एक फिल्मी गाने के बोल हैं- ‘इश्क कहते हैं किसे, और आशिकी क्या चीज है’। इश्क और आशिकी की जगह अगर ईमानदारी और बेईमानी शब्द रख दिए जाएं तो आज की राजनीतिक गतिविधियों को समझना आसान हो जाता है। सवाल है कि जब किसी राजनीतिक दल को छोड़ कर जनता के प्रतिनिधि किसी दूसरे राजनीतिक दल में भर्ती हो जाते हैं तो हम उनको बेईमान कहें या ईमानदार? उनकी सुनें, तो उनको दल बदलने पर मजबूर कर रहा है उनका ईमान, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है?
फिलहाल महाराष्ट्र की बात कर रही हूं, जहां पिछले सप्ताह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के दो हिस्से हुए और एक हिस्से के सरदार बनाए गए इस राज्य के उप-मुख्यमंत्री। अजीत पवार ने घमंड से कहा कि उनको चाचा से बेवफाई इसलिए करनी पड़ी कि उनका ईमान उनको मजबूर करके खींच लाया भारतीय जनता पार्टी-शिव सेना सरकार में। ऐसा हुआ कि अचानक जान गए थे कि इस देश के असली राजनेता सिर्फ नरेंद्र मोदी हैं।
अजित पवार अगर शरद पवार के बेटे होते तो यह कदम न उठाना पड़ता
ऊपर से उनको तकलीफ बहुत हो रही थी यह देख कर कि उनके चाचा, शरद पवार, जिनकी बदौलत वे खुद राजनीति में आए और जिन्होंने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का निर्माण किया था, अब तिरासी वर्ष के हो गए हैं, सो उनको आराम करना चाहिए। नई पीढ़ी को मौका मिलना चाहिए। साथ में यह भी कहा कि अगर वे शरद पवार के बेटे होते, भतीजे नहीं, तो उनको यह कदम शायद उठाने की जरूरत न पड़ती।
मैंने बहुत ध्यान से महाराष्ट्र के नए उप-मुख्यमंत्री की बातें सुनीं, यह जानने के लिए कि क्या उनके इस कदम के पीछे जनता का भला भी था, महाराष्ट्र के भविष्य की चिंता भी थी। मगर ऐसी कोई चीज नहीं दिखी। दिखा सिर्फ स्वार्थ, सत्ता की भूख और अवसरवाद। फिर चश्मा बदल कर दूसरी दिशा से देखा तो कोई ऊंचा राजनीतिक आदर्श उस तरफ भी नहीं दिखा, जिस गठबंधन में वे गए हैं।
सत्तर हजार करोड़ रुपए के सिंचाई घोटाले का जिक्र नहीं हो रही
हाल में प्रधानमंत्री ने उस सत्तर हजार करोड़ रुपए के सिंचाई घोटाले का जिक्र किया था, जिसका साया अजीत पवार के सिर पर सालों से मंडरा रहा है। तो, सवाल यह उठा कि ऐसे व्यक्ति का स्वागत करते हैं प्रधानमंत्री? जो सरकार बनी है महाराष्ट्र में सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की पैंतरेबाजी से, प्रधानमंत्री उसका सम्मान करते हैं क्या?
याद कीजिए, किस तरह शिव सेना के विधायकों को गुजरात, असम और गोवा के पांच सितारा होटलों में कई हफ्ते बंदी बनाया गया था, ताकि वे अपना फैसला न बदलें। उस शिव सेना टोली के सरदार आज महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं। जिस व्यक्ति ने सारी साजिश रची थी उस समय की सरकार गिराने की, उस देवेंद्र फडणवीस ने स्वीकार किया है कि उन्होंने जो किया वह बदले की भावना से किया। वे भूल नहीं पाए कभी कि 2011 के विधानसभा चुनाव के बाद उनके साथ उद्धव ठाकरे की शिव सेना ने उनको छोड़ कर बहुत बड़ा धोखा किया था। इस सारी गाथा में लेकिन जो चीजें दिखती नहीं हैं, वे हैं महाराष्ट्र की भलाई की चिंता या जनता के हाल की फिक्र।
भारतीय जनता पार्टी के बारे में कभी कहा जाता था कि यह बाकी राजनीतिक दलों से अलग है, इस बात को लेकर कि वह अपनी विचारधारा के साथ कभी समझौता नहीं करती है। तो क्या इसे सच माना जाए आज भी? जब मध्य प्रदेश और गोवा में ऐसे लोगों को शामिल करके सरकारें गिराई गई थीं, तो कहां गई इस राजनीतिक दल की विचारधारा?
क्या हुआ परिवारवादी राजनीतिक दलों से वह नफरत, जो प्रधानमंत्री बार-बार कहते हैं देश की राजनीति को खोखला कर गई है? प्रधानमंत्री को इतनी नफरत है परिवारवादी राजनेताओं से तो कैसे आ गए हैं भारतीय जनता पार्टी में ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद जैसे लोग, जिनकी राजनीति पूरी तरह परिवारवाद से जुड़ी हुई है?
प्रधानमंत्री कई बार कह चुके हैं कि वे न खाएंगे न खाने देंगे, लेकिन क्या भूल जाते हैं इस बात को जब ऐसे लोगों के साथ रिश्ता जोड़ लेते हैं, जिन पर वे खुद कल तक लगा रहे थे भ्रष्टाचार के आरोप? माना कि राजनीति में समझौते करने पड़ते हैं अपने सिद्धांतों और अपनी विचारधारा के साथ, लेकिन किस हद तक? कहां चले जाते हैं प्रधानमंत्री के ऊंचे सिद्धांत, जब राज्य सरकारें असमय गिराई जाती हैं, बिना यह सोचे कि उस राज्य को कितना नुकसान होता है?
एक वह जमाना था जब ‘आया राम गया राम’ की खूब चर्चा होती थी, लेकिन उस किस्म की दलबदलू राजनीति को समाप्त करने के लिए कानून बने थे संसद में। क्या अब समझा जाए कि वे तमाम प्रयास बेकार गए? क्या समझा जाए कि वही पुरानी बीमारी फिर से फैल गई है देश के राजनीतिक ढांचे में? और ऐसा है अगर, तो किस मुंह से जाएंगे जनता के पास अगले साल वे जनप्रतिनिधि, जो चुने गए थे एक राजनीतिक दल के सदस्य बन कर और अब अपना लिबास, दल और सोच बदल चुके हैं।
क्या इसको जनता के साथ बेवफाई माना जाए या चतुर राजनीति? कैसे स्वीकार करेंगे मतदाता उन लोगों को, जिन्होंने उनके विश्वास, उनकी वफा, उनके प्यार को ऐसे अलग फेंका है जैसे इन चीजों का कोई मतलब ही नहीं रहा हो? इन सवालों के जवाब कुछ महीनों में मिल जाएंगे।
फिलहाल मेरे मन में घूम रहे हैं उस सुंदर फिल्मी गाने के बोल, जिसके साथ इस लेख को मैंने शुरू किया था। फिलहाल हम आप राजनीतिक तमाशा देख कर उस गाने के बोल याद ही कर सकते हैं, एक दो शब्द बदल कर। दिल लगा कर हमको समझना है कि ईमान कहते हैं किसे और बेईमानी क्या चीज है। दिल लगा कर हमको समझने की कोशिश करनी पड़ेगी कि भारतीय राजनीति क्या चीज है।
