सुख-सुविधाओं की चाह, आधुनिकता की अंधी दौड़ और तीव्र शहरीकरण के इस दौर में शहर तो शहर, देश के अधिकतर गांवों के भीतर भी ‘कंक्रीट के जंगल’ उगने लगे हैं। यही कारण है कि हमारी स्मृतियों में आज भी 40-45 वर्ष पुराने ग्रामीण जीवन के चित्र अंकित हैं, जिन्हें बरबस याद करते हैं। बहरहाल, गांव में पला-बढ़ा कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं, जिसने बचपन में घरेलू पशु-पक्षियों के साथ समय न बिताया या न खेला-कूदा हो। प्राय: सभी ने अपने आंगन में गौरैया को फुदकते और चहकते देखा होगा।

आंगन में लगे तुलसी के पौधे के इर्द-गिर्द और छतों पर चावल के दाने चुगती, कभी बरामदे, कभी ड्योढ़ी, तो कभी कमरों में फुदक-फुदक कर कुछ खाने को ढूंढ़ती फिरती नन्ही गौरैया हमारे परिवार का अभिन्न सदस्य प्रतीत होती थी। घर-आंगन को अपनी चहचहाहट से गुंजायमान कर देने वाली, उदास और दुख से भरे वातावरण में भी अपनी चहक से मिठास भर देने वाली गौरैया एक सुंदर, सुकोमल, सर्व-मनभावन, फुर्तीली और मनुष्यों के आसपास रहने वाली चिड़िया है।

आज के दौर में गौरैया का जीवन संकट में

गौरैया का फुदकना और चहकना प्राय: प्रत्येक व्यक्ति को लुभाता है, किंतु अपनी चीं-चीं के मधुर गान-गुंजन से घर-आंगन को भर देने वाली गौरैया अपनी सुलभ चंचलता, मधुरता और कोमलता के कारण बच्चों को सर्वाधिक प्रिय लगती है। वैसे, घरेलू गौरैया यानी ‘हाउस स्पैरो’ वर्ष में कोई दो से तीन बार प्रजनन करती है। सामान्यतया एक बार में यह पांच से छह अंडे देती है। इसके चूजे प्राय: सत्रह दिन की उम्र में उड़ना शुरू कर देते हैं। गौरैया एक सर्वाहारी चिड़िया है, जो शाक-सब्जियां, फल-फूल एवं कीड़े-मकोड़े, विशेषकर मानसून में पाए जाने वाले विशेष कीड़े भी खाती है। यह फसलों के लिए अत्यंत खतरनाक माने जाने वाले फसलों के शत्रु कीटों को खाकर तथा अपने चूजों को खिला कर कृषि एवं किसानों को मित्रवत लाभ पहुंचाती है। इस प्रकार गौरैया न सिर्फ फसलों को कीटों से बचाती, बल्कि पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के संतुलन में भी बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

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पशु-पक्षियों पर आधारित पुस्तक ‘एनिमल लाइफ’ में वर्णन है कि हमारे घरों और आसपास के इलाकों में पाई जाने वाली गौरैया धूल या रेत में तैरना-खेलना पसंद करती है। यह बेहद सामाजिक है, जो प्राय: अपने समूह के साथ ही रहना पसंद करती है। परिस्थिति एवं परिवेशगत छोटे-मोटे परिवर्तनों के साथ यह दुनिया के अधिकतर देशों में पाई जाने वाली चिड़िया है। हमारे घरों के आसपास पाए जाने वाले कनेर, शहतूत, अनार और अमरूद आदि जैसे छोटे और मध्यम आकार वाले झाड़ीदार पेड़-पौधे सामान्यत: गौरैया के प्रिय निवास स्थान होते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से, बढ़ती हुई जनसंख्या और जन-आकांक्षाओं के परिणामस्वरूप दिनों-दिन बढ़ते कंक्रीट के जंगलों तथा छोटे और मध्यम आकार वाले झाड़ीदार पेड़-पौधों के कम होने के कारण आज गौरैया का जीवन संकट में है।

शहरों में प्रदूषण और विकिरण में लगातार वृद्धि बन रही मुख्य वजह

वैसे, गौरैया की संख्या में कमी आने का एक प्रमुख कारण शहरों में प्रदूषण और विकिरण में लगातार वृद्धि होना भी है, जो भयावह जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण प्रदूषण का कारण बनते हैं। जाहिर है कि इनके कारण पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है, जिससे आजकल गौरैया की असमय मृत्यु होने लगी है। दरअसल, गौरैया अधिक गर्म वातावरण सहन नहीं कर पाती और उसके प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं। इनके अतिरिक्त, ध्वनि प्रदूषण भी अब गौरैया के लिए जानलेवा साबित होने लगा है।

