अमेरिका द्वारा लगभग 1.2 ट्रिलियन डालर व्यापार घाटे से निपटने के लिए व्यापारिक साझीदार देशों पर पारस्परिक शुल्क दरों के कारण संभावित वैश्विक आर्थिक मंदी से दुनिया आशंकित है। आक्रामक अमेरिकी नीतियां वैश्विक महामंदी का कारण बन सकती हैं। इसके कारण भारत के अमेरिकी निर्यात में 6.41 फीसद की कमी तथा आर्थिक विकास दर छह फीसद से नीचे आ सकती है। लाभांश में कमी से निगमित क्षेत्र तथा बाजार बाधाओं से सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम क्षेत्र आशंकित है। भारत में बेरोजगारी दर 7.6 फीसद होने के साथ कुल बेरोजगारों में 84 फीसद युवा हैं। अमेरिका भी वैश्विक अर्थव्यवस्था साथ मुद्रास्फीति, बेरोजगारी तथा आर्थिक मंदी के संभावित खतरे में है। ऐसे में प्रश्न है कि भारत, अमेरिकी शुल्क दर में बढ़ोतरी से कैसे निपटे? घरेलू नीति की रक्षा कैसे हो? क्या प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही उचित होगी?

अमेरिका ने व्यापार घाटे पर काबू पाने के लिए व्यापारिक साझेदार देशों पर शुल्क दरों में दो चरण में बढ़ोतरी की है। पहला, सभी देशों पर दस फीसद आधार शुल्क, जो पूर्व की दर से लगभग 2.5 फीसद अधिक है। दूसरा, देश-विशेष पर पारस्परिक शुल्क दरें, जिसे अमेरिकी व्यापार घाटे को कुल आयात के दोगुने से विभाजित कर अजीब अंदाज में तय की गई है।

स्विट्जरलैंड तथा सिंगापुर की प्रति व्यक्ति आय है अमेरिका से ज्यादा

पारस्परिक शुल्क दरों की घोषणा के साथ अमेरिका ने साठ देशों की जो सूची साझा की है, उसमें चीन 2,954.02 अरब डालर के साथ 24.6 फीसद, यूरोपीय संघ 2,317.69 अरब डालर के साथ 19.3 फीसद तथा वियतनाम 1,220.71 अरब डालर यानी 10.1 फीसद के साथ सर्वाधिक अमेरिकी व्यापार घाटे के जिम्मेदार हैं। इन पर शुल्क दरें क्रमश: 34 फीसद, 20 फीसद तथा 46 फीसद प्रस्तावित हैं। स्विट्जरलैंड तथा सिंगापुर ऐसे दो देश हैं, जिनकी प्रति व्यक्ति आय अमेरिका की 89,680 डालर आय से भी अधिक है, उन पर भी पारस्परिक शुल्क दरों की घोषणा है।

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अमेरिका ने व्यापार अधिशेष वाले देशों- ब्रिटेन, ब्राजील, सिंगापुर और कोलंबिया को भी इस सूची में रखा है। कंबोडिया, जिसकी प्रतिव्यक्ति आय मात्र 2,950 डालर है, व्यापार घाटा मात्र एक फीसद है, पर शुल्क दर 49 फीसद सर्वाधिक है। बांग्लादेश, जिसकी प्रतिव्यक्ति आय 2,770 डालर तथा व्यापार घाटा आधा फीसद है, पर 37 फीसद शुल्क दर, जबकि थाईलैंड पर 44 फीसद की दर लागू की है। भारत में 2,940 डालर प्रतिव्यक्ति आय तथा अमेरिकी व्यापार घाटा 456.64 अरब डालर के साथ 3.8 फीसद है, उस पर आरोपित शुल्क 26 फीसद है। अमेरिका, भारत की संरक्षणवादी नीतियों का निरंतर आलोचक रहा है। भारत में कृषि उत्पादों पर विश्व व्यापार संगठन की बाध्यकारी तथा लागू शुल्क दरों के मध्य अंतर दुनिया में सर्वाधिक है, समय-समय पर कृषि और गैर-कृषि उत्पाद पर शुल्क दरों में वह बदलाव करता रहा है। भारत में बिजली वितरण कंपनियों तथा दूरसंचार द्वारा उपयोग किए जाने वाले उपकरणों, हेडफोन, लाउडस्पीकर और स्मार्ट मीटर पर शुल्क दरें अधिक हैं।

आर्थिक विकास दर में आ सकती है गिरावट

भारत में समग्र सरकारी खरीद नीति के अभाव के कारण सरकारी खरीद प्रक्रियाएं एक समान नहीं हैं। भारत में बौद्धिक संपदा प्रवर्तन भी अपर्याप्त है। भारत द्वारा खुदरा उद्योग में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर कुछ प्रतिबंध है। बैंकिंग प्रणाली में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की शाखाओं तथा क्रेडिट बाजार में हिस्सेदारी दो तिहाई है। अधिकांश निजी बैंक भी भारतीय स्वामित्व में हैं, विदेशी बैंकों का हिस्सा एक फीसद से भी कम है। भारतीय बीमा बाजार में सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियां संरक्षण का लाभ लेती हैं। पारदर्शिता की कमी कानूनों और विनियमों को प्रभावित करती है, अमेरिका की भारत के घरेलू नीति विकल्पों के साथ-साथ नियामक वातावरण का आलोचक रहा है।

