्षेत्र तो थोड़ी नौकरियां ही प्रदान करता है। इस समय देश में निजी क्षेत्र का लगातार विस्तार हो रहा है। इसी में नौजवानों को अपेक्षित रोजगार मिल सकता है। मगर गलाकाट प्रतिस्पर्धा कर रहे निजी क्षेत्र मुनाफा कमाने में लगे हैं। दुखद है कि वहां इस श्रम शक्ति का शोषण अब स्वीकार्य हो गया लगता है। प्रधानमंत्री तो कहते हैं कि ‘विकसित भारत युवा नेता संवाद’ किया जाएगा, लेकिन इस देश में जहां संसाधनों की कमी है, ऐसे में युवा नेता अपने संवाद में अगर यह पूछने लगें कि हमारे लिए तरक्की के कौन से ईमानदार रास्ते हैं। हमारी मेहनत का फल मिलने की गारंटी कहां है, तो निश्चय ही इसका जवाब नहीं दिया जा सकता। हमने देखा है कि किस तरह धनकुबेरों की धांधलियां पूरे परिवेश को चौंका देती हैं और शेयर बाजार कैसे अचानक धड़ाम से गिर जाता है। ऐसे में युवाओं को निराशा से निकालना बड़ा काम है।
युवाओं को अवसर अवश्य मिलना चाहिए। ऐसे निश्चित कायदे बनाए जाएं कि उनको मेहनत का उचित मूल्य प्राप्त हो। नौजवान जब अपनी शिक्षा समाप्त कर जीवन समर में उतरे, तो उसके पीछे शोषण के साये भयभीत करने के लिए न लगे हों। इस समय यह स्थिति है कि युवा शक्ति को तरक्की का सही मार्ग नहीं दिखता। विद्यालयों में उनकी शिक्षा संदर्भ से अलग होती जा रही है और वे अपने आप को इस डिजिटल व्यवस्था में नाकाम पाते हैं। जरूरत है इस देश में शिक्षा व्यवस्था और पाठ्य पुस्तकों में बुनियादी परिवर्तन की।
युवा शक्ति को नहीं दिखता तरक्की का सही मार्ग
जरूरत है बदलते समय के साथ सही मार्गदर्शन देने की, लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आ रहा। शिक्षा व्यवस्था अन्वेषण की ओर प्रतिबद्ध नहीं दिखती। यही कारण है कि प्रतिभावान युवक खुद को इस माहौल के अनुकूल नहीं पाते हैं। वे किसी न किसी तरीके से विदेश भागना चाहते हैं या फिर बुराई के रास्ते को सही मान कर उसे अपना लेते हैं। प्रधानमंत्री ने देश की नई पीढ़ी को राष्ट्र निर्माण के लिए आह्वान तो कर दिया, लेकिन उन्हें रोजी-रोटी और मकान मिलने की गारंटी नहीं। इसीलिए आज युवा पीढ़ी निराश है। इसे राष्ट्र निर्माण के रास्ते पर ले जाना ही सत्ता और समाज का उद्देश्य होना चाहिए।
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युवाओं को अवसर अवश्य मिलना चाहिए। ऐसे निश्चित कायदे बनाए जाएं कि उनको मेहनत का उचित मूल्य प्राप्त हो। नौजवान जब अपनी शिक्षा समाप्त कर जीवन समर में उतरे, तो उसके पीछे शोषण के साये भयभीत करने के लिए न लगे हों। इस समय यह स्थिति है कि युवा शक्ति को तरक्की का सही मार्ग नहीं दिखता। विद्यालयों में उनकी शिक्षा संदर्भ से अलग होती जा रही है और वे अपने आप को इस डिजिटल व्यवस्था में नाकाम पाते हैं। जरूरत है देश में शिक्षा व्यवस्था और पाठ्य पुस्तकों में बुनियादी परिवर्तन की, बदलते समय के साथ सही मार्गदर्शन देने की। लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आ रहा।