चुनाव आयोग (ECI) एक बार फिर राज्य सरकार से टकराव की स्थिति में है। मुद्दा यह है कि क्या चुनाव ड्यूटी पर तैनात अधिकारियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई का अधिकार आयोग के पास है या नहीं। पश्चिम बंगाल सरकार ने मतदाता सूची में गड़बड़ी के आरोपी चार अधिकारियों पर कार्रवाई करने से इनकार कर दिया है। उसका तर्क है कि फिलहाल कोई चुनाव घोषित नहीं हुआ है और इस समय आदर्श आचार संहिता भी लागू नहीं होती।

यह विवाद एक पुराने सवाल को फिर से जीवित कर रहा है। यह सवाल है कि एक बार जब सरकारी अधिकारियों को चुनाव ड्यूटी पर लगा दिया जाता है, तो आयोग का अनुशासनात्मक नियंत्रण कहां तक सीमित रहता है?

डॉ. बी. आर अंबेडकर ने क्या कहा था?

संविधान सभा ने चुनाव आयोग की भूमिका और शक्तियों पर विस्तार से विचार किया था। 15 जून 1949 को डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने कहा था कि मुख्य चुनाव आयुक्त को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान संरक्षण मिलना चाहिए ताकि चुनाव से जुड़े मामलों पर कार्यकारी सरकार का कोई दबाव न हो।

कर्मचारियों की नियुक्ति पर बहस के दौरान अंबेडकर ने आयोग के लिए स्थायी नौकरशाही खड़ी करने का विरोध किया। उनका तर्क था कि यह महंगा और अनावश्यक होगा, क्योंकि चुनाव का काम कभी बहुत होता है और कभी बिल्कुल नहीं। इसके बजाय उन्होंने कहा कि आयोग प्रांतीय सरकारों से अधिकारी “उधार” ले सकता है और प्रतिनियुक्ति के दौरान वे केवल आयोग के प्रति जवाबदेह रहेंगे।

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इस प्रकार संविधान निर्माताओं ने ऐसा चुनाव आयोग चाहा, जिसके पास अपना स्थायी स्टाफ न हो, लेकिन चुनाव अवधि में उसके अधीन तैनात अधिकारियों पर पूर्ण अधिकार हो।

1988 का संशोधन और कानूनी अधिकार

लगभग चार दशक बाद, 1988 में संसद ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियमों (1950 और 1951) में संशोधन कर इस व्यवस्था को औपचारिक रूप दिया।
धारा 13CC और 28A के तहत मुख्य निर्वाचन अधिकारी से लेकर मतदान अधिकारियों और चुनाव ड्यूटी पर लगे पुलिसकर्मियों तक सभी को प्रतिनियुक्ति पर आयोग के अधीन माना गया और चुनाव अवधि में वे उसके “नियंत्रण, अधीक्षण और अनुशासन” के अधीन हो गए।

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन बनाम केंद्र

कानून स्पष्ट होने के बावजूद विवाद खत्म नहीं हुए। सबसे बड़ा टकराव टी. एन. शेषन (1990–96) के कार्यकाल में हुआ। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद चुनाव स्थगित हुए और भारी सुरक्षा के बीच कराए गए। शेषन ने अधिकारियों की नियुक्ति और अनुशासन पर पूरा नियंत्रण अपने हाथ में लेने की कोशिश की।

1993 में तमिलनाडु के रानीपेट उपचुनाव में केंद्र ने उन्हें केंद्रीय बल नहीं दिए। इसके विरोध में शेषन ने 31 चुनाव स्थगित कर दिए। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और अंततः 2000 में समझौते के जरिए सुलझा।

समझौते के अनुसार, आयोग चुनाव ड्यूटी में लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों को निलंबित कर सकता था, उन्हें बदल सकता था और आचरण रिपोर्ट के साथ उनके मूल कैडर में वापस भेज सकता था। साथ ही सक्षम प्राधिकारी को अनुशासनात्मक कार्रवाई करने और छह महीने में आयोग को रिपोर्ट देने के लिए बाध्य किया गया। केंद्र और राज्यों को इस व्यवस्था का पालन करने के निर्देश दिए गए।

अब पश्चिम बंगाल के साथ टकराव दिखाता है कि 2000 का ढांचा भी पूरी तरह कारगर नहीं रहा है। कई बार राज्य सरकारों ने आयोग के निर्देशों को मानने से इनकार किया है या अधिकारियों के स्पष्टीकरण को पर्याप्त मान लिया है। वर्तमान मामले में आयोग ने 13 अगस्त को राज्य के मुख्य सचिव को तलब किया और एक सप्ताह की समयसीमा दी, जो 21 अगस्त को समाप्त हो रही है। अगर राज्य टाल-मटोल जारी रखता है, तो आयोग केंद्र से दखल देने का आग्रह कर सकता है। अंतिम स्थिति में वह 1950 और 1951 के अधिनियमों का हवाला देकर अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है।