अंंग्रेजी का एक शब्द है- ‘बर्नआउट’। आजकल इसका हिंदी में भी उपयोग होने लगा है। इसका अर्थ है बहुत अधिक काम के कारण होने वाली थकान से अवसाद, चिड़चिड़ापन और हमेशा थकान का अनुभव होना। जैसे किसी वाहन में ईंधन खत्म हो जाए, और वह रुक जाए। ऐसी ही हालत बहुत अधिक काम की वजह से किसी इंसान की हो जाए, तो उसे ‘बर्नआउट’ का शिकार कहा जाएगा। कार्पोरेट जगत में तो यह एक आम बात है। कम उम्र में ही लोग थक कर चूर और कई बीमारियों का शिकार हो जाते हैं।
गौरतलब है कि देश में शिक्षण के पेशे में ‘बर्नआउट’ की गंभीर समस्या है, पर इस पर शायद ही कोई गंभीरता से ध्यान दे रहा हो। शिक्षक लगातार इस कोशिश में रहते हैं कि वे विद्यार्थियों को बेहतर शिक्षा दें। शायद यह बात सभी स्कूलों पर लागू नहीं होती, तो भी ऐसे कई स्कूल तो हैं ही, जिनमें यह स्थिति हमेशा देखी जा सकती है।
शिक्षक तनाव महसूस करते हैं, उन्हें शारीरिक और मानसिक थकान का अनुभव होता है, तो वे अक्सर अपने कामकाज को लेकर उदासीन हो जाते हैं। नौकरी में आनंद नहीं बचता, मगर नौकरी करना मजबूरी भी है। इसका सबसे बुरा असर पड़ता है बच्चों पर, जो स्कूल या कालेज में पढ़ रहे होते हैं। ऐसे में शिक्षक अक्सर शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से क्लांत हो जाते हैं। विरक्ति और उदासीनता भी इसी स्थिति में जन्मती है।
शिक्षक में अत्यधिक थकान की कई वजहें होती हैं। स्कूलों में शिक्षकों की संख्या अक्सर आवश्यकता से कम होती है। जब कुछ शिक्षक गैरहाजिर होते हैं, तो समस्या और बढ़ जाती है। बाकी शिक्षकों को अनुपस्थित शिक्षकों की कक्षाएं लेनी पड़ती हैं, जिसका अर्थ है अतिरिक्त जिम्मेदारी और दोहरा तनाव। अक्सर स्कूलों में शिक्षकों को प्रशासनिक काम भी सौंप दिए जाते हैं।
नए छात्रों के प्रवेश के समय, या नए सत्र की शुरुआत में अक्सर ऐसा होता है। जब देश में चुनाव या कोई महामारी जैसी घटना हो जाए तो शिक्षकों को भी ऐसे कामों में लगा दिया जाता है, जिसका न उन्हें अनुभव होता है और न उनमें रुचि। कभी-कभार शहर में या दूर कहीं विशेष प्रशिक्षण के लिए जाना पड़ता है। यह सब काम के बोझ को बढ़ाता है। इस तरह की व्यस्तताओं के चलते शिक्षक न खुद पर ध्यान दे पाते हैं और न ही बच्चों का हित कर पाते हैं। पाठ्यक्रम पूरा करने का काम सीमाबद्ध और तनावपूर्ण होता है। कुछ नया करने का दबाव एक नए तनाव का स्रोत ही बनता है।
शिक्षण के पेशे में शिक्षक को लगातार बच्चों के संपर्क में बने रहना पड़ता है, उनके साथ संवाद रखना पड़ता है। इसका भावनात्मक दबाव अधिक रहता है। बच्चों की ऊर्जा बड़ों की तुलना में बहुत अधिक होती है और उनके साथ लगातार बझे रहने में ही शिक्षक थक जाया करते हैं। रिहाइशी स्कूलों में तो यह समस्या बहुत गंभीर है। खासकर तब, जब वार्डन और शिक्षक एक ही व्यक्ति हो। हर उम्र के बच्चों की अपनी समस्याएं होती हैं।
कुछ उपद्रवी होते हैं, कुछ बड़े गुस्सैल, कुछ साथ मिलकर काम ही नहीं कर पाते और कई छात्रों को दोस्त बनाने में दिक्कत आती है। किशोर उम्र के बच्चों को पढ़ाने वाले हाई स्कूल के शिक्षकों की समस्या अलग किस्म की होती है। उन्हें एक तरह के मनोवैज्ञानिक सलाहकार का काम भी करते रहना पड़ता है। इस तरह शिक्षकों का बच्चों में भावनात्मक निवेश बहुत अधिक हो जाता है और नतीजा फिर वही होता है- लगातार थकान की हालत में बने रहते हैं।
स्कूलों में सामाजिक, आर्थिक प्रगति के सीमित रास्ते और स्कूल प्रबंधन से अपर्याप्त सहयोग मिलना भी शिक्षकों की पीड़ा का कारण बनता है। अक्सर स्कूल के माहौल में शिक्षक ही अलग-थलग महसूस करने लगते हैं। बच्चे, अभिभावक, प्रबंधन सभी उनसे बहुत अधिक अपेक्षाएं रखते हैं और ये भी उनके लिए अतिरिक्त दबाव का कारण बनती हैं।
