स्‍वतंत्रता दिवस समारोह के ठीक एक सप्ताह बाद देश ने चंद्रयान-3 का चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर उतरना देखा, ऐतिहासिक उपलब्धि को सराहा और आनंद मनाया। यह एक ऐसा अवसर था, जब देश के हर नागरिक का माथा ऊंचा हुआ, उस दिन कोई भारतीय अप्रसन्न हो ही नहीं सकता था। स्वतंत्रता के पश्चात भारत की विज्ञान, तकनीकी और अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति सराहनीय रही है। कितना अच्छा होता यदि देश के राजनीतिक दलों के चर्चित लोग भी बिना लाग – लपेट या पूर्वाग्रहों से निकल कर एक दूसरे को बधाई देते, भारत के वैज्ञानिकों की सराहना करते।

इस वर्ष 15 अगस्त को भारत ने अपना 77वां स्वतंत्रता दिवस मनाया। वे लोग जिनकी स्मृति में 15 अगस्त 1947 का दिन आज भी ताजा है, निश्चित ही इन 77 वर्षों में हुए परिवर्तन पर निगाह डाल रहें होंगे। अपने जीवन के अनुभव के आधार पर वे जानते हैं कि परिवर्तन प्रगति का एक अपरिवर्तनीय नियम है। विभाजन की विभीषिका किसी भी देश के सामान्य जन के लिए राजनीतिक निर्णय के कारण उत्पन्न अत्यंत कष्टकर स्थिति का ऐसा उदाहरण था जिसका कोई सानी इतिहास में उपलब्ध नहीं है।

हर गांव और कस्बे ऐसे परिवारों से लोग परिचित थे जिनके परिजनों में से लोगों ने स्वतंत्रता में भाग लिया था, जेल गए थे या जिन्हें काला पानी या फांसी की सजा मिल चुकी थी। सभी लोग गांधी का नाम अत्यन्त श्रद्धा और सम्मान के साथ लेते थे, देश-विदेश में पंडित नेहरू को लोग असीम प्यार करते थे, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस तथा ऐसे ही अनेक बलिदानियों के संबंध में जानकार और उनके साहस की कहानियां सुनकर लोगों में जोश भर जाता था। व्यक्तिगत रूप से मुझे सबसे पहले इलाहाबाद में अनेक स्वतंत्रता सेनानियों के दर्शन किए और उनको सुनने के अवसर मिले। ऐसे अवसर मैं ढूंढ़ता रहता था।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय जाने पर छात्र संघ कार्यालय के सामने लगी हुई लाल पद्म धर सिंह की प्रतिमा को देखकर अपनत्व का ऐसा एहसास हुआ जो आज तक उसी सघनता के साथ मन मष्तिक में विद्यमान है। अंग्रेजों के विरुद्ध छात्रों के एक समूह का नेत्रत्व करते हुए उन्होंने सामने से सीने पर गोली खाई थी। पंडित नेहरू का तो सारा इलाहाबाद दीवाना था। उन्हें लोग पारिवारिक जन की तरह प्यार करते थे।

राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के एक सम्मान समारोह में भारत के राष्ट्रपति डा राजेंद्र प्रसाद आए और एक अपार जन समूह ने उन दोनों मनीषियों का जो स्वागत किया वह अद्वितीय था। डा राम मनोहर लोहिया पंडित नेहरू के ऊपर किए जा रहे खर्चे तक का विवेचन पैसा-आना-पाई तक करते थे और लोग इसे अत्यंत रुचि से सुनते थे, डा लोहिया की विश्लेषण क्षमता और विद्वता का सभी बहुत सम्मान करते थे लेकिन नेहरू के प्रति आदर भाव एवं अपनत्व में कमी नहीं आती थी।

