यह वर्ष गर्मी के कीर्तिमान तोड़ रहा है। दुनिया के कई हिस्से अभूतपूर्व गर्मी की चपेट में हैं। इसमें दक्षिणी गोलार्ध- जहां गर्मी होती है, और उत्तरी गोलार्ध- जहां सर्दी होती है, दोनों शामिल हैं। जापान, केन्या, नाइजीरिया, ब्राजील, थाईलैंड, आस्ट्रेलिया और स्पेन में पिछले कुछ हफ्तों में अत्यधिक तापमान रहा। औसत बीस डिग्री तापमान वाले देशों में 45 डिग्री तक तापमान पहुंच जाना किसी त्रासदी से कम नहीं है। यहां तक कि महासागरों का तापमान भी पहले कभी इतना नहीं देखा गया। यह तीव्र तूफानों को बढ़ावा दे सकता है। अगर वर्तमान स्थितियां 2023 की मौसम संबंधी चरम स्थितियों की प्रतिध्वनि लगती हैं, तो इसलिए कि उनके पीछे कई कारक यथावत बने हुए हैं।

दुनिया का बड़ा हिस्सा अब भी अलनीनो की चपेट में है

दुनिया अब भी अलनीनो की चपेट में है, जो प्रशांत महासागर के तापमान चक्र का गर्म चरण है। अलनीनो दुनिया भर में गर्मी को बढ़ाता है, खासकर नवंबर और मार्च के बीच। ‘इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज’ (आइपीसीसी) की छठी मूल्यांकन रपट में पाया गया है कि दुनिया पिछले आकलन के हिसाब से वर्ष 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म हो सकती है। आने वाले समय में भारत को न सिर्फ लगातार तेज गर्मी, बल्कि अत्यधिक वर्षा और अनिश्चित मानसून के साथ-साथ, मौसम संबंधी आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित करना भारत जैसे देशों के लिए जरूरी है, क्योंकि यहां पहले ही चक्रवात, तूफान, बाढ़, सूखा और लू आदि में बढ़ोतरी हो रही है।

ध्रुवीय क्षेत्र शेष विश्व की तुलना में तेजी से हो रहा गर्म

जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी का गर्म होना पूरे विश्व में या पूरे वर्ष में समान नहीं है। ध्रुवीय क्षेत्र शेष विश्व की तुलना में चार गुना तेजी से गर्म हो रहे हैं। पिछले वर्ष प्रकाशित पांचवीं राष्ट्रीय जलवायु आकलन रपट के अनुसार, अमेरिका के कई उत्तरी राज्यों में सर्दियां दोगुनी तेजी से गर्म हो रही हैं। दक्षिण में भूमि की तुलना में अधिक महासागर हैं। महासागर गर्मी को अवशोषित करते और तापमान के उतार-चढ़ाव के खिलाफ ‘बफर’ के रूप में कार्य करते हैं। इसलिए सर्दियां आमतौर पर बहुत अधिक ठंडी नहीं होतीं और गर्मी अक्सर प्रचंड स्तर तक नहीं पहुंचती। मगर पिछले वर्ष से दुनिया के महासागर असामान्य रूप से गर्म हो गए हैं। भूमध्य रेखा के पास विश्व के महासागरों का तापमान अभी उच्च स्तर पर बना हुआ है।

गर्मी को अवशोषित और कार्बन सोख रहे हैं महासागर

गर्मी को अवशोषित करने के अलावा, महासागर लगभग तीस फीसद कार्बन उत्सर्जन को सोख लेते हैं। उच्च तापमान और अधिक कार्बन डाइआक्साइड का संयोजन पानी के रसायन को बदल रहा है। हाल के महीनों में इससे मूंगा चट्टानों जैसे नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को खतरा पैदा हो गया है। विश्व की सभी बड़ी पर्वत मालाएं- आल्प्स, एंडीज, राकीज, अलास्का, हिमालय बर्फ विहीन होती जा रही हैं। हमेशा बर्फ से ढके रहने वाले ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका 150 से 200 घन किलोमीटर बर्फ हर वर्ष खो रहे हैं।

