विपक्ष के ‘केष्टो मुखर्जी’ का प्रहसन चलता रहा! चैनलों में सांसदों के निष्कासन का मुद्दा गरमाता रहा और बहसों में हजार बार लोकतंत्र मरता रहा और उतनी ही बार उसे बचाने के लिए ताल ठोकी जाती रही।एक चैनल तुरंत सर्वे करके बताता रहा कि सांसदों को थोक के भाव निकालना कितनों ने सही माना कितनों ने गलत। और विपक्ष बिसूरता रहा कि लोकतंत्र मर रहा है, मर चुका है और मर कर रहेगा!
एक चैनल देश का ‘मूड’ बताता रहा और प्रहसन पर हंसने वालों को रुलाता रहा कि कुछ कर लो आएगा मोदी ही! एक ‘आहत’ सीन आया। एक नामी महिला पहलवान ने विरोध स्वरूप रोते हुए कुश्ती के जूते लौटाए और एक अन्य पहलवान ने पद्म पदक लौटाया। इसे देख सरकार ने कुश्ती संघ को भंग कर दिया और बदले में पहलवानों से थैंक्यू कहा। पहले ही भंग कर देते तो क्या बिगड़ जाता सर जी!
इन दिनों तो विपक्ष द्वारा मीडिया को ही ‘टारगेट’ बना लिया जाता है। अगर कोई एंकर, किसी विपक्षी प्रवक्ता को किसी बात पर रोकता टोकता है तो वह मीडिया पर पिल पड़ता है। एक विपक्षी प्रवक्ता मीडिया पर इस कदर नाराज दिखे कि एंकर को ही जवाब देना पड़ा कि अपनी असफलताओं का ठीकरा मीडिया के सिर मत फोड़िए। देश देख रहा है।
कर्नाटक से पहले ‘हिजाब विरोधी कानून’ को ‘हटाने’ की खबर आई। फिर एक दिन कुछ कट्टर कन्नड़भाषियों द्वारा बंगलुरू में अंग्रेजी साइनबोर्ड की तोड़-फोड़ की खबरें छाई रहीं। एक चर्चक ने बताया कि इस सबके पीछे उत्तर विरोधी ‘तत्व’ सक्रिय हैं! इसके बाद की सारी कहानी अयोघ्या के ‘भव्य राम मंदिर’ में रामलला के ‘प्राण प्रतिष्ठा’ समारोह की रही। अधिकांश चैनल ‘अयोध्यामय’ और ‘राममय’ दिखे।
मंदिरवादी कहते कि पांच सौ साल के बाद रामलला अपने घर में विराजेंगे तो कुछ विपक्षी एतराज करते कि रामलला को हाथ पकड़ कर ‘वे’ क्यों ले जा रहे हैं? क्या ‘वे’ राम जी से भी बड़े हैं? तो जवाब आता कि ‘वे’ कहां ले जा रहे हैं, असल में तो रामलला ही उनका हाथ पकड़कर ले जा रहे हैं। फिर कोई रोने लगता कि बाइस जनवरी को ही प्राण प्रतिष्ठा करने की क्या जरूरत थी? यह सब चुनाव के लिए किया जा रहा है। कायदे से तो इसे ‘राम नवमी’ के अवसर पर होना चाहिए था, तो जवाब आता कि यह भाजपा या सरकार ने नहीं मंदिर ट्रस्ट ने तय किया है।
इसके आगे, कई दिन तक ‘बुलावे’ को लेकर ‘कांय- कांय’ होती दिखी। कोई कहता कि उद्घाटन के अवसर पर हमको नहीं बुलाया। उन- उन को भी नहीं बुलाया, हम क्यों जाएं? फिर कटाक्ष किया जाता कि जिनने ‘राम रथ यात्रा’ निकाली उन तक को नहीं बुलाया जा रहा, कि राष्ट्रपति को क्यों नहीं बुलाया जा रहा, तो जवाब आता कि आपको कैसे मालूम कि नहीं बुलाया, कि बुलाने का काम ट्रस्ट का है कि किसे बुलाए।
एक भक्त प्रवक्ता विलापे कि ढांचा तोड़ा हमारे बंदों ने, मरे हमारे बंदे और हमें ही निमंत्रण नहीं, यह राजनीति है। इसका जवाब भी यही रहा कि बुलाना न बुलाना ट्रस्ट का काम है।इसके आगे ‘बाइकाट ब्रिगेड’ ने कहानी संभाली! इस मामले में गजब ढाया वीएचपी के कार्यकर्ता ने कि वे लेफ्ट के एक नेता को उद्घाटन समारोह में शामिल होने का निमंत्रण देने स्वयं गए और एक चैनल पर साफ सुथरे उच्चारण के साथ हिंदी में बताए भी कि वे जब मिलने गए तो एक कामरेड नेता ने उनका निमंत्रण खुशी से ग्रहण किया। लेकिन, कुछ ही देर बाद एक चैनल में कामरेड कहते दिखे कि हम शामिल नहीं हो रहे। फिर सफाई आती रही कि धर्म हमारे लिए निजी आस्था का विषय है।
फिर एक अंग्रेजी चैनल पर एक ‘निष्कासित विपक्षी जी’ ने लाइन दी कि रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेताओं को जरूर शामिल होना चाहिए, क्योंकि ऐसा अवसर कभी कभी आता है! इस मामले में जब प्रवक्ताओं से पूछा गया तो यही जवाब आता दिखा कि राम सबके हैं। हमारे ही नेता ने राम जन्मभूमि का ताला खुलवाया था।
इस पर राम भक्तों द्वारा तुरंत कहा जाने लगता कि आपके एक नेता ने तो राम जी का अस्तित्व तक नहीं माना था कहा था कि राम काल्पनिक हैं, आप कब से भक्त हो गए? इसके बाद हर चैनल पर ‘बाईकाट ब्रिगेड’ जल्वागार थी: सभी इसी लाइन के दिखे कि हम नहीं जाएंगे। सिर्फ एक विपक्षी सांसद उवाचीं कि बुलाया तो जाएंगे न बुलाया तो बाद में जाएंगे। विपक्षी गठबंधन अपने अंतर्विरोधों से हिलता दिखा। एक वरिष्ठ विपक्षी नेता कह दिए कि ‘बाइस जनवरी काला दिन है।’
नागपुर की एक विपक्षी रैली में मुखड़ा बजता दिखा कि ‘हैं तैयार हम’! विपक्ष में ‘चेहरा बरक्स चेहरा’ होता दिखा! विपक्ष के एक नेता ने ‘खरगे फरगे’ कह कर एक नया ‘विवाद’ पैदा कर दिया और एक दलित नेता ने ‘बहन मायावती’ के चेहरे को ही प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में प्रस्तावित करके नई मुसीबत खड़ी कर दी!