एक अवसर पर आचार्य कृपलानी विश्वविद्यालय के सीनेट हाल में भाषण देने पधारे। वे उस समय कांग्रेस से अलग हो चुके थे। भाषण प्रारंभ होने के कुछ समय बाद ही विद्यार्थियों के एक समूह ने कुछ व्यवधान डालने का प्रयास किया जिसमें एक वाक्य यह था कि ‘आपके बहुमूल्य शब्द हमारे पास तक पहुंच नहीं रहे हैं’। कृपलानी जी ने जिस सौम्यता-मिश्रित दृढ़ता से उन्हें शांत कराया वह व्यक्तित्व की गरिमा का ऐसा उदाहरण था जो मेरे मन मानस पर आज भी अंकित है।

कृपलानी जी ने केवल यह कहा, ‘बैठ जाओ, मेरे शब्द न सुनने से तुम्हें कोई नुकसान नहीं होगा, तुम्हारे लिए मेरे शब्दों का मूल्य ही क्या है!’ मेरे जैसे 16 साल के विद्यार्थी को तो बाद में समझ में आया कि इस एक वाक्य ने अगले 50 मिनट तक जो शांति उस हाल में स्थापित कर दी उसके लिए त्याग एवं तपस्या का संपूर्ण जीवन आवश्यक था जो कृपलानी जी ने व्यतीत किया था।

व्यक्तिगत रूप से 1977 से मेरा परिचय पंडित काशीनाथ त्रिवेदी जी से हुआ। उनकी आयु उस समय लगभग 80 वर्ष की थी, उन्होंने गांधी जी के आश्रम में रहकर स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लिया था। वह सदा ही दो धोतियां, दो कुर्ते और दो अंगौछे अपने लिए इस्तेमाल में लाते थे। वे अक्सर भोपाल आते थे, मुझे सूचित करते थे और मैं अधिक से अधिक समय उनके साथ बिताता था।

उस समय मैं एक बड़ी संस्था का प्राचार्य था जिसके साथ एक सीबीएसई का स्कूल भी जुड़ा था। मैं काशीनाथ जी को वहां मुख्य अतिथि बनाकर लाया। करीब 800 विद्यार्थी और 50 अध्यापक उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही मैं उनके साथ आयोजन झ्रस्थल पर पहुंचा, छात्रों में हास्य की एक लहर धीरे-धीरे उठी। आशय स्पष्ट था, उन्होंने ऐसा मुख्य अतिथि पहले कभी नहीं देखा था।

काशीनाथ जी के कुर्ते और धोती बहुत दिनों से प्रयोग में आ चुके थे। वह एक कुर्सी पर बैठे और बाकी सभी लोग खड़े रहे। केवल 15 मिनट वह गांधी और उनके बचपन पर बोले। भाषण समाप्त होने पर सभी विद्यार्थी जिस आत्मीयता के साथ उनके पास आना चाह रहे थे, आटोग्राफ लेना चाहते थे, वह अद्भुत दृश्य था! मेरे लिए अविष्मरणीय था।

काशीनाथ जी ने 15 मिनट में ही हर विद्यार्थी से अपने को जोड़ लिया था और अपनत्व स्थापित कर लिया था। इतने बड़े समूह में इतना बड़ा परिवर्तन प्राप्त कर लेना मैंने आज तक भी कभी नहीं देखा है। काशीनाथ जी अनेक बार अकेलापन महसूस करते थे। बदलाव की बयार के झोंके हर तरफ बहने लगे थे। गांधी भवन में पुस्तकालय का उद्घाटन करने उन्होंने मुझे बुलाया। मैंने निवेदन किया कि भोपाल में उच्च पदों पर विराजमान अनेक लोग उपलब्ध हैं, वरिष्ठ हैं, उनमें से किसी को बुलाया जाय। वे बोले, अब गांधी के लिए किसी के पास समय नहीं हैं।

यह सत्ता और स्वार्थ का समय है, सेवा और त्याग का नहीं। करीब तीन दशक पहले काशी नाथ त्रिवेदी जी ने मुझे अपने इस वाक्य का अर्थ समझाया था। जिस त्वरित गति से गांधी के मूल्य, जीवन आदर्श और अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के प्रति संवेदना जैसे मानवीय मूल्य धुंधले पड़ते जा रहे थे, वह धुंधलका गहराता ही जा रहा है।

