हरित अर्थव्यवस्था केवल पर्यावरण की रक्षा या संसाधनों के संरक्षण तक सीमित कोई तकनीकी अवधारणा नहीं है। यह आर्थिक विकास, सामाजिक समावेशन और पारिस्थितिकीय संतुलन का ऐसा संयुक्त विचार है, जिसकी सफलता का वास्तविक आधार समाज के सभी वर्गों की समान, गरिमामय और निर्णायक भागीदारी में निहित है। इसमें सबसे अहम भूमिका महिलाओं की है। महिलाएं केवल पर्यावरण की पारंपरिक रक्षक नहीं हैं, बल्कि परिवर्तन की वाहक भी हैं। वे नवाचार, नेतृत्व और समावेशी विकास की धुरी हैं। इसलिए भारत और दुनिया के लिए यह समय केवल सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में नहीं, बल्कि एक पर्यावरणीय और आर्थिक अनिवार्यता के रूप में महिलाओं की भूमिका को स्वीकार करने और उसे विस्तार देने का है।

हरित अर्थव्यवस्था का विचार उस मोड़ पर है, जहां इसे केवल एक पर्यावरणीय उपाय मानना न केवल अपर्याप्त है, बल्कि खतरनाक भी हो सकता है। यह अवधारणा संसाधनों की रक्षा, सतत विकास और न्याय आधारित समाज की नींव रखने की आकांक्षा है। इसमें तकनीकी नवाचार, अक्षय ऊर्जा, टिकाऊ कृषि और आधुनिक प्रौद्योगिकी का स्थान तो है ही, पर इसकी आत्मा समावेशिता में बसती है। दुर्भाग्यवश, आज भी जलवायु नीति और हरित विकास के ढांचों में महिलाओं की उपस्थिति को अक्सर ‘लाभार्थी’ या ‘संवेदनशील समूह’ तक ही सीमित कर दिया जाता है, जबकि वे इस पूरी प्रक्रिया की निर्माता, संचालक और नेतृत्वकर्ता हो सकती हैं। यह सोच जितनी सीमित है, उतनी ही नुकसानदेह भी, क्योंकि जलवायु संकट लैंगिक रूप से तटस्थ नहीं है।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पूरी मानवता पर

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पूरी मानवता पर है, लेकिन इसका सबसे तीव्र और जटिल प्रभाव महिलाओं पर पड़ता है। जब हिमनद पिघलते हैं, समुद्र का स्तर बढ़ता है, गर्मी और सूखे से कृषि प्रभावित होती है, तब इसका सीधा बोझ महिलाओं के कंधों पर आता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रपट के अनुसार, आने वाले पच्चीस वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण लगभग 15.8 करोड़ महिलाएं और लड़कियां गरीबी की गर्त में पहुंच सकती हैं। यह आंकड़ा सिर्फ एक चेतावनी नहीं है, बल्कि उस गहरे लैंगिक असंतुलन की तस्वीर है, जिसे जलवायु संकट और गहरा कर रहा है।

भारत जैसे देश में यह संकट और भी अधिक जटिल है। यहां पानी, ईंधन, भोजन और देखभाल की जिम्मेदारी पारंपरिक रूप से महिलाओं पर रही है। कुछ गांवों में आज भी महिलाएं सुबह दूर तक पैदल चल कर पानी लाती हैं, जंगलों से जलावन की लकड़ी बटोरती हैं, खेतों में काम करती हैं और घर-परिवार की देखभाल में दिन-रात लगी रहती हैं, लेकिन इन सभी कार्यों को उत्पादक काम नहीं माना जाता। जब जंगल कटते हैं, तो र्इंधन के विकल्प खत्म हो जाते हैं। जब फसलें चौपट होती हैं, तो सबसे पहले भूख की चिंता महिलाओं को सताती है। आपदा के समय महिलाएं अपने बच्चों और बुजुर्गों की रक्षा में सबसे अधिक जोखिम उठाती हैं। फिर भी आपदा प्रबंधन योजनाओं, विकास नीतियों और हरित अर्थव्यवस्था के विमर्श में उनकी वास्तविक भूमिका लगभग अदृश्य रहती है।

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हरित अर्थव्यवस्था की दिशा में भारत में जो प्रयास हो रहे हैं, उनमें ऊर्जा क्षेत्र में सबसे बड़ा परिवर्तन देखा जा रहा है। सरकार ने सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बायोगैस और स्वच्छ रसोई ईंधन को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनाएं चलाई हैं। मगर इन योजनाओं में भी महिलाओं की भागीदारी औपचारिक और प्रतीकात्मक ही रही है। देशभर में मकानों की छत पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी मात्र ग्यारह फीसद है, जबकि वैश्विक औसत 32 फीसद है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं का योगदान केवल अठारह फीसद है, जबकि उन्हें समान अवसर, संसाधन और निर्णय की ताकत मिले, तो यह आंकड़ा कई गुना बढ़ सकता है। देश की महिलाएं विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित की पढ़ाई में वैश्विक स्तर पर अग्रणी हैं, लेकिन जब नौकरी, नेतृत्व और नीति निर्माण की बात आती है, तो वे पिछड़ जाती हैं। यह केवल व्यक्तिगत विफलता नहीं, बल्कि संस्थागत विफलता है। इस विफलता की सबसे गहरी जड़ जलवायु वित्त में लैंगिक दृष्टि की अनुपस्थिति है।