ऐसे में, पेशेवर मनोवैज्ञानिक सलाह या काउंसिलिंग के लिए स्कूलों में व्यवस्था होनी चाहिए और तनाव प्रबंधन को लेकर अक्सर कार्यशालाएं कराई जानी चाहिए। कनाडा में शिक्षक को अगर बहुत अधिक तनाव हो जाए, तो उसे एक साल तक की छुट्टी मिल सकती है। इसे तनाव अवकाश या ‘स्ट्रेस लीव’ कहते हैं और इस दौरान उसे अस्सी फीसद तनख्वाह मिलती है।
अक्सर देखा जाता है कि जिम्मेदार शिक्षकों पर काम का बोझ बढ़ा दिया जाता है। यह सही नहीं। काम के बोझ का सुनियोजित, न्यायपूर्ण बंटवारा होना चाहिए। जो शिक्षक ज्यादा जिम्मेदार नहीं, उन्हें प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, ताकि वे अपने काम को समय पर, सही ढंग से कर सकें। यह नहीं कि उनका काम भी किसी जिम्मेदार सहकर्मी को सौंप दिया जाए।
ऐसी भी व्यवस्था हो कि काम के बाद शिक्षक पूरी तरह से अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन पर ध्यान दे सके। काम और जीवन के बीच संतुलन बहुत जरूरी है और इसे अनदेखा करने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, व्यक्ति को भी और संगठन को भी। अगर शिक्षकों पर प्रशासनिक काम का बोझ लाद दिया जाता है, तो यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे इस काम के लिए इच्छुक हैं। ऐसी हालत में उन्हें इसके आर्थिक फायदे मिलें, या फिर अतिरिक्त काम के बदले में अवकाश दिया जाए।
पेशेवर विकास के लिए शिक्षकों के पास पर्याप्त अवसर होने चाहिए। इससे उनका हुनर बढ़ेगा और वे शिक्षण के क्षेत्र में हो रहे नए प्रयोगों से परिचित होंगे। शिक्षकों के ऐसे समूह होने चाहिए, जिसमें वे एक-दूसरे की सहायता कर सकें। इससे उनका दबाव काफी हद तक घटेगा। आपसी सहयोग की संस्कृति स्कूल को हर क्षेत्र में मदद करेगी। आपसी गलतफहमियां दूर होंगी और अनावश्यक तनाव भी घटेगा।
स्कूल की बुनियादी सुविधाओं पर ध्यान देना जरूरी है। शहरों में कई स्कूल बहुमंजिला होते हैं। ऐसे में शिक्षक को बार-बार ऊपर-नीचे जाना पड़ सकता है। अधिक उम्र के शिक्षकों को ज्यादा कक्षाएं निचली मंजिल पर ही मिलें, समय सारिणी बनाने वाले को इसका खयाल रखना चाहिए। शिक्षक सुखी हो, तो पढ़ाई का स्तर बहुत अधिक सुधर सकता है। अगर शिक्षक का अधिक समय तनाव, आपसी मतभेदों और इधर-उधर की बातों में व्यर्थ होता है, तो इसका सबसे अधिक असर बच्चों की पढ़ाई पर पड़ेगा।
एक सुखी, हंसमुख शिक्षक अपने विषय में भी पारंगत होता है और बच्चे उसके विषय को पसंद भी करने लगते हैं। बच्चे विषय को शिक्षक के व्यक्तित्व के साथ जोड़ कर देखते हैं। शिक्षक सरल और सहज, तो विषय भी सरल और सहज। शिक्षक जटिल तो विषय बहुत ही कठिन। बच्चों के मन में यही समीकरण बैठा रहता है। सकारात्मक स्कूली संस्कृति छात्र और शिक्षक दोनों के लिए कितनी लाभकारी होगी, यह आसानी से समझा जा सकता है।
शिक्षकों के लिए जरूरी है उनके रोजमर्रा के जीवन में ऐसा समय भी हो जब उन्हें स्कूल, छात्रों और काम के बारे में बिल्कुल सोचना न पड़े। यह जिम्मेदारी खुद उनकी है। ऐसा समय वे खुद की और परिवार की देखभाल पर बिताएं। परिवार के सदस्यों के बीच स्वस्थ संबंध काम के तनाव को भी घटाते हैं। थकान होती जरूर है, पर इसे रोका जा सकता है। सही साथी-संगियों और बेहतर माहौल तैयार करके इससे बचा जा सकता है। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि उनकी नौकरी में ऐसा बहुत कुछ है, जो सकारात्मक है। आभार का भाव जीवन और जीविका दोनों को कम बोझिल और अधिक सुंदर बना सकता है।