भाजपा अब वरुण गांधी से पीछा छुड़ाने के मूड में दिख रही है। वजह है उनके बागी तेवर। वे विरोधी दल के नेता की भूमिका में दिख रहे हैं। न पार्टी के किसी कार्यक्रम में शिरकत करते हैं और न ही पार्टी व सरकार की उपलब्धियों का उल्लेख करते हैं। उल्टे अपनी समानांतर गतिविधियां चला रहे हैं। लखीमपुर की घटना और तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन के दौरान वे सरकार की मुखर आलोचना करते रहे। वरुण की नाराजगी की अपनी दीगर वजह होगी। उनकी मां को मंत्री नहीं बनाया तो उन्हें तो मंत्री पद दे ही सकती थी।

वरुण गांधी को राजनाथ सिंह ने अपनी टीम में महासचिव बनाया था

आखिर तीसरी बार के सांसद ठहरे। पर पार्टी ने उनसे जैसे किनारा कर लिया। वरुण इस समय पीलीभीत से सांसद हैं तो उनकी मां मेनका गांधी सुल्तानपुर से। वरुण को जब भाजपा में शामिल किया गया था तो खासी तवज्जो दी गई थी। आखिर वे भी राहुल गांधी की तरह ही नेहरू गांधी परिवार के युवराज तो थे ही। हालांकि, उनकी मां मेनका गांधी पहले से भाजपा मेंं थी और अटल सरकार की तरह मोदी सरकार में भी उन्हें मंत्री बनाया गया था। वरुण गांधी को तबके पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपनी टीम में महासचिव बनाया था। फिर 2009 में वे पीलीभीत से लोकसभा चुनाव लड़े। इसके लिए मां मेनका ने अपनी सीट छोड़ी और पड़ोस की आंवला सीट से चुनाव लड़ा।

बाद में 2014 के चुनाव में वे सुल्तानपुर चले गए और मां मेनका वापस पीलीभीत आ गई। इसके बाद उनकी महत्त्वाकांक्षा उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री पद पाने की हुई जिसकी कोई गुंजाइश थी ही नहीं। वरुण ने 2019 में फिर सीट बदली और पीलीभीत आ गए। मेनका को बेटे के लिए सुल्तानपुर जाना पड़ा। भाजपा आलाकमान उनकी हरकतों को चुपचाप देख रहा है। पीलीभीत में उनके विकल्प की भी तलाश शुरू हो चुकी है। पीलीभीत के दो बार के विधायक संजय गंगवार इस सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं। पर दूसरा विकल्प पार्टी के पास उनका टिकट काटकर केवल उनकी मां मेनका को टिकट देने का है।

इसके लिए पीलीभीत सीट की पेशकश की जा सकती है। मेनका मान लेंगी तो फिर वैकल्पिक उम्मीदवार की जरूरत नहीं होगी। राहुल गांधी की एकता यात्रा के दौरान हवा उड़ी थी कि वरुण कांगे्रस में जाएंगे। प्रियंका से उनके रिश्ते सामान्य हैं। पर, राहुल गांधी ने यह कहकर वीटो लगा दिया कि वरुण ठहरे आरएसएस की विचारधारा के समर्थक। लिहाजा उनकी कांग्रेस में दाल नहीं गलेगी। ऐसे में संभव है कि वरुण अपने लिए कोई और ठिकाना तलाशेंगे।

नीतीश का नसीब

राकांपा में टूट के बाद भाजपा नेता नीतीश कुमार को खुलेआम ललकार रहे हैं कि शरद पवार के बाद अब उनकी बारी है। उनकी चाणक्य बनने की चमक भी धूमिल हो गई। बिहार में नीतीश के साथ छोड़ जाने के बाद से भाजपा तिलमिलाई हुई है। राजद और जद (एकी) का गठबंधन उसे डरा रहा है। तो क्या रेलवे की नौकरी के बदले जमीन वाले मामले में सीबीआइ ने तेजस्वी यादव को किसी सुनियोजित रणनीति के तहत आरोपी बनाया है। उपेंद्र कुशवाहा व आरसीपी सिंह के बाद जीतनराम मांझी को तोड़कर भाजपा ने नीतीश को झटका देना चाहा था। वे फिर भी विरोधी दलों की पटना में बैठक आयोजित करने के इरादे से पीछे नहीं हटे।

अब अचानक नीतीश को अगर अपने पार्टी विधायकों और सांसदों को बुलाकर उनसे बातचीत की जरूरत महसूस हुई है तो दाल में कुछ काला तो जरूर है। सबसे हैरान करने वाली घटना है उनकी राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश से पटना में डेढ़ घंटे की मुलाकात। हरिवंश को नीतीश ने ही उपसभापति बनवाया था और वे दूसरी बार राज्यसभा सदस्य हैं। नीतीश को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं कि वे वापस राजग में जा सकते हैं और इसके लिए हरिवंश सेतु की भूमिका में हैं। लालू तो कहते ही रहे हैं कि नीतीश कुमार कभी भी पलटी मार सकते हैं, लिहाजा उन्हें पलटूराम कहना चाहिए। ऐसे में प्रधानमंत्री पद की नीतीश की हसरत का क्या होगा?

दोस्ती के अंत की ओर दुष्यंत?

भाजपा आलाकमान हरियाणा को लेकर चिंतित है। सूबे में अगले साल लोकसभा का ही नहीं विधानसभा का चुनाव भी होगा। भाजपा ने 2014 में 90 में से 47 सीटें जीतकर इस सूबे में पहली बार अपने बूते सरकार बनाई थी। इससे पहले पार्टी कभी देवीलाल परिवार तो कभी बंसीलाल की पिछलग्गू बनने को मजबूर थी। गैर जाट मनोहर लाल को पार्टी ने यही सोचकर मुख्यमंत्री बनाया होगा कि जाटों के अलावा बाकी जातियों के मतों का उसके पक्ष में ध्रुवीकरण होगा। लेकिन, 2019 में पार्टी की लोकप्रियता में कमी आई।

लक्ष्य तो 70 सीटें जीतने का रखा था पर मिली महज 40 ही। तो, 10 सीटों वाली दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी के साथ गठबंधन सरकार बनाना मजबूरी हो गई। किसान आंदोलन के दौरान दुष्यंत चौटाला ने भाजपा को गठबंधन तोड़ने की धमकी दी तो जरूर पर उसका कोई असर नहीं हुआ। सियासी पंडित मानते हैं कि भाजपा ने दस साल में बढ़ाने के बजाय हरियाणा में अपना कुछ जनाधार खोया ही होगा। इस नाते उसका जीतना मुश्किल है। सहयोगी जजपा से भी उसकी दाल नहीं गल रही। तभी तो दुष्यंत चौटाला ने मिशन दुष्यंत 2024 अकेले लांच कर दिया।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)