सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को रक्षा बलों के लिए वन रैंक, वन पेंशन (One Rank One Pension) पर सरकार के फैसले को बरकरार रखा और कहा कि ओआरओपी सिद्धांत और 7 नवंबर, 2015 की अधिसूचना में उसे कोई संवैधानिक दोष नहीं दिखता है। शीर्ष अदालत की खंडपीठ ने कहा, “वन रैंक-वन पेंशन (ओआरओपी) सरकार का नीतिगत फैसला है और नीतिगत मामलों पर अदालत दखल नहीं देता है।”

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, सूर्यकांत और जस्टिस विक्रम नाथ की पीठ ने कहा कि ओआरओपी के केंद्र का नीतिगत फैसला मनमाना नहीं है। पीठ ने निर्देश दिया कि ओआरओपी के पुनर्निर्धारण की कवायद एक जुलाई, 2019 से की जानी चाहिए और पेंशनभोगियों को बकाया भुगतान तीन महीने में होना चाहिए।

शीर्ष अदालत ने सेवानिवृत्त सैनिक संघ द्वारा दायर उस याचिका का निपटारा किया, जिसमें भगत सिंह कोश्यारी समिति की सिफारिश पर पांच साल में एक बार आवधिक समीक्षा की वर्तमान नीति के बजाय स्वत: वार्षिक संशोधन के साथ ‘वन रैंक वन पेंशन’ को लागू करने का अनुरोध किया गया था।

फैसले के संचालन भाग की घोषणा करते हुए, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि सभी पेंशनभोगी जो समान रैंक रखते हैं, सुनिश्चित कैरियर प्रगति और संशोधित सुनिश्चित कैरियर प्रगति को ध्यान में रखते हुए एक समरूप वर्ग नहीं बना सकते हैं।

शीर्ष अदालत ने कहा कि कोई कानूनी आदेश नहीं है कि समान रैंक वाले पेंशनभोगियों को समान पेंशन दी जानी चाहिए, क्योंकि वे एक समरूप वर्ग का गठन नहीं करते हैं। इस मामले में करीब चार दिनों तक चली लंबी सुनवाई के बाद कोर्ट ने 23 फरवरी को फैसला सुरक्षित रख लिया था।

यह फैसला भारतीय पूर्व सैनिक आंदोलन (आईईएसएम) द्वारा अधिवक्ता बालाजी श्रीनिवासन के माध्यम से ओआरओपी के केंद्र के फार्मूले के खिलाफ दायर एक याचिका पर आया है। शीर्ष अदालत ने कहा था कि वह जो भी फैसला करेगी वह वैचारिक आधार पर होगी न कि आंकड़ों पर आधारित होगी।

इसमें कहा गया था, ‘जब केंद्र पांच साल के बाद संशोधन करता है तो पांच साल के बकाया को ध्यान में नहीं रखा जाता है। यदि अवधि को पांच वर्ष से घटाकर कम कर दिया जाए तो भूतपूर्व सैनिकों की कठिनाइयों को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।