अपनी समस्याओं को लेकर आंदोलन पर उतरना नागरिकों का लोकतांत्रिक अधिकार है। मगर चिंता का विषय है कि पिछले कुछ वर्षों में अक्सर नागरिक आंदोलन हिंसक रूप लेते देखे गए हैं। इसकी कई वजहें हो सकती हैं, मगर गंभीर सवाल यह भी है कि ऐसी स्थितियों से निपटने में सरकारें क्यों विफल साबित हो रही हैं।
एक महीने के भीतर बिहार में यह दूसरी घटना है, जब किसी आंदोलन पर काबू पाने के लिए पुलिस को लाठी-डंडे और बंदूक का सहारा लेना पड़ा। ताजा घटना में पुलिस की गोली से दो लोगों के मारे जाने की सूचना है। इसके पहले पटना में शिक्षक भर्ती की मांग को लेकर जब भाजपा कार्यकर्ताओं ने आंदोलन किया था, तब पुलिस ने जम कर लाठियां बरसाई थीं। उसमें कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे।
ताजा घटना वहां के कटिहार जिले की है। स्थानीय लोग बिजली आपूर्ति बेहतर करने की मांग लेकर प्रदर्शन कर रहे थे। बताया जा रहा है कि बिजलीघर के बाहर उग्र भीड़ ने पत्थरबाजी शुरू कर दी। उसे रोकने के लिए पुलिस बल को बुलाया गया। फिर भीड़ ने पुलिस पर भी पत्थर बरसाने शुरू कर दिए। इससे कई पुलिसकर्मियों को गंभीर चोटें आई। भीड़ को काबू में न आता देख पुलिस ने गोली चला दी, जिसमें दो युवक मारे गए।
अब पिछले कुछ वर्षों में देखा जा रहा है कि नागरिक आंदोलन और प्रदर्शन किन्हीं समस्याओं को लेकर शुरू तो होते हैं, मगर उनका मिजाज राजनीतिक हो जाता है। वे किसी न किसी राजनीतिक दल से प्रेरित पाए जाते हैं। इस तरह उनका मिजाज लोकतांत्रिक के बजाय अक्सर अलोकतांत्रिक और अराजक हो जाता है। वरना बिजली आपूर्ति ठीक करने की मांग में ऐसा कोई तत्त्व नहीं माना जा सकता, जिसके लिए पत्थरबाजी करनी पड़े।
इसे शांतिपूर्ण तरीके से भी किया जा सकता था। इस तरह के आंदोलनों और धरना-प्रदर्शनों ने आंदोलनों की मर्यादा को ही धूमिल किया है। मगर इससे पुलिस को अपने बचाव का आधार नहीं मिल जाता। निस्संदेह उग्र भीड़ पर काबू पाना पुलिस का कर्तव्य है, मगर उसका तरीका केवल लाठी और बंदूक चलाना नहीं हो सकता।
मगर शायद पूरे देश की पुलिस को इस बात पर यकीन हो चला है कि कानून-व्यवस्था केवल बंदूक के बल पर ही कायम हो सकती है। बिहार पुलिस तो बहुत पहले से इस सिद्धांत पर अमल करती देखी जाती है। जब भी इस तरह के आंदोलनों से निपटने के लिए दमन का रास्ता अख्तियार किया जाता है, तो पुलिस के कामकाज पर स्वाभाविक ही सवाल उठते हैं और उसे सुधारने के सुझाव भी दिए जाते हैं, मगर उन पर अमल नहीं हो पाता।
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार सुशासन की पैरोकार है। मगर यह कैसा सुशासन है, जिसमें लोगों की मांग के बदले गोलियां चलाई जाती हैं। क्या प्रदर्शनकारियों से बातचीत के जरिए कोई समाधान नहीं निकाला जा सकता था। सक्षम प्राधिकार को यह बात क्यों समझ नहीं आई। उन्हें तभी होश क्यों आता है, जब कोई बड़ी घटना घट जाती है।
फिर पुलिस ऐसे मौकों यह प्रशिक्षण क्यों भूल जाती है कि भीड़ पर काबू पाने का तरीका केवल बंदूक चलाना नहीं होता। अगर किन्हीं विषम परिस्थितियों में गोली चलानी भी पड़ जाए, तो रबड़ की गोली चलाई जाती है, आंसू गैस के गोले दागे जाते हैं। सीधे निशाना बना कर गोली नहीं दागी जाती। ऐसे गोली चालन से तो हत्या का इरादा जाहिर होता है।