पृथ्वी के महासागर जीवाश्म ईंधन जलने से गर्म हो रहे और अपने ध्रुवीय छोर पर समुद्री बर्फ खो रहे हैं। अंटार्कटिका समुद्र और आकाश दोनों को प्रभावित करता है। जैसे-जैसे इसके चारों ओर का पानी जमता और पिघलता है, इसके ग्लेशियर समुद्र में पिघलते हैं, यह क्षेत्र समुद्री धाराओं में पोषक तत्त्वों के प्रवाह को बदलता और दुनिया भर में बादलों और वर्षा को आकार देता है। शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि अगर अंटार्कटिका की सारी बर्फ पिघल जाए, तो इससे दुनिया भर में समुद्र का स्तर 60 मीटर से अधिक बढ़ सकता है। इधर ऊर्जा से संबंधित कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन 2023 में नई ऊंचाई पर पहुंच गया। अब भी प्रति सेकंड 1,337 टन कार्बन डाइआक्साइड (सीओटू) उत्सर्जित होने के बावजूद हम इतनी तेजी से उत्सर्जन में कमी नहीं कर पा रहे हैं कि जलवायु संबंधी खतरों को उस स्तर के भीतर रख सकें, जिससे हमारी स्वास्थ्य प्रणालियां निपट सकें।

पश्चिमी देश इस समस्या को लेकर कितने उदासीन हैं, यह इस तथ्य से पता चलता है कि वर्ष 1750 से 2022 के बीच वायुमंडल में उत्सर्जित 1.5 लाख करोड़ मीट्रिक टन कार्बन डाइआक्साइड का लगभग 90 फीसद हिस्सा यूरोप और उत्तरी अमेरिका का रहा है। आज भी एक औसत अमेरिकी हर वर्ष वायुमंडल में 14.5 मीट्रिक टन सीओटू उत्सर्जित करता है, जिसकी तुलना में एक औसत भारतीय का सालाना उत्सर्जन 2.9 मीट्रिक टन है।

अगर कुछ देश जानबूझ कर ग्रीन हाउस गैसों के साथ वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं, और परिणामस्वरूप अंटार्कटिका प्रभावित हो रहा है, तो इसके मायने यही हैं कि संधि प्रोटोकाल का उसके हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र को इसके बारे में कुछ ठोस सोचना-करना होगा। गौरतलब है कि विकसित देशों के लिए शुद्ध सकल शून्य लक्ष्य हासिल करना उन पूर्व उपनिवेशों की तुलना में कहीं अधिक आसान है, जो अभी अपने औद्योगिक विकास चक्र के बीच में ही हैं। ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए 2015 के पेरिस जलवायु समझौते को अपनाए हुए लगभग एक दशक हो गया है।

समझौते में सबसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए देशों को 2030 तक वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कटौती करनी है, जो सदी के मध्य तक शुद्ध शून्य तक पहुंच जाएगी। मगर हम विपरीत दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजंसी के एक नए विश्लेषण के अनुसार, 2023 में ऊर्जा से संबंधित उत्सर्जन में 41 करोड़ मीट्रिक टन की वृद्धि हुई। यह लगभग एक हजार से अधिक नए गैस चालित बिजली संयंत्रों से होने वाले वार्षिक प्रदूषण के बराबर है।

बढ़ते ताप के अन्य दुष्प्रभाव भी सामने आए हैं। वर्ष 1991-2000 की तुलना में 2013-2022 में 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में गर्मी से संबंधित मौतों में 85 फीसद की वृद्धि हुई, जो तापमान में बदलाव न होने पर अपेक्षित 38 फीसद वृद्धि से काफी अधिक है। वर्ष 2022 में चरम मौसम की घटनाओं के परिणामस्वरूप होने वाले आर्थिक नुकसान का कुल मूल्य 264 अरब डालर होने का अनुमान लगाया गया था, जो 2010-2014 की तुलना में 23 फीसद अधिक है।

गर्मी के संपर्क में आने से 2022 में वैश्विक स्तर पर 490 अरब संभावित श्रम घंटों का नुकसान हुआ (1991-2000 से लगभग 42 फीसद की वृद्धि), जो निम्न (6.1 फीसद) और मध्यम आय (3.8 फीसद) वाले देशों में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में बड़े नुकसान के लिए जिम्मेदार है। ये नुकसान तेजी से आजीविका को प्रभावित और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने और उबरने की क्षमता को सीमित कर रहे हैं। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या 2024 शेष वर्ष की तुलना में तापमान की नई ऊंचाई पर पहुंचेगा। एनओएए ने अनुमान लगाया कि 22 फीसद संभावना है कि 2024 सबसे गर्म वर्ष होगा, और 99 फीसद संभावना है कि यह शीर्ष पांच में शुमार होगा।