इस तरह शुरू हो गया है वह लोकसभा चुनाव, जो चुनाव न होकर महासंग्राम बन गया है। नरेंद्र मोदी की सुनें तो उनको तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाना जरूरी है, ताकि भारत को विकसित देश बनाने में अपना काम पूरा कर सकें। मोदी कहते हैं कि अभी तक जो उनका काम देखा है, वह सिर्फ ‘ट्रेलर’ है, ‘पिक्चर’ अभी बाकी है। यह ‘पिक्चर’ कैसी होगी, हमने ‘ट्रेलर’ में देख लिया है।

इसमें धर्म, उग्र राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का ऐसा मिश्रण है कि जिसमें कई विदेशी राजनीतिक पंडितों को फासीवाद की परछाई दिखने लगी है। उनको मोदी अभी से तानाशाह दिखते हैं, लेकिन भारत के आम मतदाताओं का दृष्टिकोण अलग है। उनको मोदी पसंद हैं, इसलिए कि उनके जीवन में कई तरह से परिवर्तन आया है मोदी के आने के बाद।

देश के आम मतदाता चाहते हैं कि जिस रफ्तार से उनके जीवन में परिवर्तन आया है पिछले दशक में, उस रफ्तार से आगे भी काम होता रहे। मोदी के दुश्मन भी मानते हैं कि विकास का काम बहुत तेजी से हुआ है पिछले दशक में, लेकिन साथ में यह भी कहते हैं कि इस विकास की कीमत भविष्य में शायद यह होगी कि मोदी अपने तीसरे दौर में लोकतंत्र को समाप्त कर देंगे। कहते हैं मोदी के आलोचक कि तानाशाही के आसार अभी से दिखते हैं।

यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के ‘संकल्प पत्र’ पर भी मोदी की ‘गारंटियां’ हैं और प्रचार में मोदी ऐसे छाए रहे हैं इस बार कि कभी-कभी याद रखना मुश्किल है कि मोदी के पीछे एक राजनीतिक दल भी है। आम मतदाता भी जैसे भूल गए हैं कि उनका वोट भारतीय जनता पार्टी के लिए होगा, सिर्फ मोदी के लिए नहीं। तो क्या मान लिया जाए कि मोदी वास्तव में तानाशाही के रास्ते पर निकल चुके हैं?

इस ‘तानाशाही’ को विपक्ष के नेता इतनी गंभीरता से ले रहे हैं कि कहते हैं अपनी आम सभाओं में कि ये चुनाव खास इसलिए है कि इसके बाद कोई चुनाव नहीं होने वाले हैं। राहुल गांधी बहुत बार कह चुके हैं कि मोदी अगर तीसरी बार प्रधानमंत्री बनते हैं तो न लोकतंत्र रहेगा और न संविधान। यही बात कह रहे हैं विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के सारे बड़े राजनेता, लेकिन ये राजनेता हैं कौन?

सारे के सारे वारिस हैं किसी पुराने राजनेता के, जिसकी मेहरबानी से उनको विरासत में मिला है एक पूरा राजनीतिक दल। मार्क्सवादी और आम आदमी पार्टी राजनेताओं के अलावा विपक्षी गठबंधन में एक भी राजनेता नहीं है, जिसने अपने बल पर राजनीति की ऊंचाइयों तक अपनी यात्रा तय की है। इसी परिवारवादी राजनीतिक सभ्यता के कारण मोदी एक अलग किस्म के राजनेता दिखते हैं भारत के मतदाताओं की नजर में।

पिछले दिनों मेरी बातें हुई हैं कुछ विदेशी पत्रकारों से, जो मुझसे एक ही सवाल करते हैं बार-बार कि मोदी कैसे जीत सकते हैं, जब उन्होंने खुल कर लोकतांत्रिक परंपराओं का उल्लंघन किया है। पूछते हैं मुझसे कि क्या भारत के आम मतदाताओं को दिखता नहीं है कि किस तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री को जेल में डाल दिया गया है? क्या दिखता नहीं है उनको कि किस तरह से कांग्रेस पार्टी पर अचानक पुराने आयकर के मामले दर्ज करके उसको पंगु बनाने की कोशिश हुई है? मैं जब उनसे कहती हूं कि आम मतदाता शायद इन चीजों की अनदेखी इसलिए करते हैं कि उनके लोकतांत्रिक अधिकार अभी तक सुरक्षित रहे हैं।

ऊपर से शायद उनको यह भी दिखता है कि मोदी के सामने अभी तक उनको राष्ट्रीय स्तर पर कोई दूसरा राजनेता नहीं दिखता है, जिस पर वे विश्वास कर सकते हैं। विदेशी पत्रिकाओं में पिछले दिनों राहुल गांधी की खूब तारीफें पढ़ी हैं मैंने। मैं जब इन तारीफों को पढ़ती हूं तो कई बार ऐसा लगता है कि लिखनेवाले ऐसे लोग हैं, जिन्होंने दशकों से नेहरू-गांधी परिवार को भारत का असली राज परिवार माना है।

इंदिरा गांधी के खिलाफ तभी हुए थे ये लोग जब उन्होंने आपातकाल लगाया था, लेकिन यह सिर्फ कुछ दिनों की मुखालफत थी। उनकी हत्या के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो याद है मुझे कि किस तरह जाने-माने पश्चिमी अखबारों ने लिखना शुरू किया था कि भारत का एक सुनहरा दौर शुरू हो गया है।

मैं उस समय इंग्लैंड के ‘संडे टाइम्स’ अखबार के लिए लिखती थी और 1989 वाले लोकसभा चुनाव से पहले जब मैंने अपने संपादक से कहा कि राजीव चुनाव हारने वाले हैं, तो उन्होंने मुझे टोकते हुए कहा कि राजीव कैसे हार सकते हैं, जब वे विश्वनाथ प्रताप सिंह से कहीं ज्यादा सुंदर दिखते हैं। ये संपादक आस्ट्रेलिया से थे, इसलिए मुझे उनको समझाना पड़ा था कि शायद भारत के मतदाता सुंदरता के अलावा कुछ और ढूंढ़ते हैं अपने राजनेताओं में। मोदी की तरफदारी नहीं करना चाहती हूं, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि उनके साथ पश्चिमी पत्रकारों ने नाइंसाफी की है कई बार और गांधी परिवार के साथ कुछ ज्यादा ही रहमदिली रही है।

रही बात इस चुनाव की, तो इसका कुछ शब्दों में निचोड़ निकालना हो तो यही कहना पड़ेगा कि एक तरफ हैं वे लोग, जो अपने आप को लोकतंत्र और संविधान का ठेकेदार मानते हैं और दूसरी तरफ हैं वे, जो विकसित भारत का सपना साकार करने के लिए वोट मांग रहे हैं। एक तरफ हैं वे लोग जो उसी पुराने, गरीब, जातियों में बंटे हुए भारत को वापस लाना चाहते हैं और दूसरी तरफ हैं वे, जो बार-बार याद दिलाते हैं कि जातियों को बांटने से देश का नुकसान होता है, लाभ नहीं। किस तरफ आकर्षित होते हैं भारत के मतदाता, वह देखना अभी बाकी है। फिलहाल महासंग्राम शुरू हो गया है, आगे-आगे देखते हैं होता है क्या!