मैंने उस परिवर्तन को देखा है जिसमें स्वतंत्रता मिलने के पहले दो दशक तक स्वीकार्य रहे मूल्य और जनहित के लिए तत्परता की सभी मान्यताएं बाद में कैसे तेजी से धूमिल होती गई! यह ह्रास केवल राजनीति में ही नहीं, हर क्षेत्र में हुआ है। जब इनमें से कुछ का वर्णन मैं आज के युवाओं के समक्ष करता हूं तो वह आश्चर्य चकित रह जाते हैं।

मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्रातक तथा स्रातकोत्तर उपाधि तो प्राप्त की ही, भौतिकी में डाक्टरेट भी की। कभी भी मुझे यह ज्ञात नहीं हुआ कि मेरे परीक्षक कौन हैं या कापियां किसके पास गई हैं। कभी कोई पर्चा लीक नहीं हुआ। विश्वविद्यालय या महाविद्यालय का अध्यापक ट्यूशन करे या कोचिंग संस्थान से जुड़े, ऐसा उदाहरण ढूंढ पाना असंभव था।

विश्वविद्यालय के ऐसे कोई नियम नहीं थे जो इसे प्रतिबंधित करें लेकिन यह अलिखित नैतिकता थी कि अध्यापक को विश्वविद्यालय के कार्य और स्वाध्याय के अतिरिक्त जो भी समय मिले वह विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध रहे। मैं और मेरे सहपाठी अनेक अवसरों पर इससे लाभांवित होते रहते थे। आज यह स्थितियां बदल गई है। नैतिकता और त्याग किताबों में पढ़े जाने वाले शब्द बनकर रह गए हैं।

महात्मा गांधी का चित्र हर कार्यालय में लगाया जाता था। कार्यालय में काम करने वालों पर उसका प्रभाव धीरे-धीरे कम होता गया। कुछ राज्य सरकारों ने तो आधिकारिक तौर पर सरकारी दफ्तरों से गांधी जी का चित्र हटा दिया है।

मेरे जैसे लोग जब युवा थे तब हम सभी का विश्वास था कि इस देश में छुआ-छूत ही समाप्त नहीं होगी, जाति प्रथा भी पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। हमारा यह भी विश्वास था कि भारत में लोकतंत्र जिस तरह से जड़ें जमा रहा है वह भविष्य के लिए अत्यंत आशाजनक है और देश को ऐसे नेता मिलेंगे जो मनसा वाचा कर्मणा गांधी जी के पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को आगे लाने के लिए अपना सारा जोर और जीवन लगाएंगे।

हम सब कितने गलत थे इसका वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जेपी जैसे सेनानी के शिष्यों ने उनका नाम लेकर अपनी राजनैतिक साख बनाई मगर सत्ता में पहुंचकर अपनी तिजोरियां भरने के लिए और सत्ता में बने रहने के लिए जाति आधारित राजनीति करने में किसी हिचक या लज्जा का अनुभव नहीं किया।

इस समय किसी भी 18-20 वर्ष के युवा से चर्चा करने पर स्पष्ट हो जाएगा कि वह जाति प्रथा के समाप्त होने के सपने नहीं देखता है। वह व्यावहारिक हो चुका है और जानता है कि चाहे विश्वविद्यालय में प्रवेश हो या कहीं पर नौकरी की संभावना हो, जाति आधारित भेद-भाव का समाना उसे करना ही पड़ेगा। चंद्रयान-3 सकारात्मक परवर्तन का ओजस्वी उदाहरण है और देश के युवाओं को इसी से प्रेरण लेनी है, जो अस्वीकार्य है उसे भी जानना तो है मगर उससे देश को बचाने के लिए नैतिकता के प्रति प्रतिबद्धता को बढ़ाना भी आवश्यक है।