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गौरैया पर पांच दशक से भी अधिक समय तक कार्य करने वाले विशेषज्ञ डेविड स्मिथ का मानना है कि पेट्रोल में शामिल किया जा रहा नया जहरीला यौगिक (बेंजीन और मिथाइल) उन कीड़ों को मार देता है, जिन पर गौरैया अपने भोजन और पोषण के लिए लगभग पूरी तरह निर्भर रहती है। इस प्रकार, देखा जाए, तो दिनोंदिन गौरैया की संख्या में तेजी से कमी आते जाने के ये कुछ मुख्य कारण हैं। गौरतलब है कि दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता और बंगलुरु आदि जैसे बड़े एवं विकसित शहरों में तो यह पहले ही लुप्तप्राय हो चुकी हैं, पर अब अनेक छोटे शहरों में भी यह विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी है।

गौरैया का हमसे दूर होना सिद्ध हो सकता है घातक

सच कहा जाए, तो लगभग एक हजार वर्षों से हमारे घरों तथा आसपास के वातावरण में रहती आई गौरैया का हमसे दूर होते जाना अत्यंत घातक साबित हो सकता है। हालांकि, यह कोई नई समस्या नहीं है। बता दें कि ब्रिटेन की रायल सोसाइटी फार प्रोटेक्शन आफ बर्ड्स (आरएसपीबी) ने दो दशक पहले ही घरेलू गौरैया को अपनी ‘रेड लिस्ट’ यानी ‘लुप्तप्राय प्राणी’ की सूची में शामिल कर लिया था। ब्रिटेन के ग्रामीण इलाकों में 1973 से 1988 के दौरान 58 फीसद की गिरावट दर्ज की गई थी। इसी प्रकार, ‘बीटीओ’ के ‘घोंसला जनगणना कार्यक्रम’ में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में 53 फीसद तक की गिरावट आंकी गई थी।

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गौरैया की बात चली है, तो भला माओ के उस निर्णय को कैसे भुलाया जा सकता है, जिसके कारण 1958 से 1962 के दौर को चीन में ‘ग्रेट लीप फारवर्ड’ यानी आगे की ओर बड़ा कदम कहा गया। हालांकि वास्तव में वह न केवल गौरैया के लिए, बल्कि चीनी लोगों के लिए भी ‘नर्क का दौर’ साबित हुआ था। दरअसल, माओ का मानना था कि चूहे, मच्छर, मक्खी और गौरेया, इन चार ने देश के विकास को बाधित कर दिया है। इसलिए उन्होंने पहले चूहे, मच्छर और मक्खियों को नष्ट करने का अभियान चलाया और फिर गौरेया को समाप्त करने की रणनीति बनाई।

चीन भुगत चुका है घातक परिणाम

प्राकृतिक इतिहास लेखक जिम टोड के मुताबिक, गौरैया को इस सूची में महज इसलिए शामिल किया गया था, क्योंकि वह बहुत अनाज खाती थी। माओ का विचार था कि अनाज सिर्फ इंसानों के लिए होना चाहिए, गौरेया के लिए नहीं। नतीजतन, दो साल के भीतर ही चीन में गौरैया की संख्या नगण्य हो गई। इसके बाद देश भर में कीटों और टिड्डियों की संख्या अनियंत्रित हो जाने से अनाज पर कीटों का हमला शुरू हो गया और टिड्डियों का हमला बहुत अधिक बढ़ गया। इसके कारण पूरे चीन में अनाज की तो बर्बादी हुई ही, उसे भीषण अकाल का भी सामना करना पड़ा। नतीजन, सवा तीन करोड़ चीनी नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी।

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चीनी पत्रकार डाई किंग ने उस अभियान के बारे में लिखा था कि माओ को न तो पक्षियों और जानवरों के बारे में ज्ञान था, न ही वे किसी विशेषज्ञ की सलाह मानने और समझने के लिए तैयार थे। उन्होंने सिर्फ उन्हें समाप्त करने का फैसला लिया, जिसका खमियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ा। बहरहाल, गौरेया को बचाने के लिए सर्वप्रथम हमें गौरैया को महत्त्व प्रदान करना, उससे प्यार करना और उसे गंभीरता से लेना बेहद जरूरी है, जिसकी वह वास्तविक हकदार भी है। अगर एक बार हमने ऐसी पहल शुरू कर दी गई, तो आगे का रास्ता स्वयं ही खुलता चला जाएगा और गौरैया के सुरक्षित आवास-निवास एवं भोजन-पानी की व्यवस्था करना कोई बड़ी बात नहीं रह जाएगी।