महिला नेतृत्व वाली जलवायु पहलों को जब न तो वित्तीय सहायता मिलती है

ओईसीडी की एक रपट बताती है कि वैश्विक जलवायु वित्त का केवल 0.01 फीसद हिस्सा ही ऐसे कार्यक्रमों में जाता है, जो लैंगिक रूप से संवेदनशील हैं। महिला नेतृत्व वाली जलवायु पहलों को जब न तो वित्तीय सहायता मिलती है, न तकनीकी प्रशिक्षण और न ही निर्णय में हिस्सेदारी, तब उनके नवाचार, परंपरागत ज्ञान और सामुदायिक अनुभव हाशिये पर चले जाते हैं। महिला किसान, जो अपने श्रम, संवेदनशीलता और ज्ञान से कृषि में योगदान करती हैं, वे बैंक से ऋण लेने में सबसे अधिक पीछे रह जाती हैं। नीति निर्माण में भी उनकी भागीदारी न के बराबर है। ऊर्जा और पर्यावरण जैसे क्षेत्रों में निर्णय लेने वाले शीर्ष पदों पर महिलाओं की हिस्सेदारी मात्र चौदह फीसद है। जब नीति निर्माण में महिलाएं नहीं होतीं, तब उनके अनुभव, जरूरतें और दृष्टि भी नीतियों से गायब हो जाती हैं।

एक और बड़ी चुनौती देखभाल कार्यों की सामाजिक और संस्थागत उपेक्षा है। भारत में ग्रामीण महिलाएं प्रतिदिन औसतन चौदह घंटे तक बिना वेतन के देखभाल कार्यों में व्यस्त रहती हैं। इसमें पानी लाना, भोजन पकाना, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल, पशुओं को चारा देना, घर की सफाई और त्योहारों की तैयारी शामिल है। ये सभी कार्य न तो जीडीपी में गिने जाते हैं, न ही इन पर कोई नीति बनती है। जब महिलाएं इस अदृश्य श्रम के बोझ से दबी होती हैं, तब वे किसी प्रशिक्षण, रोजगार या उद्यमशीलता कार्यक्रम में भाग लेने के अवसर खो देती हैं। यही अदृश्यता हरित अर्थव्यवस्था को अधूरा बना देती है।

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फिर भी, उम्मीद की किरणें दिखाई देती हैं। भारत में अनेक महिला स्वयं सहायता समूह सौर ऊर्जा, जल संरक्षण, कचरा प्रबंधन और जलवायु अनुकूल कृषि में अभूतपूर्व काम कर रहे हैं। राजस्थान और महाराष्ट्र में महिलाएं सौर लैंप बना कर गांव-गांव रोशनी पहुंचा रही हैं। झारखंड और ओड़ीशा में महिलाएं जंगलों के संरक्षण में नेतृत्वकारी भूमिका निभा रही हैं। नेपाल, बांग्लादेश और केन्या जैसे देशों में महिला समूह बायोगैस संयंत्र और स्वच्छ जल योजनाएं सफलतापूर्वक चला रहे हैं।

हरित अर्थव्यवस्था की वास्तविक सफलता इस बात में निहित है कि वह केवल तकनीकी नवाचार या कार्बन उत्सर्जन में कटौती तक सीमित न रहे, बल्कि सामाजिक न्याय और समावेशी विकास से गहराई से जुड़ी हो। यह न भूला जाए कि पर्यावरणीय संकट मानवता का संकट है और इसका समाधान केवल तकनीकी ही नहीं, मानवीय पहलू से भी होना चाहिए। महिलाएं न केवल पर्यावरणीय चेतना की संवाहक हैं, बल्कि उनके पास वह सामूहिक चेतना, संबंधों का ताना-बाना और व्यावहारिक ज्ञान है, जो किसी भी हरित परिवर्तन को जमीनी स्तर पर प्रभावशाली और टिकाऊ बना सकता है। भारत जैसे देश के लिए यह चुनौती और अवसर दोनों है। जलवायु संकट की अग्रिम पंक्ति में खड़ी महिलाओं को यदि परिवर्तन की अग्रिम पंक्ति में लाया जाए, तो भारत न केवल अपने राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त कर सकता है, बल्कि वैश्विक दक्षिण का नेतृत्व करते हुए एक नई विकास दृष्टि भी प्रस्तुत कर सकता है।