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अमेरिका की थोपी गई पारस्परिक शुल्क दरें वैश्विक व्यापार के लिए खतरनाक हैं, इससे आर्थिक विकास दर में गिरावट आ सकती है। कंपनियों का लाभांश घटने की आशंका से दुनिया भर के शेयर बाजार घुटने पर हैं। प्रतिरोधात्मक कार्यवाही से आर्थिक विकास की संभावनाएं और धूमिल हो सकती हैं। मुद्रास्फीति तथा अन्य मुद्राओं के सापेक्ष डालर की मजबूती से भारत जैसे देशों में तेल आयात मूल्यों में बढ़ोतरी हो सकती है। दुनिया के किसी भी देश का आर्थिक भविष्य इस बात पर भी निर्भर करेगा कि वह अमेरिकी अर्थिक संबंधों पर किस तरह निर्भर हैं। साथ ही, नए व्यापारिक साझेदार और आपूर्ति शृंखलाएं तलाशने में उसकी क्षमताएं क्या हैं।

यूरोपीय संघ तथा चीन की प्रतिक्रिया पर निर्भर करेगा वैश्विक आर्थिक परिदृश्य

वैश्विक आर्थिक परिदृश्य इस पर भी निर्भर करेगा कि यूरोपीय संघ तथा चीन की प्रतिक्रिया कैसी होगी। वैश्विक व्यापार में अमेरिका की हिस्सेदारी 13 फीसद, यूरोप की 38 फीसद तथा एशिया की 38 फीसद है। यदि यूरोपीय संघ एशिया के साथ अपने संबंधों को मजबूत कर सके, तो लंबी अवधि में अमेरिका पर निर्भरता कम हो सकती है। चीन जैसे अन्य अमेरिकी व्यापार भागीदारों के मुकाबले सापेक्ष शुल्क मध्यस्थता महत्त्वपूर्ण है। चीन की प्रतिक्रिया के साथ-साथ अत्यधिक औद्योगिक क्षमता और दुनिया और एशियाई बाजारों में ‘डंपिंग’ के खतरे भी कम नहीं हैं। आशंका है कि निवेश निर्णयों में देरी के कारण भी निवेश-प्रेरित विकास घटने से वैश्विक विकास दर घटेगी। वर्तमान में तो व्यापार युद्ध, वैश्विक आर्थिक संकट को जन्म दे सकता है। इनका पूरा प्रभाव निकट भविष्य में दिखेगा, जब उच्च पारस्परिक प्रशुल्क दरें कीमतों पर अपना प्रभाव छोड़ेंगी।

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भारत से अमेरिका को कुल निर्यात में 18 फीसद हिस्से के साथ इंजीनियरिंग सामान 26.8 फीसद, पेट्रोलियम उत्पाद 14.8 फीसद, औषधियां दस फीसद, इलेक्ट्रानिक उपकरण 8.6, आभूषण 6.8, दवाइयां 6.8, रसायन उत्पाद 6.5 फीसद तथा सूती उत्पाद 7.6 फीसद के साथ प्रमुख हैं। भारत अमेरिका को जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्यातक है। एशियाई देशों पर अमेरिकी शुल्क के कारण भारत के लिए वैश्विक व्यापार में अपनी स्थिति मजबूत बनाने का अवसर भी है। हालांकि, यह अपने आप नहीं होगा, इसके लिए भारत को बड़े पैमाने पर उत्पादन, मूल्य संवर्धन और प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार के लिए ठोस प्रयास जरूरी है।

कपड़ा और परिधान का बड़ा निर्यातक देश है भारत

भारत कपड़ा और परिधान का बड़ा निर्यातक देश है, लेकिन उसे एशिया के छोटे देशों से कड़ी प्रतिस्पर्धा मिलती रही है। चीन दुनिया में परिधानों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता है, जबकि उत्पादन के अन्य प्रमुख केंद्रों में थाईलैंड और श्रीलंका भी शामिल हैं। चूंकि इन सभी देशों पर उच्च पारस्परिक शुल्क लगाए गए हैं, भारत के लिए इस क्षेत्र में अवसर बनेंगे। भारतीय निर्यात में रत्न और आभूषण का दूसरा सबसे अहम हिस्सा है। भारत का अमेरिका के आभूषण आयात में लगभग 30 फीसद हिस्सा है, इसको नुकसान हो सकता है। भारत मोबाइल फोन सहित इलेक्ट्रानिक मशीनरी और उपकरणों का शीर्ष निर्यातक है तथा मोबाइल फोन का निर्यात तेजी से बढ़ कर लगभग छह अरब डालर हो गया है। वियतनाम और थाईलैंड पर अपेक्षाकृत उच्च शुल्क दरों से भारत के पास इलेक्ट्रानिक्स विनिर्माण के पसंदीदा गंतव्य के रूप में उभरने का अवसर है।

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अगर अमेरिका में मंदी आती है, तो वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ-साथ भारत को भी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। पारस्परिक शुल्क के फायदे-नुकसान व्यापक हितों के परिप्रेक्ष्य में अमेरिका को समझने होंगे। भारत को भी एक ठोस रणनीति के साथ आर्थिक एवं कूटनीतिक विकल्पों के सहारे ‘विकसित भारत’ के लक्ष्य की ओर मजबूती से बढ़ना होगा।